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भक्तिसूत्र प्रेम-दर्शन देवर्षि नारद विरचित सूत्र-१७–आनंद शास्त्री

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प्रिय मित्रों ! मैं पुनःआप सबकी सेवामें देवर्षि नारद कृत भक्ति-सूत्र का सत्रहवां सूत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ-आप सबके ह्यदय में स्थित मेरे प्रिय श्री कृष्ण जी के चरणों में इसके इस सूत्र-पुष्प को चढा रहा हूँ,यहाँ कहते हैं कि-
“कथादिष्विति गर्गः।।१७।।”
श्रीगर्गाचार्यजीके मतानुसार भगवद् कथा-मृत्-स्वादन में अनुराग का होना ही भक्ति है।
आदरणिय सखा वृँद ! वस्तुतः कथाऽमृत् का रसास्वादन अर्थात्-
“मुदमंगलमय संत-समाजू’जिमि जग जंगम तीरथराजू।
रामभक्ति जहँ सुरसरि धारा,प्रसरहिंब्रम्हविचाराप्रसारा॥”
अधिकाँशतः मुझे कई बार कई उच्चकोटि के विद्वान्,संत-जनों ने कहा भी अथवा पूछा भी कि !  स्त्रियों को वेदादि अध्ययन का अधिकार नहीं है ! वमे मानस,भागवत् आदि पढें तो मैंने सोचा कि ये तो बहूत ही उनके हित की बात है,क्यों कि श्रीमद्भागवद्•१•५•२२•में कहते भी हैं कि-
“इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा, स्विष्टस्य सूक्त्तस्य च बुद्धिदत्तयोः।
अविच्युतोऽर्थः कविभिर्निरूपितो, यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम्।।”
मेरे प्रियजी की लीलाओं,कथाओं और उनकी मनमोहिनी क्रीडाओं के स्मरण,और उनके गुणानुवाद से बढकर ! और भला हो भी क्या सकता है ?
“किं रत्नम् त्रिभुवनस्य वा।सः कीर्तनः”
ये वेदाध्ययन,तंत्र,मंत्र,यंत्र,वेदांत,यज्ञ-तपादि जितने भी साधन हैं वे सभी उत्तम हैं और फिर भी श्रीधर स्वामीजी को लिखना पड़ा कि-
“त्वत्कथामृत पाथोधौ।विहरन्ते महामुदः।
कुर्वन्ति कृतिनः केचिच्चतुर्वर्ग तृणोपमम्।।”
मित्रों ! एक बार स्वप्न में मेरे प्रभु आये और मुझे धक्का देकर बोले कि तू जो एक तो कहता है कि मैं आपसे प्यार करता हूँ और दूसरी ओर तू मेरे विरह में जिंदा भी है ! तो ये कैसे ?
तो मैं अनायास बोल पड़ा कि हे प्रियजी ! इस संसार में जो संत महात्मा लोग हैं ! जब मैं आपके विरह में मरने लगता हूँ तब वे आपकी कथाओं का-“अमृतपान” करा कर मुझे मरने नहीं देते, और आप मुझे जीने नहीं देते।
ये जो कथाऽमृत है, वो ऐसा है कि जैसे स्वर्गामृत तो देवताओं के पास होगा या नहीं ये तो मैं नहीं जानता किंतु-
“तप्तानां जीवनं तप्त जीवनं जीवन प्रवाहः कथाऽमृतं।”
ये स्वर्गादिकों के भोग  किसी मूल्यवान होटल की तरह हैं ! जब तक पैसे हैं आपके पास,पुण्य शेष हैं आपके ! तभी तक ये स्वर्गादिकों के भोग भी आपको मिलेंगे,पुण्यों के समाप्त होते ही ढकेल दिया जाऊँगा मैं पुनः बंधनों में।
चलो मैं मान लेता हूँ कि कथा सुनने से कोई लाभ नहीं होगा ! ये निबंधादि मैं लिखूँ आप पढें इससे कोई लाभ नहीं होगा किंतु-
“लेहिं न बासन बसन चुराई। यह हमार अति बड़ सेवकाई।।”
इतनी देर तक कम से कम पिक्चर तो नहीं देखूँगा, किसी की चुगली तो नहीं करूँगा,निंदा तो नहीं करूँगा ! विषयों की तरफ मन तो नहीं दौड़ेगा ! और शायद धीरे धीरे कभी न कभी उनकी प्रशंसा सुनते- सुनते इस दुःखके सागर में व्यथित चित्त को उनकी प्यारी चितवन का आनंद महा सागर भी मिल जायेगा।
“श्रवणं भक्तिः” सुनना ही भक्ति है-
“जिनके श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि जाना।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे । तिनके ह्रदय सदन तव रूरे।।”
आप एक बार मेरे प्रियजी की गोपियों, सूर, राधिका, , तुलसी, मीरा,रसखान से उनकी हो रही अठखेलियों की कथा सुनो तो पागल हो जायेगे आप-“लोभिहिं प्रिय जिमि दाम।”
प्रिय मित्रों ! गरूड़जी की माँ को सुमन्त ने दासी बना लिया,और कहा कि आपको माँ को मुक्त कराना हो तो मुझे स्वर्ग से अमृत लाकर दें ! बिचारे सभी देवताओं के पास गये किंतु कंजूस देवता भला किसी को अमृत दे देंगे ?
“वे बिचारे तो स्वयम् ही सूँघ-सूँघ कर जीवित है !”
थक हार कर वे मेरे प्रभुजी ! से बोले कि आप तो मेरे स्वामी हैं ! वाहन हूँ मैं आपका ! आप ही दे दो मुझे अमृत ! तो मेरे ह्रिदयेशजी ने कहा कि हे नारद-
“नाहम् वसामि वैकुंण्ठे योगीनाम् ह्रिदये न च।
मद्भक्ताः यत्र गायन्ते तत्र वसामि नारदः।।”
आप वृंदावन में जायें ! मेरी गोपियों के पास जायें ! उनकी चरण-धोवन से बढकर दूसरा कोई अमृत हो ही नहीं सकता ! यही है-
“कल्मषापहं श्रीमदं तप्तजीवनं श्रवणमड़्गलं आततं तप्तजीवनम् कथाऽमृतम्।।”
यही कथाऽमृत -स्वरूपा भक्ति है !
भक्तिसूत्र के अगले अंक के साथ पुनश्च उपस्थित होता हूँ  …-आनंद शास्त्री….सचल दूरभाष क्रमांक ६९०१३७५९७१

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