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Hindi Kavita: भगवतीचरण वर्मा की 3 चुनिंदा रचनाएं

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1-

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें।

जीवन-सरिता की लहर-लहर,

मिटने को बनती यहाँ प्रिये

संयोग क्षणिक, फिर क्या जाने

हम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये।

पल-भर तो साथ-साथ बह लें,

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें।

आओ कुछ ले लें औ’ दे लें।

हम हैं अजान पथ के राही,

चलना जीवन का सार प्रिये

पर दुःसह है, अति दुःसह है

एकाकीपन का भार प्रिये।

पल-भर हम-तुम मिल हँस-खेलें,

आओ कुछ ले लें औ’ दे लें।

हम-तुम अपने में लय कर लें।

उल्लास और सुख की निधियाँ,

बस इतना इनका मोल प्रिये

करुणा की कुछ नन्हीं बूँदें

कुछ मृदुल प्यार के बोल प्रिये।

सौरभ से अपना उर भर लें,

हम तुम अपने में लय कर लें।

हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें।

जग के उपवन की यह मधु-श्री,

सुषमा का सरस वसन्त प्रिये

दो साँसों में बस जाय और

ये साँसें बनें अनन्त प्रिये।

मुरझाना है आओ खिल लें,

हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें।

 

2-

तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो

देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ’ जानो

इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो

लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो,

जीवन की धारा में अपने को बहने दो

तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो ।

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो

तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो

लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो

ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो

बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो ।

पल में रो देते हो, पल में हँस पड़ते हो,

अपने में रमकर तुम अपने से लड़ते हो

पर यह सब तुम करते – इस पर मुझको शक है,

दर्शन, मीमांसा – यह फुरसत की बकझक है,

जमने की कोशिश में रोज़ तुम उखड़ते हो ।

थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में,

चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में,

ज़िन्दगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है,

इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है

दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में ।

धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो

कडुआ या मीठा ,रस तो है छक कर छानो,

चलने का अन्त नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है

भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है

जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लम्बी तानो ।

 

3-

छिप सका प्यार का पागलपन ?

संकोच-भार को सह न सका

पुलकित प्राणों का कोमल स्वर

कह गये मौन असफलताओं को

प्रिय आज काँपते हुए अधर।

छिप सकी हृदय की आग कहीं ?

छिप सका प्यार का पागलपन ?

तुम व्यर्थ लाज की सीमा में

हो बाँध रही प्यासा जीवन।

तुम करुणा की जयमाल बनो,

मैं बनूँ विजय का आलिंगन

हम मदमातों की दुनिया में,

बस एक प्रेम का हो बन्धन।

आकुल नयनों में छलक पड़ा

जिस उत्सुकता का चंचल जल

कम्पन बन कर कह गई वही

तन्मयता की बेसुध हलचल।

तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं

मधु की मादकता को छूकर

वह देखो अरुण कपोलों पर

अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर।

तुम सुषमा की मुस्कान बनो

अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल

तुम मुझ में अपनी छवि देखो,

मैं तुममें निज साधना अचल।

पल-भर की इस मधु-बेला को

युग में परिवर्तित तुम कर दो

अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,

मेरे प्राणों में तुम भर दो।

तुम एक अमर सन्देश बनो,

मैं मंत्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ

तुम कौतूहल-सी मुसका दो,

जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ।

तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो

तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ

बहना है, बस बह चलो, अरे

है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?

थोड़ा साहस, इतना कह दो

तुम प्रेम-लोक की रानी हो

जीवन के मौन रहस्यों की

तुम सुलझी हुई कहानी हो।

तुममें लय होने को उत्सुक

अभिलाषा उर में ठहरी है

बोलो ना, मेरे गायन की

तुममें ही तो स्वर-लहरी है।

होंठों पर हो मुस्कान तनिक

नयनों में कुछ-कुछ पानी हो

फिर धीरे से इतना कह दो

तुम मेरी ही दीवानी हो।

साभार अमर उजाला

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