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भारत में 50 फीसदी महिलाएं हैं एनीमिया से पीड़ित, उनमें सेहत की समझ बढ़ाना ज़रूरी: शबाना आज़मी

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वर्षों से अपने पेशे और उससे इतर कामों के दौरान मैं इस एक हकीकत से हमेशा रू-ब-रू होती रही हूँ कि भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर तमाम बातों और कार्रवाइयों में लगभग कोई बदलाव नहीं हुआ है. दूसरी तरक्कियाँ हुई हैं और अहम बदलाव भी हुए हैं लेकिन दूसरे मसलों की तुलना में यह समस्या और बढ़ी ही है. जिस दुनिया में महिलाओं के स्वास्थ्य और अधिकारों को सक्रियता से प्राथमिकता दी जाती हो, ऐसी दुनिया बनाने के लिए जब तक निरंतर एक सार्थक संवाद और प्रतिबद्ध कार्रवाई नहीं की जाती तब तक हम वास्तविक बदलाव नहीं देख सकते.

भारत में, महिलाओं के स्वास्थ्य के मसले को प्रायः धुंधले चश्मे से देखा जाता है, उनके जीवन के विशेष चरणों या उनकी उपलब्धियों पर ही ज़ोर दिया जाता है. इस देश की आधी से ज्यादा महिलाएँ खून की कमी यानी कि एनीमिया से पीड़ित हैं लेकिन इस मसले पर तभी ध्यान दिया जाता है जब महिला गर्भवती होती है. एक माँ के रूप में अपनी पहचान से अलग, महिलाओं में खून की कमी उनकी कुल सेहत पर कितना दीर्घकालिक और घातक असर डाल सकती है उसका क्या? एक महिला की जिंदगी इसके कारण रोज़ जिन चुनौतियों से गुजरती है, उनका क्या?

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की एक दूत के रूप में मुझे मुंबई की झोपड़पट्टियों में रहने वाली महिलाओं के बीच काम करने का मौका मिला. मैंने पाया कि वह समुदाय इस बात को लेकर आम तौर पर जागरूक है कि महिलाओं के चेहरे पर पीलापन स्वास्थ्य संबंधी किन वजहों से आता है, कि इसका संबंध उनमें खून की कमी से है. लेकिन लापरवाही के कारण इस मसले की गंभीरता की उपेक्षा कर दी जाती है.

खून की कमी मुख्यतः अपौष्टिक भोजन के कारण होती है और यह स्त्री-पुरुष की भूमिकाओं के बारे में बनी गहरी धारणाओं का नतीजा है. खासकर गाँवों के अधिकतर घरों में महिलाएं परिवार की जरूरतों को अपनी निजी जरूरतों से ज्यादा महत्व देती हैं. भारत में, यह महिलाएँ प्रायः घर में सबसे अंत में भोजन करती हैं और अक्सर ऐसा होता है कि अधिकांश पौष्टिक भोजन परिवार के दूसरे सदस्यों के हिस्से में चला जाता है.

आत्मत्याग की यह भावना भारतीय महिलाओं को घुट्टी में पिलाई गई है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम न केवल उन्हें खुद बल्कि परिवार के बाकी सदस्यों को भी भुगतने पड़ते हैं. इसके कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी को खून की कमी के दुष्चक्र से गुजरना पड़ता है.

सामाजिक धारणाओं के अलावा, कीमत भी अहम भूमिका निभाती है. मैं ऐसी औरतों से मिल चुकी हूं जो अपनी पूरी कोशिश के बावजूद खुद को ऐसे दुष्चक्र में फँसा पाती हैं कि पौष्टिक भोजन और स्वास्थ्य सेवा उनकी पहुँच से दूर ही रहती है. मांस, मछली, पत्तेदार हरी सब्जियों जैसे आयरन युक्त आहारों की कीमत इतनी है कि ये कई लोगों की पहुंच से दूर ही रहते हैं. ये उपलब्ध भी हों, तो उनके महत्व के बारे में जानकारी की कमी के कारण उनका नाकाफी उपभोग किया जाता है. अध्ययनों से पता चलता है कि कई महिलाओं को पौष्टिक भोजन की प्रारंभिक बातें भी नहीं पता होतीं और उन्हें यह पता नहीं होता कि संतुलित आहार के लिए क्या-क्या खाद्य सामग्री जरूरी है.

महिलाओं में सेहत के बारे में जागरुकता

शरीर में खून की कमी कुपोषण और खराब सेहत का कारण भी और परिणाम भी है. मामला केवल पर्याप्त आहार लेने का नहीं है, बल्कि सही पोषक सामग्री लेने का भी है. भारतीय आहार पारंपरिक रूप से संतुलित और पौष्टिक होते हैं. लेकिन खानपान की आगे जो रवायत बनी उसके कारण हम संतुलित आहार से दूर होते गए और ‘प्रोसेस्ड फूड’ की ओर बढ़ते गए. जागरूकता की कमी के साथ, इस बदलाव ने समस्या को गहरा बना दिया.

विशेषज्ञों का कहना है कि खानपान की आदतें जीवन पर्यंत बनती-बदलती रहती हैं. यह पोषण में सुधार करने और खून की कमी की समस्या से लड़ने की संभावनाएं पैदा करती है. इन आदतों को बदलना हालांकि आसान नहीं होता लेकिन उन्हें बदला जा सकता है और यह जरूरी भी है. इसके लिए ऐसे सांस्कृतिक बदलाव की जरूरत है जिसमें महिलाओं की सेहत को परिवार, समुदाय और देश के कुशलक्षेम के लिए केंद्रीय महत्व दिया जाता हो.

हमें महिलाओं को ऐसी जानकारियां देकर ताकतवर बनाने की जरूरत है जिनके बूते वे खानपान के बारे में सोचे-समझे फैसले कर सकें. भारतीय महिलाएँ अपने परिवार की खानपान की आदतें बनाने और पौष्टिक भोजन बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं. उन्हें संतुलित आहार, पौष्टिकता संबंधी जरूरतों, और स्वास्थ्यप्रद पाक विधियों के बारे में शिक्षित करने से बदलाव की लहर पैदा हो सकती है.

फिलहाल जो कार्यक्रम चल रहे हैं उनमें सेहत संबंधी ज्ञान को शामिल किया जाना चाहिए और महिलाओं पर खासतौर से ध्यान देना चाहिए. पोषण और सेहत के बीच के संबंध के बारे में, और भोजन से पैदा होने वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को रोकने और उनका समाधान करने के ज्ञान के बारे में समझदारी भी इसमें शामिल है.

सहायता का नेटवर्क और ‘सपोर्ट ग्रुप्स’ तैयार करना भी महत्वपूर्ण साबित हो सकता है, जिनमें महिलाएँ अपने ज्ञान को साझा कर सकें और एक-दूसरे को सेहतमंद खानपान अपनाने को प्रेरित कर सकें. सेहत के बारे में जागरूकता बढ़ाने के साथ-साथ हमें ऐसा वातावरण भी बनाना होगा जिसमें महिलाएँ अपनी जरूरत की खाद्य सामग्री हासिल कर सकें.

महिलाओं की सेहत हमारे राष्ट्र की सेहत का आधार है. हमें ऐसे सामाजिक मानकों को खारिज करना होगा जो महिलाओं की जरूरतों को बाकी सबकी जरूरतों से नीचा बताते हैं, और ऐसी मानसिकता अपनानी होगी जो महिलाओं के कुशल-क्षेम को तरजीह देती हो.मामला केवल खानपान का नहीं है, यह गरिमा और समानता से भी जुड़ा है. महिलाएँ खुद अपने पोषण की व्यवस्था कर सकें, यह ज्ञान और क्षमता देकर हम उन्हें शक्तिसंपन्न बना सकें तो हम न केवल उनमें खून की कमी की समस्या से लड़ सकेंगे बल्कि उनके लिए एक ऐसा भविष्य भी निर्मित कर सकेंगे जिसमें वे आगे बढ़ने के लिए सेहत और ताकत से लैस हो सकेंगी.

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