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भारतीय इतिहास की वीरांगना रानी दुर्गावती — डॉ. जगदीन्द्र राय चौधरी

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भारत के इतिहास में महारानी दुर्गावती का नाम स्मरणीय है। रानी दुर्गावती की 500वीं जयंती 5 अक्टूबर को उनके जन्मस्थान, बुन्देलखंड क्षेत्र के बांदा जिले के ऐतिहासिक किले कलिंजर में मनाई गई। कलिंजर उत्तर प्रदेश में है। सौभाग्य से मुझे इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने का अवसर मिला। इस कार्यक्रम में अरुण दिवाकर नाथ वाजपेयी (तीन विश्वविद्यालयों के पूर्व कुलपति) ने भाग लिया, जिन्होंने रानी दुर्गावती पर आधारित कविताएँ लिखी थीं। कविताओं के छंदों से प्रस्फूटित तेजस्विनी दुर्गावती का जीवन गाथा हमें रोमांचित कर रहे थे। बाजपेयी की ओजपूर्ण वाणी ने सभी को प्रभावित किया। रानी दुर्गावती की वीरता, बुद्धिमत्ता, सामाजिकता और धार्मिक निष्ठा का भारतीय इतिहास में बहुत कम उल्लेख मिलता है। ऐसी तेजस्वी रानी की
जीवन गाथा, जिन्होंने किसी भी शक्ति, विशेषकर मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के बजाए अपने प्राणों का बलिदान देना उचित समझा, बहुत कम लोग जानते हैं। रानी दुर्गावती के बारे में कुछ जानकारी देने का यह मेरा एक छोटा सा प्रयास है। रानी दुर्गावती के पिता महाराजा कीर्तिदेव थे, जो कलिंजर के किले में रहकर अपना राजकार्य का संचालन करते थे। वह हमेशा प्रजा की कल्याण के बारे में सोचते थे। एक दिन जब वह राजसभा में बैठे थे, तभी राजपरिवार की धाय ने आकर राजा को संदेश दिया कि उनके यहाँ बेटी का जन्म हुआ है। राजसभा में उपस्थित ज्योतिषी ने राजा को बताया कि यह बच्ची सुंदर, तेजस्विनी, कुशल शासक और बहादुर होगी। बेटी का नाम दुर्गावती रखा गया।

समय के साथ-साथ दुर्गावती बड़ी होने लगी और तीन साल की उम्र में शुद्ध उच्चारण करने में सक्षम हो गईं। महाराज ने पंडित मनमोहन को शिक्षक नियुक्त किया। पर दुर्गावती की रुचि शिक्षा से अधिक घुड़दौड़ में थी। शिकार करने में उनकी रुचि के कारण उनके पिता राजा कीर्तिदेव शिकार पर जाते समय दुर्गावती को अपने साथ ले जाने लगे। वह बचपन से तलवारबाजी में कुशल थी और माँ काली की तरह तलवारबाजी नृत्य करती थी। बचपन में एकबार दुर्गावती अपने घोड़े की सवारी करते समय कुछ लोगों को इधर-उधर भागते हुए देखा। पता चला कि एक जंगली हाथी ने आतंक मचा रखा है। एक महावत जैसे-तैसे उस हाथी को जंजीर से बांध चुका था। दुर्गावती उस स्थान पर पहुंची और महावत से हाथी की सवारी करने की जिद करने लगी। महावत ने कहा किजंगली हाथी की सवारी करने से पहले उसे प्रशिक्षित और पालतू बनाना जरूरी है। वह हाथी को राजकुमारी के लिए नहीं छोड़ना चाहता था। दुर्गावती भी अड़ गयी। महावत असमंजस में गड़ गया। दुर्गावती ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और उस पर सवार होकर जंगल घूम आयी। दुर्गावती के इस कृत्य से महावत को बड़ा आश्चर्य हुआ। इस प्रकार वह घुड़सवारी, तीरंदाजी और तलवारबाजी आदि के अभ्यास में व्यस्त हो गई। संस्कृत व्याकरण आदि का भी अध्ययन करने लगी। महाराजा अपनी बेटी दुर्गावती के प्रशिक्षण से प्रसन्न हुए और उन्होंने मन ही मन सोचा कि उनका राज्य दुर्गावती जैसी पराक्रमी योद्धा के लिए सुरक्षित रहेगा। कलिंजर के दक्षिण में एक और बड़ा राज्य था गोंडवाना। दोनों राज्यों की सीमा पर एक मंदिर था। मनियागढ़ नामक इस मंदिर में दोनों राज्यों से लोग दर्शन करने आते थे। एक बार दुर्गोत्सव के अवसर पर दुर्गावती ने मंदिर दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की तो राजा ने मंदिर के पास छावनी बना दी। अगले दिन दुर्गावती अपने कुछ साथियों के साथ मंदिर दर्शन के लिए गई लेकिन वापसी के लिए जंगल का रास्ता चुना। कुछ आगे बढ़ने पर एक महाराज को अपने सैन्यदल के साथ आता हुआ देखकर रुक गयी। असल में उन दोनों ने एक खूंखार जानवर पर दोनों तरफ से तीर चलाए थे। दोनों का कहना था कि वह जानवर सामनेवाले के तीर से मरा है।

राजा ने अपना परिचय दलपति शाह बताया और विदा लेते समय दुर्गावती से उनका परिचय पूछा। दोनों अलग हो रहे थे लेकिन पहली नजर में ऐसा लगा कि उन्हें एक-दूसरे से प्यार हो गया है। कलिंजर और गोंडवाना दोनों राज्य स्वतंत्र थे जो कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। दोनों राज्यों की इस एकरूपता के कारण दुर्गावती ने मन ही मन दलपति शाह को अपना पति स्वीकारते हुए एक पत्र लिखा। इसके बाद दोनों एक-दूसरे से मिले। जब यह बात दुर्गावती के पिता को पता चली तो उन्हें दुर्गावती की पसंद पर प्रसन्नता दिखाते हुए दलपति शाह को आमंत्रित किया। शुभ मुहूर्त देखकर उन्होंने गोंडवाना में दोनों की शादी करा दी। दुर्गावती गोंडवाना की रानी बनीं। कलिंजर की राजकुमारी दुर्गावती विवाह के पश्चात सिंगोर में बस गईं और राजकार्य में भाग लेकर विभिन्न वषयों पर परामर्श देने लगी। दुर्गावती ने सबसे पहले गोंडवाना के सभी स्थानों का दौरा किया और वहाँ की समाज व्यवस्था, कृषि, खनिज, प्राकृतिक और वन भूमि, संस्कृति आदि के बारे में जानकारी हासिल किया और राज्य के लोगों को कैसे आगे बढ़ाया जाए इसकी योजना बनानी शुरू कर दी। सबसे पहले वह भेराघाट जाकर अपनी इच्छा पूर्ति हेतु नर्मदा नदी में स्नान किया। उन्होंने सभी प्रकार के लोगों से बातचीत कर उनकी पीड़ाओं को समझा और उनकी स्थिति में सुधार के लिए उपाय खोजे। शादी के तीन साल बाद उन्हें एक बेटा हुआ। उसका नाम वीरनारायण रखा गया। पर दुर्गावती का सुखी जीवन अधिक समय तक नहीं चल सका। उनके पति महाराजा दलपति शाह बीमारी से ग्रस्त होकर संसार से विदा ले ली। दुर्गावती ने अपने सारे कष्ट भुला दिए और छोटे वीरनारायण को सिंहासन पर बिठाया और स्वयं राज्य का संचालन करने लगी। इससे दलपति शाह के भाई चन्द्र सिंह कुपित होकर घर छोड़ कर चले गये लेकिन इससे राज्य को कोई नुकसान नहीं हुआ। अपने शासनकाल की शुरुआत में रानी दुर्गावती ने पूरे गोंडवाना का दौरा किया और यह स्पष्ट किया कि यहाँ के लोगों के जीवन में सुधार होना चाहिए। इसके लिए मुख्य कार्य भोजन है। एक-एक करके वे खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम उठाने लगी। राजा दलपति शाह का जो महावत था उसके पुत्र का नाम गणु था और गणु ही दुर्गावती को हाथी की पीठ पर बिठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाता था।

कृषि पर जोर देने के साथ-साथ उन्होंने प्रत्येक नागरिक को युद्ध प्रशिक्षण का भी प्रबंध किया। उन्होंने कुछ हथियार कारखाने भी बनवाये। उन्होंने न केवल पुरुषों को प्रशिक्षित किया, बल्कि महिलाओं के लिए भी अलग व्यवस्था की। इधर दुर्गावती का पुत्र वीरनारायण धीरे-धीरे किशोरावस्था को प्राप्त हो चुका था। उसके अस्त्र-शस्त्र चालन देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे। रानी दुर्गावती की दूरदर्शिता ने गोंडवाना राज्य को समृद्ध कर दिया। लोगों को लगने लगा कि राम राज्य वापस आ गया है। रानीदुर्गावती की सुनियोजित एवं दूरगामी योजनाओं के कारण गोंडवाना राज्य खूब फला-फूला। सभी प्रजा खुशहाल थी। जब बाज बहादुर को यह पता चला तो उसने गोंडवाना पर आक्रमण करने की योजना बनाई। गुप्तचरों से सूचना मिलने पर दुर्गावती ने उसी रात सेनापतियों से बैठक कर बाज बहादुर मालवा के किस तरफ से आक्रमण कर सकता है उसका एक नक्शा तैयार कर बता दिया। बाज बहादुर अफगान सैनिकों के साथ गोंडवाना पर चढ़ाई करने के लिए निकल पड़ा। रानी दुर्गावती अपने हाथियों, घोड़ों और पैदल सेना को आगे बढ़ाते हुए स्वयं हाथी पर चढ़कर युद्ध के लिए निकल पड़ी। युद्ध में जाते समय राजकुमार वीरनारायण रोने लगा तो रानी ने उसे अपनी विश्वासी अनुचर रामचेरी को सौंप दिया और युद्ध में चली गईं। जैसे ही बाज बहादुर और उसका चाचा फतेह खाँ अपने सैनिकों के साथ आगे बढ़ाकर पहाड़ों के बीच पहुंचे, रानी की सेना बाज बहादुर के सैनिकों पर टूट पड़े। दोनों पक्षों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। लड़ते लड़ते दुर्गावती फतेह खाँ के पास पहुंच गयी। फतेह खाँ ने दुर्गावती पर प्रहार करना शुरू कर दिया। दुर्गावती ने उसे ललकारते हुए कहा कि यह तलवार कलिंजर के लोहे से बनी है, इससे कोई नहीं बच सकता। दुर्गावती ने मौका पाकर फतेह खाँ का सिर काट दिया। फतेह खाँ की ऐसी हालत देखकर बाज बहादुर की सेना तितर बितर हो गयी। बाज बहादुर के बहुत सारे सैनिक मारे गये लेकिन दुर्गावती के युद्ध की उत्तम योजना के कारण उनके बहुत कम सैनिक मारे गये। बाज बहादुर ने एक-एक करके तीन बार आक्रमण किया परन्तु कभी सफल नहीं हो सका। अंततः उसने बादशाह अकबर से गुहार लगाई और कहा, ‘जहाँपनाह, कृपया कम से कम एक बार दुर्गावती को झुकाने की व्यवस्था करें।’ अकबर ने बाज बहादुर को शरण दिया और उसे एक हजार सिक्के इनाम में दिए। कुछ दिनों बाद अकबर ने सूबेदार आसफ खाँ के हाथ एक सोने के पिंजरा के साथ एक पत्र भेजा जिसमें रानी को बादशाह अकबर के सामने समर्पण करने के लिए लिखा था। जवाब में रानी दुर्गावती ने अकबर को एक सोने का चरखा और कुछ कपास भेजे। अकबर को भी यही अपेक्षा थी। उसे आक्रमण करने का बहाना मिल गया। दूसरी ओर दुर्गावती ने किसी के अधीन होने से बेहतर युद्ध में मरना स्वीकार किया। युद्ध अपरिहार्य था, इसलिए रानी रात में ही सेना प्रमुखों के साथ युद्ध की योजना पर चर्चा करने के लिए बैठक किया। दुर्गावती ने सभी को युद्ध की पूरी तैयारी करने के लिए प्रोत्साहित किया। अगली सुबह दुर्गावती के पुत्र वीरनारायण ने कुछ चुने हुए सैनिकों के साथ वेरघाट की ओर दुश्मन का पीछा किया, जबकि रानी दूसरी दिशा में घोड़े पर सवार होकर मोर्चा संभाला और कई मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। पुत्र वीरनारायण समेत सभी की बहादुरी की प्रशंसा करते हुए और अधिक मजबूती से लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। रानी ने मुगलों की तोप और बारूद के आने से पहले उन्हें हराना उचित समझा और इसलिए उन्होंने रात में आक्रमण करने की योजना बनाई। पर रानी के सेना प्रमुखों में से एक, बदन सिंह ने लालच के कारण रानी की योजना का संदेश गुप्त रूप से आसफ खाँ को भेज दिया। रानी पहाड़ी की चोटी से मुगल सेना से लड़ रही थी। युद्ध के बीच से समाचार आया कि मुगल सेना पर हमला करते हुए वीरनारायण घायल हो गए हैं। दुर्गावती ने अपने सहयोगी सेनापति को आदेश दिया कि वीरनारायण को तुरंत चौरागढ़ स्थानांतरित कर दिया जाए। रानी अकेली हो गयीं। अब तक आसफ़ खाँ ने तोपों से रानी के सौकड़ों सैनिकों को मार चुका था। मुगलों के हजारों सैनिकों की तुलना में रानी के पास केवल 300 सैनिक बचे थे। युद्ध के दौरान अचानक एक तीर रानी के दाहिने कंधे में लगा और दूसरा तीर उनके गले में लगा। रानी ने तीर को निकाला और घोड़े पर सवार होकर रणचंडी का रूप धारण कर दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए मुगल सैनिकों काटना शुरु कर दिया। इधर गर्दन के घाव से रक्त क्षरण अधिक होने लगा। थोड़ी देर बाद रानी का शरीर निढाल हो गया। उन्होंने सेनापति आधार सिंह को हिम्मत देते हुए अधिक आक्रमक होकर लड़ने का निर्देश दिया। उनकी मृत्यु का समय करीब आ गया था। जब दुर्गावती अपने शरीर को हिलाने-डुलाने में असमर्थ हो गई तो उसने बार-बार आधार सिंह से उनके शरीर पर प्रहार करने के लिए कहा। जब आधार सिंह ने रोते हुए कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता, तो रानी ने हथियार उठाकर अपनी आखिरी सांस ली और कहा, “मैं मुगलों की अधीनता कभी स्वीकार नहीं करूंगी। जय गोंडवाना की जय।” यह उनके आखिरी शब्द थे। आसफ खाँ की तोप और गोला- बारूद का सामना गोंडवाना के सैनिक नहीं कर सके। उसने लूटपाट शुरू कर दी, हजारों हीरे, जवाहरात, मोती, हाथी आदि लूटे और उनमें से केवल थोड़ी सी राशि बादशाह अकबर के पास भेजा। आसफ खाँ मन ही मन बादशाह बनने का सपना देख रहा था। अकबर को इसकी भनक लग गयी। उसने आसफ खाँ को दिल्ली बुलाया और उसे देशद्रोही करार देते हुए उसके टुकड़े-टुकड़े करवा कर दिल्ली की गलियों में फिंकवा दिया। दुर्गावती के आत्म-बलिदान की खबर पूरे गोंडवान राज्य में फैल गई। सभी प्रजा ने रानी की वीरता पर दुःख व्यक्त किया और उनके साहस और वीरता को शत-शत नमन किया। उनकी 500वीं जयंती पर यह हमारी छोटी सी श्रद्धांजलि है।

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मूल असमीया- डॉ. जगदीन्द्र राय चौधरी
हिंदी अनुवाद – लालजी सोनारी

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