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रघुवीर सहाय की तीन क्रांतिकारी कविताएं
तोड़ो तोड़ो तोड़ो- रघुवीर सहाय
तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती को हम जानें
सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने
तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये ऊसर बंजर तोड़ो
ये चरती परती तोड़ो
सब खेत बनाकर छोड़ो
मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को
हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो
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धाराओं में कभी न बहना
हाँ प्रतिरोध पड़ेगा सहना
हँसकर सहिये
चलते रहिये
कहते रहे समय के पहिये
भावुकता अवरोध बनेगी
प्यार बनेगी क्रोध बनेगी
किन्तु न ढहिये
चलते रहिये
कहते रहे समय के पहिये
जो भी थके झुके दिख जायें
पथ में कहीं रुके दिख जायें
उनसे कहिये
चलते रहिये
कहते रहे समय के पहिये।
…………………….
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बांध लूंगा मैं!
आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि – छिछला, निरुद्देश्य और
लक्ष्यहीन जीवन
हमें स्वीकार नहीं।
हम ऊँघते, क़लम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जिएंगे।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान में जिएंगे।
असली इनसान की तरह जिएंगे।