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एक समय दुनिया में अंग्रेजों की तूती बोलती थी। ऐसे में इंग्लैंड में बसे भारतीय बहुत दबकर रहते थे। राजधानी लंदन में तो माहौल बहुत ही खराब था। वहां के हिन्दू केवल नाम के हिन्दू रह गये थे। वे अपने धार्मिक पर्व मनाने की बजाय चर्च जाते थे और क्रिसमस के कार्ड एक-दूसरे को देते थे। ऐसे माहौल में 1906 में विनायक दामोदर सावरकर बैरिस्टर की पढ़ाई करने के लिए लंदन पहुंचे। वे वहां स्वाधीनता सेनानी पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के ‘इंडिया हाउस’ में रहते थे। उनके प्रयास से लोग स्वयं को हिन्दू कहने में लज्जा की बजाय गर्व का अनुभव करने लगे। इसके साथ ही वहां हिन्दू पर्व भी मनाये जाने लगे।
24 अक्तूबर, 1909 को लंदन के ‘क्वींस हाॅल’ में विजयादशमी पर्व मनाया गया। इसके लिए ‘श्रीरामो विजयते’ नामक एक सुनहरा निमंत्रण पत्र बांटा गया। समारोह में भोज का भी आयोजन था, जिसका शुल्क तीन रुपये रखा गया था। समारोह में सौ से भी अधिक भारतीय पुरुष और महिलाएं शामिल हुईं। इनमें लंदन के बड़े-बड़े व्यापारी, प्रोफेसर, डाॅक्टर और विद्यार्थी भी थे। समारोह की अध्यक्षता बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने की। केवल भारतीयों के लिए होने के कारण इसमें बाहर के लोग शामिल नहीं किये गये थे।
समारोह के लिए ‘क्वींस हाॅल’ को बहुत अच्छा सजाया गया था। भव्य राष्ट्रीय निशान और उस पर मोटे अक्षरों में ‘वन्दे मातरम्’ लिखा था। सबसे पहले राष्ट्रीय गीत और फिर गांधीजी का भाषण हुआ। उन्होंने कहा कि आज यहां थाली लगाना, पानी देना, रसोई बनाना जैसे कार्य डाॅक्टर, प्रोफेसर आदि ने स्वयंसेवक बनकर किये। यह लोकसेवा का अच्छा उदाहरण है। लंदन में ऐसा समारोह होगा, इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। यह हिन्दू समारोह है; पर इसमें मुसलमान और पारसी भी आये हैं। यह अच्छी बात है। श्रीराम के सद्गुण यदि अपने राष्ट्र में फिर उत्पन्न हो जाएं, तो देश की उन्नति होने में देर नहीं लगेगी।
इसके बाद हिन्दुस्थान के नाम का जयघोष किया गया। दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी के साथ आये अली अजीज ने कहा कि हिन्दुस्थान हिन्दू और मुसलमान दोनों की भूमि है। उसकी उन्नति हो तथा वह शक्तिशाली बने। इसके बाद वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय बोले। अब गांधीजी ने सावरकर को बोलने का आग्रह करते हुए कहा कि उनके और मेरे विचारों में कुछ भिन्नता है। फिर भी उनके साथ बैठने का मुझे अभिमान है। उनके स्वार्थ त्याग और और देशभक्ति के मधुर फल अपने देश को चिरकाल तक मिलें, यह मेरी इच्छा है।
सावरकर के खड़े होते ही श्रोताओं ने पांच मिनट तक ताली बजाकर उनका सम्मान किया। सावरकर ने इसके लिए धन्यवाद देते हुए श्रीराम को पुष्पांजलि अर्पित की। अपने पौने घंटे के भाषण में उन्होंने राजनीतिक विषयों को स्पर्श नहीं किया। वह भाषण पूरी तरह श्रीराम के जीवन पर ही केन्द्रित रहा। उन्होंने कहा कि जब श्रीराम अपने पिता के आदेश पर वन गये, तो वह कार्य ‘महत्’ था। जब उन्होंने अत्याचारी रावण को मारा, तो वह कार्य ‘महत्तर’ था; पर जब उन्होंने ‘‘आराधनाय लोकस्य मंुचतो नास्ति मे व्यथा’’ कहकर भगवती सीता को उपवन में भेज दिया, तो वह कार्य ‘महत्तम’ था। श्रीराम ने व्यक्ति और पारिवारिक कर्तव्यों को अपने लोकनायक रूपी राजा के कर्तव्यों पर बलिदान कर दिया। इसलिए उनकी मूर्ति हर हिन्दू को अपने मन में धारण करनी चाहिए। इससे ही भारत की उन्नति होगी।
उन्होंने कहा कि हिन्दू समाज हिन्दुस्थान का हृदय है। फिर भी जैसे इन्द्रधनुष के कई रंगों से उसकी शोभा बढ़ती है, वैसे ही मुसलमान, पारसी, यहूदी आदि विश्व के उत्तमांश मिलाकर हिन्दुस्थान भी काल के आकाश में अधिक ही खिलेगा। सभा के अध्यक्ष गांधीजी ने कहा कि विनायक दामोदर सावरकर के भाषण पर सब लोग ध्यान दें और इनके निवेदन को आत्मसात करें। राष्ट्रगीत के गायन से यह विजयादशमी समारोह सम्पन्न हुआ।