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पिछले डेढ़ साल से मैं मिर्थी, पिथौरागढ़, उत्तराखंड में हूं। उस दिन15 नवंबर 2024 का दिन था। श्री गुरु नानक देव जी की जयंती होने के कारण राजपत्रित अवकाश भी था और इसलिए हमने मिर्थी से जौलजीबी मेले में घूमने का प्लान बनाया। लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मिर्थी से जौलजीबी।
पिथौरागढ़ से इसकी दूरी 68 किलोमीटर के आसपास पड़ती है।सुबह नो बजे एक निजी वाहन से अस्कोट होते हुए तीस-पैतीस मिनट में ही हम जौलजीबी पहुंच गए। अवसर था- भारत नेपाल सीमा पर काली और गौरी नदी के संगम पर लगने वाले ‘अंतरराष्ट्रीय जौलजीबी मेले का।’ यह टनकपुर-तवाघाट नेशनल हाइवे पर स्थित है। वैसे जौलजीबी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है। जानकारी मिलती है कि स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे। यहां भगवान शिव का प्राचीन मंदिर भी है। असकोट के पाल राजाओं ने ही यहाँ जैलेश्वर महादेव तथा अन्नपूर्णा देवी के मन्दिरों की स्थापना की।चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था। इस मेले को राजकीय दर्जा प्राप्त है। पाठकों को बताता चलूं कि
तिब्बत से आने वाला रेशम जौलजीबी मेले से ही कोलकाता और बनारस तक पहुंचता था। कभी नेपाल में तैयार होने वाले घी के लिए भी यह मेला एक व्यापारिक मंडी की तरह है। नजदीकी धारचूला, तल्लाबगड़, गोरीछाल, मुनस्यारी, गर्खा क्षेत्र के लोग इस मेले से गहरे जुड़े हुए हैं, क्यों कि ये नज़दीकी क्षेत्र पड़ते हैं और स्थानीय लोगों की जरूरतें इसी से पूरी होती हैं। मेरे में स्थानीय उत्पाद खूब बिकते हैं।
जौलजीबी के बायीं ओर से काली तो दाईं ओर से गोरी नदी बहती है। अनुमान है कि इन दोनों नदियों के नजदीक लगभग दो- ढाई सौ परिवार रहते होंगे। बुजुर्ग बताते हैं कि कभी अंग्रेजों ने भी यहां मेले का संचालन किया था।वास्तव में,जौलजीबी भारत के उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ मण्डल के पिथौरागढ़ ज़िले में स्थित एक छोटी बस्ती और बाज़ार है।काली और गोरी नदियों के संगम तथा नेपाल की सीमा पर यह स्थित है। यहां एक हैंगिंग ब्रिज बना है जिससे दोनों (भारत-नेपाल) के बाजार जुड़े हैं। इस पुल की भार क्षमता 20-30 व्यक्तियों की है। हैंगिंग ब्रिज के नीचे से नदी बहती है और काली और गौरी नदियों का पानी अलग-अलग और बिल्कुल साफ़ दिखाई देता है। ऊंची पहाड़ियों और घाटियों के बीच प्राकृतिक छटाओं, वादियों और सौंदर्य से भरपूर यह स्थान है। आज जौलजीबी का मेला एक व्यापारिक मेले के रूप में विश्वविख्यात है और स्थानीय लोग कहते हैं कि इसकी शुरुआत 1871 में एक धार्मिक मेले के तौर पर हुई थी। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि
बींसवी सदी के शुरुआत में अस्कोट के पाल राजा गजेंद्र बहादुर पाल ने 1914 में जौलजीबी मेला प्रारंभ किया था। गजेंद्र पाल ने तल्ला-मल्ला अस्कोट के केंद्र बिंदु जौलजीबी में मेला आयोजित करने का निर्णय लिया था। आज भी आगरा, मथुरा, बरेली, दिल्ली, रामपुर मुरादाबाद, मेरठ, काशीपुर, रामनगर , अल्मोड़ा, हल्द्वानी और टनकपुर के व्यापारी कुछ संख्या में यहां मेला स्थल पर अपना सामान बेचने के लिए पहुंचते हैं। कहना चाहूंगा कि नेपाल, तिब्बत से भी व्यापारियों और मेलार्थियों के पहुंचने से मेला अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो गया। इतिहास के बारे में पता करने पर जानकारी मिली कि अस्कोट रियासत के राजा पुष्कर पाल ने लगभग 150 साल पहले ज्वालेश्वर महादेव के मंदिर की स्थापना की थी और तभी से यहां धार्मिक मेले की शुरुआत हुई। वर्ष 1974 के बाद यूपी सरकार में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन के मौके पर इस मेले की शुरुआत होने की परम्परा आज भी चली आ रही है और आज तो यह मेला अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मेले में तब्दील हो गया है। पहले यह क्षेत्र अति दुर्गम क्षेत्र था, आज सड़कों का निर्माण हो चुका है, लेकिन पहले के जमाने में लोगों को सामान खरीदने के लिए पैदल ही अल्मोड़ा या टनकपुर जाना पड़ता था, सामान पशुओं (खच्चरों आदि ) पर लादकर भी लाया जाता था। पहले यह लगभग एक माह तक लगता था, आजकल अवधि थोड़ी कम हो गई है। हालांकि, भारत और नेपाल दोनों क्षेत्रों में यह बारी बारी से आज भी लगता है। बीते चार वर्षों से नेपाल में भी मेले का उद्घाटन अलग से अब होने लगा है। भारत में बाल दिवस(14 नवंबर ) पर तो नेपाल में मार्गशीर्ष संक्रांति पर मेले का उद्घाटन होने लगा है। वैसे तो यह मेला तीन देशों (भारत-नेपाल-चीन) की सांस्कृतिक और व्यापारिक विरासत का प्रतीक है, लेकिन 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद से यहां चीन(तिब्बत) के लोगों का आना-जाना बंद हो गया है। युद्ध से पहले से तिब्बत के लोग भी बड़ी संख्या में इस मेले में शिरकत करने पहुंचते थे। हालांकि,तिब्बत का सामान जैसे गर्म कपड़े इस मेले में नेपाल के रास्ते आज भी आता है, जो जौलजीबी मेले के मुख्य आकर्षण में से है। स्थानीय लोग बताते हैं कि पूर्व में इस मेले में नेपाल से आए घोड़ों की भी खूब बिक्री होती थी। पहले यहां व्यापारी सांभर, खाल, चँवर, पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों को लेकर आते थे। कपड़ा, नमक , तेल, गुड़, हल, निंगाल के बने डोके, काष्ठ उपकरण-बर्तन आदि यहाँ प्रचुर मात्रा में बिकते थे। उस समय यह क्षेत्र सड़कों और आवागमन की दृष्टि से भी अत्यंत दुरुह था । जौलजीबी तक सड़क भी नहीं पहुँची थी । इसलिए नेपाल-तिब्बत का भी यही सबसे प्रमुख व्यापारिक स्थल बना। अपनी दैनिक जरुरतें पूरी करने के लिए आसपास के सभी इलाके इसी मेले पर निर्भर हो गये थे। चीनी आक्रमण और कोविड महामारी से मेले पर काफी प्रभाव पड़ा और तिब्बत का माल आना बन्द हो गया, जिससे विशेषकर ऊनी व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा। काली नदी के तट पर जो बाजार लगते था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा। आज के मेले और तब के मेले में बहुत अंतर हो गया है। जानकारी देता चलूं कि जौलजीबी मेला उत्तराखंड राज्य की अमूल्य धरोहर है। मेले के बारे में हमने काफी कुछ सुना था, मसलन यह सुना था कि यह मेला भारत और नेपाल दोनों में ही लगता है और दोनों देशों की सांस्कृतिक विरासत है। सच तो यह है कि यह मेला ऐतिहासिक रूप से भारत, तिब्बत, नेपाल और आसपास के क्षेत्रों के बीच आपसी सामंजस्य , सहयोग और सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए प्रसिद्ध है। यह मेला भारत और नेपाल के आर्थिक संबंधों को मजबूत करने का एक माध्यम है जो सर्दी के मौसम में नवंबर में दस दिनों तक चलता है। पाठकों को बताता चलूं कि अंतरराष्ट्रीय पुल खुलने पर नेपाल से भी मेलार्थी यहां भारत में पहुंचते हैं। ऊपर जानकारी दे चुका हूं कि भारतीय सीमा में मेला लगने के बाद यह मेला नेपाल में भी लगता है और इस बार यह नेपाल में 22 नवंबर से शुरू हो चुका है।
हम लोग मेले के शुभारंभ यानी कि 14 नवंबर के अगले दिन ही वहां पहुंचे थे, तब मेले में विभिन्न स्टालें लग ही रहीं थीं। एक दिन पहले ही उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री धामी द्वारा मेले का शुभारंभ किया गया था। 15 नवंबर के दिन ही जब हम मेला स्थल पर पहुंचे तो वहां मेला स्थल पर स्टेज-पंडाल लगी थी, लगभग 100-150 दुकानें रहीं होंगी और उस दिन भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जा रहा था। सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी था और महिलाएं, पुरूष और बच्चे कार्यक्रम स्थल पर लगातार एकत्रित हो रहे थे। एक बड़ी टेलीविजन डिस्प्ले पर हमने, उपस्थित जनजाति के लोगों ने तथा मेला स्थल पर पधारे आगंतुकों ने माननीय प्रधानमंत्री जी के जमुई बिहार से सीधे संबोधन को सुना। मेला स्थल पर लोग इधर-उधर टहल रहे थे, कुछ दुकानदार अपनी दुकानें लगा रहे थे तो कुछ आगंतुक विभिन्न सामान की खरीदारी करने में व्यस्त थे। हर वर्ष की भांति इस बार भी जौलजीबी मेले में स्थानीय बुनकरों द्वारा निर्मित ऊनी उत्पाद, चटाईयां भी मेले में पहुंचीं हैं। दन, चुटका, पंखी और पस्मीना, छोटे ऊनी आसन, सोफासेट के ऊनी कवर, द नार्थ फेस और शुभ प्रभात तथा केंचुआ कंपनी के बने कोट, हाथ से बनी बांस की टोकरियां, लोहे और स्टील के बरतन, छोटे मोटे कृषि औजार, प्लास्टिक का छोटा-मोटा सामान यहां के विशेष आकर्षण हैं। अन्य सामान भी हैं। तिब्बत से आयातित चुरु कंबल की यहां विशेष मांग रहती है, जो फेदर(पंखों) से बना होता है और काफी गर्म होता है। मेले में लकड़ी के बर्तन भी पहुंचे हैं। प्रतिवर्ष मेले में आने वाले मैदान से हलवाई भी यहां पहुंचे हैं। खाने में यहां नूडल्स, चाऊमीन, मोमोज पसंदीदा है और इनका चटखारा कुछ अलग ही है। नान-वेज भी आसानी से यहां मिल जाता है। हमने देखा कि मुरादाबाद से बर्तन, काशीपुर, रामपुर और बरेली से गद्दे, रजाई के व्यापारी भी यहां पहुंचे हैं । हालांकि समय के साथ आज यहां स्थानीय उत्पादों में अब पूर्व की भांति काफी कमी आ चुकी है, लेकिन फिर भी सीमित मात्रा में काले भट्ट, पहाड़ी उड़द, काला और रंग विरंगा राजमा, जम्बू, गंधारयण, सूखी मूली सहित कुछ पहाड़ी जड़ी-बूटियों सहित अन्य सामान भी यहां पहुंचा है, जो काफी सीमित मात्रा में है। यहां का राजमा विशिष्ट है। वैसे हमने देखा कि यहां मोबाइल सिग्नल पकड़ने में थोड़ी दिक्कत आती है। पहाड़ी, दुर्गम इलाके के कारण मोबाइल अक्सर सिग्नल छोड़ देते हैं और कभी कभी तो भारतीय सीमा में नेपाल के सिग्नल पकड़ने लगते हैं। सड़क अच्छी व चौड़ी बनी हुई है, यहां सड़क के दोनों किनारों पर हमने देखा कि यहां पहाड़ों की मिट्टी भूरे-लाल रंग की है। आज क्षेत्र में बुनियादी विकास हो रहा है।सीमावर्ती क्षेत्रों में आधुनिक सड़कें, सुरंगें, पुल, पॉलीहाउस, चेक डैम पर काम हो रहा है।बुनियादी ढांचे, कनेक्टिविटी और स्थानीय अर्थव्यवस्था का विस्तार हो रहा है, पहले की तुलना में आज स्वास्थ्य सेवाएं भी बेहतर हुईं हैं। अंत में, यही कहूंगा कि जौलजीबी अंतरराष्ट्रीय मेला न केवल सांस्कृतिक और आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा देता है, बल्कि सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास और स्थानीय समुदायों की आजीविका को सशक्त बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।
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