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हिंदी-संस्कृत भाषा के व्यास : प्रो भोलाशंकर– डॉ. राजकुमार उपाध्याय ‘मणि’

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       प्रो भोलाशंकर व्यास जी बहुज्ञ और बहुभाषाविद् थे। उन्होंने संस्कृत और हिंदी को अपने घर से ही गंभीर अध्ययन का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उन्होंने विदेशी भाषाओँ – अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन का ज्ञान अर्जित किया था और प्राचीन भारतीय भाषाओँ- पालि, प्राकृत, अपभ्रंश के साथ-साथ बंगला, उर्दू, गुजराती भाषाओँ में भी दक्षता अर्जित कर ली थी। प्रो व्यास जी देश-विदेश में अपने समय के स्वनामधन्य भाषाविद् के रूप में विख्यात थे। प्रो भोलाशंकर व्यासजी का जन्म 16 अक्टूबर, 1923 ई. को बूँदी (राजस्थान) में राजगुरु परिवार में हुआ था।
       बालक व्यास जी का अध्ययन में खूब मन लगता था। इसलिए संस्कृत साहित्य तथा व्याकरण का अध्ययन उनके बूँदी (राजस्थान) के घर में प्रारम्भ कर दिया गया था। अपने श्रद्धेय पितामह पं. गोवर्धन जी व्यास, ज्येष्ठ पितृव्य पंडित कन्हैया लालजी व्यास तथा पंडित शिवदत्त व्यास से घर में ही विद्यमान संस्कृत विद्यालय में भारतीय शिक्षा पद्धति से विद्या अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। कालांतर में, पश्चात्य पद्धति के शिक्षा महाविद्यालय/विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा प्राप्त कर ली। उन्होंने एम.ए (संस्कृत) की उपाधि आगरा विश्वविद्यालय, आगरा (सम्प्रति, डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा) से 1947 ई. में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की थी। व्यास जी ने अगले वर्ष (1948) में गवर्नमेंट संस्कृत कालेज, काशी (सम्प्रति, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी) से साहित्य-शास्त्री की उपाधि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । उन्होंने इसी वर्ष (1948) आगरा विश्वविद्यालय, आगरा से ही एल-एल. बी. प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण की। इतना ही नहीं, प्रो व्यास जी ने 1950 में राजपूताना विश्वविद्यालय, जयपुर से एम.ए. (हिन्दी) प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान के साथ स्वर्णपदक भी प्राप्त किया था। कालांतर में, 1952 ई. में भारतीय काव्यशास्त्र से संबद्ध ‘ध्वनि सम्प्रदाय और उसके सिद्धान्त’ विषय पर पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त हुई, जिस शोध प्रबंध को काशी-नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित की गई थी। आगले एक दशक बाद 1962 ई. में इसी राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से पहली बार वे हिन्दी में डी. लिट्. की उपाधि से विभूषित किये गए जो इससे पूर्व यह उपाधि किसी को नहीं मिली थी। अर्थात वे राजस्थान विश्वविद्यालय के प्रथम डी. लिट्. उपाधि प्राप्तकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनके डी. लिट्. कार्य की महनीयता का यह द्योतक है कि ‘पुरानी हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक अनुशीलन’ तथा ‘हिन्दी छन्द : परम्परा के उद्भव और विकास’ पर शोधपूर्ण ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित ‘प्राकृतपैंगलम्’ का संपादन तथा समीक्षात्मक अध्ययन विषय पर डी. लिट्. उपाधि प्राप्त हुई थी। उनका दूसरा महनीय कार्य यह था कि प्रो व्यास जी ‘स्कूल ऑफ ओरिएन्टल स्टडीज, लन्दन में पढने गए थे। वे लन्दन विश्वविद्यालय के स्कूल आव ऑक्टिल स्टडीज में आधुनिक भाषाशास्त्रीय पद्धति से ध्वनिविज्ञान (Phonetics), सामान्य भाषा विज्ञान (General Linguistics) तथा भारोपीय एवं भारतीय आर्य भाषा विज्ञान (Indo-European and Indo-Aryan Linguistics) का विशेष अध्ययन तथा गवेषणा के आधार पर ‘संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन’ (1951-52) ग्रन्थ की रचना की थी।
      प्रो भोलाशंकर व्यास ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में अध्यापन कार्य करते हुए यहाँ के हिन्दी विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष के पद को सुशोभित किया था। प्रो. व्यास जी 1953 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए थे। तत्पश्चात् वहीं क्रमशः 1961 ई. में उपाचार्य (रीडर) तथा 1972 ई. आचार्य (प्रोफेसर) के रूप में पदोन्नत हुए। कालान्तर में, नवम्बर-1983 में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त हुए। तदन्तर तीन वर्ष (1986) तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ही संस्कृत विभाग में एमेरिटस-प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए। जहाँ पर उन्होंने आचार्य भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर शोध कार्य किया। इसी के मध्य में 1985 में राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के द्वारा हिन्दी के विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी आमंत्रित किये गये थे। प्रो भोलाशंकर व्यास जी की ख्याति पूरे देश में इतनी अधिक थी कि वे अनेक विश्वविद्यालयों के हिन्दी तथा भाषा विज्ञान विभागों द्वारा सेमिनार में भाग लेने या व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित होते रहते थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए उन्होंने कुल 30 शोधार्थियों को पीएच.डी. का शोध-निर्देशन प्रदान किया था। अन्यान्य विश्वविद्यालयों में शताधिक शोध प्रबन्धों के वे परीक्षक भी रहे हैं। उन्हें 1977 में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा तीन विशिष्ट व्याख्यान देने के लिए भी आमंत्रित किया गया था।
       वे नागरी प्रचारिणी सभा-काशी (वाराणसी), हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश, हिन्दी संस्थान, लखनऊ तथा साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के कार्यकारिणी सदस्य रह चुके थे। वे केन्द्रीय शिक्षा तथा संस्कृति मंत्रालय की अहिन्दी भाषा-भाषी प्रान्तों को दिये जाने वाले अनुदान की संस्तुति करने वाली समिति में नामित सदस्य रह चुके हैं, जो उन प्रान्तों में हिन्दी का कार्य करने वाली संस्थाओं को दिया जाता है। इतना ही नहीं, वे अनेक विश्वविद्यालयों की संकाय समितियों, हिन्दी पाठ्यक्रम समितियों, शोध-उपाधि-समितियों, परीक्षण तथा साक्षात्कार-समितियों के सदस्य रहे। वे कई बार लोक सेवा आयोगों में भी परीक्षण तथा साक्षात्कार से सम्बद्ध कार्य करते रहे।
         नागरी प्रचारिणी सभा-काशी द्वारा ‘हिन्दी शब्द सागर’ (बृहत् संस्करण) के नवीन संस्करण के सम्पादक-मण्डल के सक्रिय सदस्य होने के कारण आपको 1964 में भारत सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री द्वारा ताम्रपत्र प्रदान करके उन्हें सम्मानित किया गया था। वैदिक संस्कृति प्रचारक संघ, जयपुर की ओर से 1966 में उन्हें ‘विशिष्ट विद्वान्’ के रूप में शाल एवं पुरस्कार राशि से पुरस्कृत किया गया था। 1973 में भारतेन्दु समिति, कोटा द्वारा भारतेन्दु के शत-वार्षिकी समारोह में भाषाशास्त्र, काव्यशास्त्र तथा साहित्य की विशिष्ट सेवाओं के लिए भारत सरकार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री डॉ० प्रतापचन्द्र द्वारा ताम्रपत्र-युक्त नागरिक सम्मान दिया गया था। उन्हें 1977 में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा ‘विशिष्ट साहित्यकार के रूप में सम्मानित गया था। महाराणा फाउन्डेशन, उदयपुर द्वारा 1985 में संस्कृति तथा साहित्य की सेवाओं के उपलक्ष्य में महाराणा कुम्भा पुरस्कार तथा रजतफलक द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया था। प्रो. व्यास जी को राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर द्वारा 1994 में अकादमी के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि तथा मुख्य वक्ता के रूप में कई बार आमंत्रित और सम्मानित किया गया था। राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर द्वारा संस्कृत की विशिष्ट सेवाओं के लिए ‘संस्कृत-विद्वान्’ के रूप में 1995 में पुरस्कार राशि, शाल तथा ताम्रपत्र द्वारा सम्मानित किया गया था। उन्हें 1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के साहित्यिकों तथा हिन्दी पत्रकारों की संस्था ‘रसकृतिपूर्वाभा (वाराणसी) द्वारा साहित्य-मार्तण्ड उपाधि से अलंकृत किया गया था। वर्ष 1997 में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ के द्वारा आपको 51000/- की पुरस्कार राशि, ताम्रपत्र द्वारा ‘संस्कृत-पंडित’ के रूप में भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। इसी वर्ष 1997 में संस्कृत सेवा परिषद्, जयपुर द्वारा ‘विशिष्ट विद्वान’ के रूप में 11001/- कविशिरोमणि पं० नवल किशोर कांकर सम्मान से विभूषित किया गया था। उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा सत्र 1998-99 में ‘साहित्य-मनीषी’ सर्वोच्च अलंकरण से सम्मानित किया गया।प्रो व्यास जी को उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल के करकमलों से सन् 1998 ई. में ‘देवनागरी शासकीय प्रयोग शताब्दी समारोह समिति, उत्तर प्रदेश (लखनऊ) द्वारा ‘महामना पं. मदनमोहन मालवीय सम्मान’ से विभूषित किया गया था। उन्हें सन् 1999 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के द्वारा ‘साहित्य-भूषण’ अलंकारण से सम्मानित भी किया जा चुका है।
       निःसंदेह, आचार्य पं० भोलाशंकर जी हिंदी और संस्कृत भाषा के व्यास थे, जिन्होंने दोनों भाषाओँ की अद्वितीय सेवा की है, जिनका साहित्यिक अवदान प्रशंसनीय है। उनके द्वारा लिखे गए हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में अग्रलिखित प्रमुख रचनाएँ हैं- ‘हिन्दी-दशरूपक’ (सम्पादन, व्याख्या एवं विस्तृत भूमिका), (प्रकाशन-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1955); ‘संस्कृत कवि-दर्शन’ (कवि-समीक्षा) (प्रकाशन-चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी,1955); ‘ध्वनि सम्प्रदाय और उसके सिद्धान्त’ (प्रकाशन-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, 1956); ‘हिन्दी–कुवलयानन्द’ (सम्पादन-व्याख्या तथा विस्तृत भूमिका) (प्रकाशन-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी,1957); ‘संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन’ (प्रकाशन-विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी,1957); ‘संस्कृत भाषा’ (मूलग्रंथ- टी. बरो की प्रसिद्ध अंग्रेजी पुस्तक “संस्कृत लॅग्वेज’ का हिन्दी रूपान्तरण) (प्रकाशन-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1961), ‘भारतीय साहित्य शास्त्र तथा काव्यालंकार’ (1965), यह ग्रन्थ 1957 में प्रथम संस्करण के रूप में भारतीय ज्ञानपीठ संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित हो चुका था। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक का गुजराती भाषा में भी अनुवाद हो चुका है। प्राकृत-पैंगलम् (भाग-एक) (संपादन-टिप्पणी तथा व्याख्या, भाषाशास्त्रीय विवेचन,1959), ‘प्राकृत-पैंगलम्’ (भाग-दो)-(पुरानी हिन्दी की भाषा का तुलनात्मक एवं भाषाशास्त्री विकास तथा हिन्दी छन्द परम्परा के उद्भव और विकास पर शोधपूर्ण अनुशीलन कार्य-1961), ‘आत्म-सिद्धि’ (श्रीमद्राजचन्द्र द्वारा जैन,धर्म व दर्शन पर गुजराती पद्य ग्रन्थ ‘आत्मसिद्धि’ का हिन्दी अनुवाद), ‘भारतीय साहित्य की रूपरेखा’ (भारत की समस्त भाषाओं के साहित्य का संक्षिप्त परिचय), राजस्थानी साहित्य अकादमी, जयपुर के द्वारा प्रकाशित तीन विशिष्ट व्याख्यानों का संकलित ग्रन्थ-‘साहित्य का इतिहास-लेखन : समस्या और समाधान’, ‘शत्रुशल्यचरितम्’ (भाग-1) (सम्पादन, संस्कृत-टीका अंग्रेजी अनुवाद, भूमिका (मूललेखक-पार्श्वनाथ, प्रकाशन-राजस्थान प्राच्य विद्या शोध संस्थान, जोधपुर, 1996) ‘शत्रुशल्यचरितम्’ (भाग-2) (पं.गंगासहाय जी की अपूर्ण प्राप्त प्राचीन टीका सहित सम्पादन कार्य), ‘हिन्दी व्याकरण’ (एन.सी.ई.आर.टी. नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित), ‘हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास’ (खण्ड-1) (प्रधान सम्पादक-आचार्य राजबली पांडेय-साहित्यिक पीठिका वाले भाग का लेखन कार्य) (इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा पुरानी हिन्दी की परम्परा पर चार विस्तृत लेखों का संकलन, प्रकाशन-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी), पाठ्यक्रम की दृष्टि से तीन ग्रंथों का संकलन और सपादन कार्य भी किया गया है, जैसे- ‘निबन्ध-निचय’ (निबन्ध संकलन), ‘एकांकी-निचय’ (एकांकी संकलन), ‘रसनिधि’ (काव्य-संकलन), संस्कृत के प्रकांड विद्वान पंडितराज जगन्नाथ के जीवन-दर्शन पर आधारित ‘समुद्र-संगम’ सांस्कृतिक-औपन्यासिक कृति 2003 में भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है।
       आचार्य भोलाशंकर व्यास जी ने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का सम्पादन कार्य भी किया है, जिनमें ‘हिन्दी शब्द सागर’ (बृहत् संस्करण, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी) अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहीं से ‘हिन्दी विश्व साहित्य कोश’ (खण्ड-एक) का प्रकाशन हुआ था, इसके संपादक के रूप में उन्होंने विशिष्ट भूमिका का निर्वहन किया है। प्रो. व्यास जी ने उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ से प्रकाशित हुई ‘संस्कृत वाङ्मय का बृहत् इतिहास’ (तृतीय-खण्ड) नामक पुस्तक के आर्ष-महाकाव्य (रामायण तथा महाभारत) का लेखन और संपादन कार्य किया है।
      प्रो. व्यास जी किसी राजनेता और स्वार्थ सिद्धि के पीछे कभी नहीं गए। यही कारण है कि उनकी ज्ञान-प्रतिभा का सही रूप से प्रकाशन नहीं हो पाया। उनकी लगभग दशाधिक कृतियाँ अभी तक अप्रकाशित रह गई हैं, जिनमें उल्लेखनीय रूप से ‘हिंदी भाषा और साहित्य की परंपरा’, ‘विश्व के भाषा परिवार और हिन्दी’, ‘भारतीय संस्कृति की परंपरा’, ‘षड़ऋतु विलास’ (काव्य), ‘शक्ति-जयम्’ (संस्कृत-महाकाव्य),  ‘गिरता बुर्ज – धुँआती बाती’ (हिंदी-उपन्यास) जैसी उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। अंग्रेज़ी भाषा में आलोचनात्मक अध्ययन के रूप में ‘ए क्रिटीक ऑफ तीसरा सप्तक, नेचर ऑफ रोमांटिक हिन्दी-पोएट्री, राजशेखरर्स कर्पूरमंजरी ए लिंग्विस्टिक एनेलिसिस, राजशेखरर्स पोएटिक टेकनीक, आदि ऐसे अन्य ग्रंथों के प्रकाशन अभी तक नहीं किया जा सका है।
       प्रो. (आचार्य) भोलाशंकर व्यास जी की जन्म तिथियों में यत्र-तत्र संशय होता है क्योंकि कुछ पुस्तकों में उनकी जन्म तिथि 19 अक्टूबर, 1923 प्राप्त होती है तो उनके घर वाले 16 अक्टूबर, 1923 बताते हैं, किन्तु मुझे जहाँ तक ज्ञात है कि आचार्य जी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में मुझे बटुक के रूप में अपने जन्म दिन के अवसर पर विगत तीन जन्म-तिथियों में बुलाकर भोजन-दक्षिणा और पुस्तक-दान किया करते थे। उस समय मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का शोध-छात्र हुआ करता था। वे अपनी तिथि फाल्गुन शुक्ल पक्ष द्वादशी बताया करते थे। इसे सत्य मानकर आउट-लुक पत्रिका ने 20 फ़रवरी, 2025 को उनका शताब्दी वर्ष बताया है, जिनके स्वर्गवास की तिथि 23 अक्टूबर, 2005 बिल्कुल सही है।
भवन्निष्ठ
डॉ. राजकुमार उपाध्याय ‘मणि’
सह-आचार्य
हिंदी विभाग
पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा
सचलभाष- 9479372732
अणुडाक : rkumanicup@cup.edu.in

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