जब भी रक्षाबंधन की चहल-पहल प्रारंभ होती है मुझे पंजाबी भाषा की एक लघुकथा का स्मरण हो आता है जो कई साल पहले पढ़ी थी। लेखक का नाम फिलहाल भूल गया हूँ लेकिन ये लघुकथा कभी नहीं भूल पाती है। कहानी एक चोर की है। वो चोर पड़ोस के एक गाँव में चोरी करने के लिए जाता है। जैसे ही वो एक घर में चोरी करने के लिए घुसता है घर में जाग हो जाती है। घर की महिला चोर का हाथ पकड़ लेती है और झट से बिजली का स्विच ऑन कर देती है। बिजली की रौशनी में महिला चोर को देखती है और हैरान होकर कहती है, ‘‘अरे जगीरे! चोरी करने के लिए तुझे बहन का घर ही मिला। और कोई घर नहीं मिला तुझे इस गाँव में चोरी करने के लिए?’’ जगीरा ने कहा, ‘‘मुझे ख़बर मिली थी कि इस घर के सारे मरद आज बाहर गए हैं और घर में औरत बच्चों के साथ अकेली है। मुझे ये नहीं पता था कि मेरे अपने गाँव की लड़की ही इस घर में रहती है नहीं तो मैं क्यों आता तेरे घर चोरी करने?’’ ‘‘बहन मुझे माफ कर दे, ’’ ये कहकर जगीरा जब बाहर जाने लगा तो महिला ने उसे रोककर कहा, ‘‘अरे जाता कहाँ है? बैठ चाय बनाती हूँ तेरे लिए। चाय पीकर जाना।’’ जगीरा चुपचाप वहीं एक खाट पर बैठ जाता है। चाय पीकर जगीरा ने अपनी जेब में हाथ डाला। हाथ जेब से बाहर आया तो उसके हाथ में मुड़ा-तुड़ा मैला-सा पाँच रुपए का एक नोट दिखलाई पड़ रहा था। उसने वो नोट बहन के हाथ पर रखा और चुपचाप घर से बाहर निकलकर गलियों के अँधेरे में खो गया।
इस लघुकथा में एक चोर भी सामाजिक मर्यादा को समझता है उसका पालन करता है। महानगरों में पैदा हुई, पली-बढ़ी नई पीढ़ी इस लघुकथा के मर्म को शायद ही समझ पाए। कहीं हम छोटे-मोटे चोर न होकर बड़े डकैत अथवा उत्पीड़क तो नहीं बन चुके हैं?
बहन-बेटी की मान-मर्यादा रखना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। अपनी या परिवार की ही नहीं पूरे गाँव की बहन-बेटियों को अपनी बहन-बेटियाँ माना जाता है। कहीं किसी अवसर पर अथवा कहीं अचानक जब उनसे भेंट होती है तो बिना ग़रीब-अमीर या छोटे- बड़े का विचार किए मान-सम्मान अथवा शगन के रूप में कुछ द्रव्य उनकी हथेली पर अवश्य रखा जाता है। जो लोग ऐसा नहीं करते उन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता।
जब गाँव की किसी भी लड़की को अपनी बहन या बेटी मानने की संस्कृति है तो अपनी सहोदरा की उपेक्षा कैसे संभव है? बहन-भाई का रिश्ता तो बहुत ही पवित्र माना गया है। दो भाइयों में आपस में प्रतिद्वंद्विता हो सकती है लेकिन भाई और बहन कभी आपस में प्रतिद्वंद्वी नहीं होते। उनका संबंध तो सहज-स्वाभाविक स्नेह का संबंध होता है। भाई और बहन का संबंध बनाया नहीं जाता अतः इसमें उपेक्षा अथवा अलगाव के लिए कोई स्थान ही नहीं। उपेक्षा, अलगाव अथवा यह संबंध टूटने पर भाई और बहन दोनों में बहुत कुछ समाप्त हो जाता है। उनके मध्य उपस्थित स्नेह-स्रोत सूख जाता है। दोनों ही स्नेह से रिक्त हो जाते हैं। यह दोनों के लिए ही घातक है। जो बहन-भाई के सहज-स्वाभाविक स्नेह-संबंधों को जीवित नहीं रख सकते वे भला अन्य सामाजिक संबंधों को कैसे सँभाल पाएँगे? भाई और बहन के मध्य बहुत कुछ समाप्त हो जाने से बचाने के लिए, उनमें स्नेह की स्वाभाविक प्रक्रिया प्रवाहित रखने के लिए ही रक्षाबंधन का यह कोमल किंतु दृढ़ सूत्र आविष्कृत हुआ। साल में एक बार ही सही यह रक्षा-सूत्र दोनों के मन में प्रसुप्त स्नेह प्रकोष्ट को उर्वर बना देता है। मन में सौ अलगाव सही इस रक्षा-सूत्र की उपेक्षा मत कीजिए। जब भी यह रक्षा-सूत्र बँधेगा बहन और भाई दोनों के मन को मोम बना देगा। ज्यों ही बहन हाथ में रक्षा-सूत्र लेकर भाई की कलाई की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाएगी उसके हृदय में स्नेह-स्रोत प्रवाहित हो उठेगा जिससे भाई के लिए मंगलकामनाओं की वर्षा होगी। और जैसे ही भाई के हाथ पर राखी बँधेगी उसके मन में भी स्नेह-स्रोत प्रवाहित न हो और इसके फलस्वरूप बहन के लिए आशीर्वाद और उसके परिवार के लिए सुख-समृद्धि की कामना न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। ऐसे में अलगाव अथवा उपेक्षा का अस्तित्व ही कहाँ रह पाएगा? आज लिंगानुपात की समस्या को देखते हुए भाई-बहन का रिश्ता दुर्लभ होता जा रहा है अतः और अधिक महत्त्वपूर्ण व प्रासंगिक हो जाता है। एक छोटी लड़की अपने बराबर भार के भाई को अपनी गोद में लिए ऐसे घूमती रहती है जैसे फूलों का गुलदस्ता लिए घूम रही हो। एक भाई भी अपनी बहन के विरुद्ध कुछ नहीं सुन सकता। वह उसके लिए अपना सर्वस्व त्याग करने के लिए तत्पर रहता है। बहन अथवा भाई किसी की भी उपेक्षा करने का अर्थ है अपने प्रेम के स्रोत को सुखाना। जो बहन अथवा भाई में से किसी की भी उपेक्षा कर सकता है वह अन्य किसी से भी प्रेम नहीं कर सकता। जो अपने भाई अथवा बहन के स्नेह की उपेक्षा करके अन्य किसी भी बंधन के निर्वहन में प्रेम की बात करता है वो सच नहीं बोलता। जो स्वाभाविक प्रेम नहीं कर सकता वो कृत्रिम प्रेम का ठीक से निर्वहन कैसे कर सकता है? वास्तव में भाई-बहन के प्रेम के रूप में हम सबमें प्रेम का महासागर लहराता रहता है। उसी प्रेम के महासागर से दूसरे संबंध भी पोषित होते हैं। आज बाज़ारवाद ने इस पुनीत संबंध को भी कम प्रभावित नहीं किया है। रक्षाबंधन पर उपहारों अथवा द्रव्य का लेन-देन भी होता ही है लेकिन उपहारों अथवा द्रव्य के अभाव में भाई-बहन के संबंधों का निर्वहन नहीं किया जा सकता यह कहना तो दूर सोचना भी उचित नहीं। यदि किसी भी कारण से संबंधों में दरार आ गई है तो उसे पाटने का प्रयास कीजिए। इसमें किसी की हार या जीत नहीं होती हार होती है तो क्षुद्रता व घृणा की और जीत होती है तो केवल स्नेह अथवा प्रेम की। आज जहाँ परिवार बहुत छोटे होते जा रहे हैं और दंपति एक ही बच्चा चाहते हैं ऐसे में भाई होगा तो बहन नहीं होगी और बहन होगी तो भाई नहीं होगा। ऐसी परिस्थितियों में जिनके भाई अथवा बहनें हैं उन्हें हर हाल में दुर्लभ होते भाई-बहन के रिश्तों की गरिमा को समझकर रिश्तों को बेहतर बनाए रखने का प्रयास करना ही चाहिए।
सीताराम गुप्ता,
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