प्रिय मित्रों ! मैं पुनःआप सबकी सेवामें देवर्षि नारद कृत भक्ति-सूत्र
“तल्क्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात्।।१५।।”
“अब नाना मतभेद से भक्ति के लक्षण कहते हैं।
मैं आपको एक बात जरूर कहूँगा,और यह भी प्रार्थना करूँगा कि “यह एक महत्व पूर्ण तथ्य है”अभी कुछ दिनों पूर्व की घटना है-मैं लखनऊ गया था–चार-बाग रेलवे स्टेशन पर उतर कर जहाँ जाना था वहाँ का चार लोगों से रास्ता पूछा ! बडे ही आश्चर्य की बात चारों लोगो ने अलग-अलग रास्ते बताये,किसी ने पूर्व से ,किसी ने पश्चिम से ! मैं दस दिनों तक लखनऊ रहा ,चारो ही रास्तों से अलग अलग जाकर देखा सभी रास्ते समान सुविधा-असुविधा जनक थे।
किन्तु ! आप आज से लेकर सृष्टि के प्रारंभिक चरण तक का इतिहास उठाकर पढ डालो-“बाम्हन,कुत्ता नाऊ ! जात देख गुर्राऊ” जितने भी युद्ध हुवे हैं ! धर्म की रक्षा के नाम पर हुवे हैं ! अधर्म को मिटाने के नाम पर हुवे हैं !धर्म-राज्य की स्थापना के नाम पर हुवे हैं ! और मजे की बात यह भी है कि-महान बुद्धिजीवियों के द्वारा ही प्रायोजित किये गये हैं ! अब वे सम्राट अशोक,महान(?)अकबर,गुरू अफजल,सन्त(?)भिंडरांवाले से लेकर अयातुल्ला खोमैनी तक सभी एक ज्ञानी,विद्वान,की यह दृढ धारणा होती है कि-एक मात्र वह जो जानता है वही सही है ! दूसरे लोग जो भी जानते हैं-वह सब गलत है ! मेरी धृष्टता के लिये क्षमा करना–
ईसाइ कहते हैं-उनके अलावा सब दोजख में जायेंगे !
मुस्लिम कहते है-उनकेअलावा सब जहन्नुममे जायेंगे !
बौद्ध कहते हैं-उनके अलावा सब नर्क में जायेंगे !
जैन कहते हैं-उनके अलावा सब नर्क में जायेंगे !
हिंदू कहते हैं-उनके अलावा सब नर्क में जायेंगे !
शैब्य कहते हैं-उनके अलावा सब नर्क में जायेंगे !
वैष्णव कहते हैं-उनके अलावा सब नर्क में जायेंगे !
शाक्त कहते हैं-उनके अलावा सब नर्क में जायेंगे !
स्मार्त कहते हैं-उनके अलावा सब नर्क में जायेंगे !
सखियों ! क्या यही मत-भेद है ?
नहीं ! यह मन भेद है–“मतभेद स्वीकार्य है !मनभेद।त्याज्य है ! युद्ध,विवाद, मनभेद-शास्त्रार्थ के कारण होते हैं,”शास्त्र-अर्थ” के कारण नहीं होते ! यह सत्य ही कहा गया है कि–
“मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥”
अन्य किसी के विचारों से अपनी तथाकथित धार्मिक,सामाजिक, पठित, संस्कारित,मानसिक अथवा भाषायी कट्टरता एवं कुंठा के कारण उनका क्रोध में आवेशित होकर अत्यंत ही दृढता पूर्वक प्रतिशोधात्मक पूर्वाग्रह ग्रस्त भावना से विरोध करना ! उनकी मानसिक,सामाजिक,शारीरिक,आर्थिक क्षत्ति करने का प्रयास करना अथवा उनके विरोधियों की सहायता करना इसे भले ही आज राजनीति कहते हों किन्तु वस्तुतः यह ऐसी मूर्खता है जिसके दूरगामी परिणाम अत्यंत ही घातक होते हैं ! समूची मानवता के महाविनाश के भी कारण हो सकते हैं ! कुछ ऐसा ही यूरोपीय एवं इस्लामिक देशों के अधानुकरण के कारण आज समूचे भारत वासियों को भी भुगतना पड रहा है।
मित्रों ! मूर्खों के यही पाँच लक्षण हैं – “गर्व,अपशब्द,क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर ! अतः मैं अपने अनुभव से जो सीखा हूँ,वही कहूँगा कि,सभी मत,समप्रदाय,संत महापुरुषों के विचार अन्ततः एक ही लक्ष्य की प्राप्ति हेतु होते हैं।
उनका अध्ययन करने के पूर्व-
बुद्ध को पढने के पूर्व भिक्षु बनना पडेगा !
महावीर को पढने के लिये श्रमण बनना होगा !
कबीर को पढने के लिये साधो बनना होगा !
वात्स्यायनको पढने के लिये अकाम्य बनना होगा !
वेदांत को पढने के लिये संन्यासी बनना होगा !
कृष्ण को पढने के लिये गोपी बनना होगा !
प्यारे सखा वृँद ! आप लोग मुझसे पूछते हैं कि-
आप किस मार्ग का अवलंबन करते हैं ?
आप ब्रम्हसुत्र-वेदांत को मानते हैं ?
आप योगसुत्र-योग-साधना को मानते हैं ?
आप भक्तिसुत्र-भक्ति को मानते हैं ?
आप चार्वाक-नास्तिक वाद को मानते हैं ?
आप कामसुत्र-अकाम्य को मानते हैं ?
तो इसका उत्तर और इस सुत्र तथा आपके प्रश्न का भाव इस पद में नीहित है-
“अविगत गति कछु कहत न आवै॥
ज्यों गूँगेहि मीठे फलको रस अंतरगतही भावै।
परमस्वाद सबही जु निरंतर अमिततोष उपजावै॥
मन बानीको अगम अगोचर सो जानै जो पावै।
रूपरेखगुनजाति जुगुतिबिनु निरालंबमनचकृतधावै॥
सब बिधि अगम बिचारहिं ताते सूर सगुन लीलापद गावै।।”
मित्रों ! द्वैत-अद्वैत,साकार अथवा निराकार किन्हीं भी पथों में- “कान्ता” भाव दो प्रकार का होगा ! “स्वकीया तथा परकीया !” द्वैत,साकार भाव में लौकिक परकीया भाव त्याज्य है ! घृणास्पद है ! क्यों कि उसमें अंग-सड़्ग,कामवासना होगी और प्रेमास्पद- “जारपुरुष” अथवा पर-नारी ही होगी।
किंतु दिव्य कांता भावमें ! मेरे ह्रिदयेशजी के प्रति हुवे कांता भाव में-स्वकीया से श्रेष्ठ परकीया है ! निराकार से श्रेष्ठ साकार है ! अद्वैत से श्रेष्ठ द्वैत है ! इसमें अंग-सड़्ग,ईन्द्रिय-तृप्ति की आकांञ्छा नहीं है ! यह तो उन्हें अपने तन-मन-धनसे संतृप्त कर देने की अद्भुत समर्पण-मयी दिव्य रसानुभूति है!!
हाँ यही कांता-स्वरूपा भक्ति है, भक्ति-
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- Admin
- October 16, 2024
- 12:16 pm
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भक्तिसूत्र प्रेम-दर्शन देवर्षि नारद विरचित सूत्र-१५– आनंद शास्त्री
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