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समालोचना शिलचर आधारित एक लघुकथा

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संजीव की माँ आज बहुत गुस्से में थी। सुबह से ही वह बड़बड़ाए जा रही थी। इधर गुस्से में बड़बड़ाना और सरौते से सुपारी काट-काट कर उन्होंने पान की थाली भर दी थी। वह उनकी बहु सुगंधा रसोई में कातला मछली का कालिया तैयार कर रही थी। आज दिन ही खास था। आज उसकी दीदी और जमाई बाबू आने वाले थे। वही मालती जी संजीव की माँ को इस बात का गुस्सा था कि सुगंधा के रिश्तेदार उससे मिलने घर क्यों आ रहे हैं। सुगंधा का माइके जाना या उसके रिश्तेदारों का घर आना दोनों ही मालती जी को पसंद नहीं था। मगर संजीव उसके बिलुकल विपरीत था। संजीव को सुगंधा के रिश्तेदार बहुत आदर-सत्कार करते थे। आखिर वह उनका बड़ा जमाई था। सिलेटिओं में जमाई आदर बहुत प्रसिद्ध है। सुगंधा अपनी सासु माँ का बड़बड़ाना सुनती जा रही थी। उसे याद आने लगा था कि संजीव जब-जब सुगंधा के माएके गया है तो सुगंधा के पिता ने अपनी क्षमतानुसार उसके लिए बहुत कुछ किया है। खासकर सुगंधा की माँ संजीव के लिए पूरी सब्जी बनाकर उसे खिलाती जो संजीव को बहुत पसंद था। तरह-तरह की मछलियों की तरकारी, सब्जियों के अलग-अलग व्यंजन और मिठाई संजीव के लिए जब-जब होता बनाकर खिलाती। घर के पेड़ों पर लगे आम, कटहल तथा अमरूद भी खिलाए जाते। सुगंधा संजीव के लेकर बदरपुर के श्रीगौरी ग्राम जाया करती थी। आखिर उसका ननिहाल था वहाँ। उसके सारे मामा वही रहा करते थे। प्यारा सा मिट्टी का लिपा-पुता घर, बड़ा सा आँगन, आँगन के उत्तर-पूर्व छोर पर भगवान का घर अलग से बना हुआ। अंदर नारायण की शालीग्राम शिला विराजमान थी। सुन्दर चांदी का छत्र और प्यारा सा काठ का सिंहासन जिसमें रांगा मामी द्वारा बनाया हुआ गद्दा और चादर था, जिसमें जरी और रंगीन धागों के कारीगरी थी। पूरा घर ही ग्रामीण भारत की आभा लिए हुए था। चारों तरफ आम, कटहल, बाँस, अमरूद के बड़े-बड़े पेड़, अन्य जंगली पेड़ों से हरा-भरा इलाका। बीच-बीच में बने लोगों के मिट्टी या पक्के मकान और मकान के सामने या पीछे छोटा सा पुकुर। पुकुर में बर्तन या कपड़े धोती महिलाएं, पुकुर में स्नान करते बच्चे।
सुगंधा जैसे नींद से जागी। वह अपना काम निपटा चुकी थी। उसने सारा खाना तैयार कर लिया था। संजीव भी आज छुट्टी लेकर घर पर ही था। वह लिंक रोड से सटे नेशनल हाईवे पर गया था। वहाँ से मिठाई लाने गया था। संजीव को सुगंधा के जीजा से बड़ा लगाव था। वे बड़े हंसमुख तथा रसिक व्यक्ति हैं। जब भी उनके साथ बैठों तो वे हंसा-हंसा कर माहौल को आनन्दमय बना देते थे। वही संजीव को न जाने क्यों जीजा बहुत प्यार भी करते थे, जिसे संजीव समझता था। जीजाजी का अपना छोटा भाई नहीं था कोई शायद इसीलिए।
ठीक दोपहर 12.30 बजे घर की घंटी बज उठी। दरवाजा मालती जी ने ही खोला। वह मन-ही-मन सोच रही थी कि अगर सुगंधा की दीदी आती है तो किसी बहाने उन्हें भगा देगी। लेकिन जैसे ही दरवाजा खोला तो सामने जीजा थे।
“अरे माईमा आप कैसी हो? बड़ी दुबली और सुखी हुई लग रही हो। लगता है कि हमारी शम्पा(सुगंधा का घर का नाम) आपका खयाल नहीं रखती।” बहु के नाम की आलोचना सुनते ही जैसे मालती जी में कुछ बदल गया। वह अमलेन्दु अर्थात् सुगंधा के जीजा के साथ सुगंधा की बुराई करने में लग गयी। अमलेन्दु भी यह राज़ अच्छी तरह से समझ गया था कि मालती जी जब तक सुगंधा की बुराई किसी के पास निर्विरोध न कर ले तब तक चैन से नहीं रहेगी।। बल्कि ये बात सबको ही पता थी मालती जी के रिश्तेदारों को भी। लेकिन सभी जानते थे कि सुगंधा जितनी सहनशील और गुणी बहु है उतनी और कही नहीं मिलेगी। मालती जी के समालोचना करने की आदत के कारण उनके सभी रिश्तेदार उनसे धीरे-धीरे किनारा कर गए थे। नौबत तो यहाँ तक आ चुकी थी कि मालती जी के पति भी उनकी इस बुरी आदत के कारण उनसे लड़ पड़े थे और घर छोड़कर कई दिनों के लिए गुवाहाटी अपने एक दोस्त के घर रहने चले गए थे। मगर जब अचानक उनकी तबियत बिगड़ी तो उन्हें शिलचर वापस आना पड़ा। फिर कुछ ही दिनों में वे अचानक हृदयाघात से चल बसे। वो दिन था और मालती जी अपने पति की मृत्यु से दुखी तो हुई लेकिन उनके स्वभाव में कोई फ़र्क नहीं पड़ा। कालशौच की रस्म पूरी हो जाने के बाद कई बार मालती जी के भाई उनसे मिलने आए और उन्हें अपने साथ दक्षिणेश्वर काली बाड़ी की तथा हरिद्वार की यात्रा का प्रस्ताव भी रख गए। मगर मालती जी को लगा कि कही उनके जाने के बाद सुगंधा घर पर कब्जा न कर बैठे और उन्हें घर से न निकाल दे। हालांकि उन्हें भी यह बात मालूम थी कि सुगंधा ऐसा कभी नहीं करेगी। बड़े शहर वाली औरतों के कारनामे वह कई बार अखबारों में पढ़ा करती थी। सुगंधा के साथ उन्हें पूरे बारह वर्ष बीत चुके थे। कभी भी सुगंधा ने उन्हें कोई शिकायत का मौका नहीं दिया था। मगर उन्हें अपनी सास होने का अभिमान था शायद इसीलिए वह सुगंधा के साथ ऐसा करती थी या कोई और ही कारण था ये तो उनका भगवान ही जाने।
मालती जी अमलेन्दु के साथ बैठ कर सुगंधा की बात करने में लगी हुई थी वही सुगंधा की दीदी भी वहाँ पहुँची। वह और संजीव साथ ही अंदर घुसे और उसने मालती जी को प्रणाम किया। सुगंधा अपनी दीदी को देखते ही भागी-भागी आयी। संजीव ने उसे मिठाई का डब्बा पकड़ाया। सुगंधा उसे रसोई में रखकर वापस कमरे आकर दीदी और जीजा से बात करने में लग गयी। मेहमान से बात करते देख मालती जी को न जाने क्या सूझी, उन्होंने सुगंधा से चाय बना देने का आर्डर पास कर दिया। लेकिन शिलचर की भरी दोपहर की गर्मी में चाय पीना किसी को पसंद नहीं है। ज्यादातर लोग भोजन ही करना पसंद करते थे। चाय सुबह या शाम का ही व्यसन होता था। सुगंधा सास की बात से उठकर जाने लगी तो संजीव ने टोक दिया। मालती जी असंतुष्ट नज़रों से उसकी तरफ देखने लगी। संजीव ने भोजन कर लेने का प्रस्ताव रखा क्योंकि बातों-बातों में कब दो बजने को आए पता ही नहीं चला।
खाने के लिए सभी टेबल के पास आकर बैठे। सुगंधा नयी बोरोसिल की डिनर सेट की प्लेटे लगा रही थी कि मालती जी बिफर पड़ी कि वे उसमें नहीं खा सकती। विधवा औरतों को चीनी मिट्टी की थाली में खाना मना है, ऐसा कहकर वह प्रलाप करने लगी। संजीव अपनी माँ की इस आदत से बड़ा लज्जित महसूस कर रहा था। सुगंधा भी अपनी सास की इस आदत से इतनी लज्जित हुई लेकिन किसी प्रकार अपने-आप को संभालते हुए उसने मालती जी के लिए पीतल की भारी सी थाली निकाली और उनके लिए अलग से बैठने की व्यवस्था कर दी। अमलेन्दु ने स्थिति की गंभीरता को भांप लिया था। उसने सुगंधा और संजीव की मनःस्थिति समझ ली और वह कहने लगा—“आजकल गर्मी बहुत पढ़ने लगी है। लगता है कभी-कभी ये गर्मी सिर पर भी चढ़ जाती है। लेकिन इसे ठण्डा करने के लिए पीतल या कांस के बर्तन का पानी पीना ही श्रेयस्कर है।” मालती जी समझ गयी थी कि ये कटाक्ष उन्हीं पर है मगर जमाई के सामने कहे क्या। वह भी दूसरे घर का। वह एकाएक ही हंसने लगी। उनकी हंसी ने सुगंधा को चौका दिया। खैर माहौल किसी प्रकार शान्त हुआ। फिर सुगंधा ने एक-एक करके सभी सिलेठी व्यंजन परोसने शुरु कर दिए थे। मालती जी की थाली में उसने चने की दाल, करेला शक्तो, परवल का भरवा तथा उनकी मन पसन्द सब्जियों के छिलको का कौड़ू बनाया था। साथ ही छाना की तरकारी और खीर। मालती जी सुगंधा को शान्ति से सबको खाना खिलाते हुए देख रही थी। वे भी चुपचाप खाना खा रही थी लेकिन मन में हलचल मची हुई थी। उन्हें कही-न-कही लग रहा था कि उनकी इस समालोचना तथा गुस्से में बड़बड़ाने की आदत के बावजूद भी बेटा व बहू उन्हें अपने साथ खुशी-खुशी रखे हुए है। सबसे अधिक उन्हें सुगंधा के लिए महसूस हो रहा था कि उसने आज तक इतने लड़ाई-झगड़े के बावजूद भी उनका खयाल रखने में कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। सुबह के क्लेश के बावजूद भी उसने उनके लिए सारी पसंद की निरामिष सब्जी बनाकर रखी थी। वे सुगंधा से सीधे मुँह कुछ कह तो नहीं पा रही थी लेकिन कही कुछ उनमें आज बदल रहा था। इन्होंने एक गहरी सास ली, मन-ही-मन सोचा अब वह बेवहज कुछ नहीं कहेंगी, कहेंगी भी तो अपनी बेटी जैसा समझ कर प्यार से कहेंगी। इतना सोचते ही उनके मन में एक शांति सा महसूस हुआ और प्रसन्नता अनुभव करने लगी।

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