कहानी है साल 1950 के दशक की। असम का बदरपुर शहर और उसी शहर से सटा गाँव नाम श्रीगौरी। ये गाँव जैसा नाम वैसा ही देखने में सुन्दर। हरे-भरे खेत, चारों तरफ हरियाली-ही-हरियाली, छोटे-बड़े हर घर के पीछे एक छोटा सा पोखर, चारों तरफ आम, कटहल, नारियल, सुपारी के पेड़। घरों के किनारे तथा रास्ते आदि पर जंगली पेड़ों का तांता और साथ ही बाँस की लम्बी-लम्बी झाड़ियाँ। छोटे-बड़े हर तालाब के किनारे बाँस की लम्बे-लम्बे बेड़े। साथ में गुज़रती हुई पगडंडी। हर घर के सामने के आँगन में जबा-कुसुम, टगर, नील अपराजिता, गेंदे आदि के फूलों के पौधे। हिन्दू घरों के सामने तुलसी का पौधा लगाया रहता था । वही ब्राह्मणों के घर के किनारे अलग सा एक ठाकुर घर भी बनाया हुआ है। आँगन के चारों तरफ से बाँस का बेड़ा लगाया गया है ताकि कोई भी जानवर या चोर अंदर न आ सके। आँगन और घर के बरामदे बहुत करीने से लीपे पोते हुए है। सभी घर की छत या तो टीन से ढकी है या फिर घास-फूस से। अभी तक गाँव में शहर की विशेष कोई आधुनिकता प्रवेश नहीं कर सकी है। पर गाँव के किनारे से रेल की लाइन जाती है। ये रेल लाइन अंग्रेजों के जमाने की थी। सुबह और शाम को दो बार यहाँ से पुराने भांप वाली रेल गुजरा करती थी और रेल से निकले धूवे से गांव भर में कोयले की गंद फैल जाती थी। रेल की बोगी से गुजरते हुँए गाँव के साधारण घर दिख पड़ते थे। ये घर अपनी-अपनी एक अलग सी आभा लिये हुए थे। दिन में घरों के बाहर खेलते बच्चे या बंधी गाय तो रात को घर के अंदर जलती लालटेन या टिबरी की रोशनी। श्रीगौरी ग्राम में रुपोशी माता का थान भी था। थान में केवल एक बड़ा का वट वृक्ष और एक शेवड़ा का पेड़ था जहाँ महिलाएँ संतान प्राप्ति एवं मंगल के लिए व्रत किया करती थी। इस कारण गाँव के निजदीक बना हुआ रेल स्टेशन का नाम रुपोशी बाड़ी स्टेशन पड़ा। श्रीगौरी एक खुशहाल गांव था एवं गांव में पढ़े-लिखे लोगों का समावेश था। श्रीगौरी गाँव की सुन्दरता कैसी थी ये तो देखने वाला ही कह सकता था जो भी वहाँ जाता गाँव की सुन्दरता से मोहित हो पड़ता था। कड़कती धूप हो तो भी श्रीगौरी ग्राम को कोई देख भर ले तो गर्मी में भी उसकी आँखें ठंडी हो जाए क्योंकि धूप जहाँ गर्मी दिलाती है वहाँ श्रीगौरी ग्राम में धूप एक अलग ही खेल खेलती है। पेड़ों के पत्ते धूप में चमकते हैं, पानी में धूप चमकती है तो लगता है कि धरती पर सोने की चादर बीछी हो, पेड़ों के झुरमुट से हवा के झोंके ठंडक का एहसास दिला जाते हैं। वही बीच-बीच में कटहल पाखी अपनी कूकू- कूकू की आवाज़ से दिन को और भी आलस भरे विलास से भर देता है। रात तो ऊँचे-ऊँचे बास की झाड़ियों की चोटी के उस पार से तारों के झुण्ड दिखायी पड़ते हैं। वर्षा की ऋतु आ जाए तो कहना ही क्या? आम की महक पूरे गाँव को मदहोशी में डाल दे। शरत की हर सुबह शेफ़ाली फूलों की खुशबू से सराबोर रहती है। ऐसी है श्रीगौरी ग्राम की खूबसूरती। लगता है कि स्वयं गौरी माता ने ही इस ग्राम की रचना अपने हाथों से की हो।
इसी गाँव में रहता है मालती और उपेन्द्र का परिवार। परिवार में कुल नौ बच्चे, माता-पिता और एक विधवा बुआ को मिलाकर तेरह लोग है। मध्यवर्गीय परिवार। शिक्षित परिवार है। परिवार के मुखिया उपेन्द्र जी होमियोपेथी की प्रेक्टिस करते हैं। मालती जी उस जमाने की पाँचवी पास थी। घर की बागडोर उन्होंने सम्भाली हुई थी। विधवा ननदरानी के साथ पूरे घर को सम्भालना शायद आसान न था लेकिन उन दोनों ननद-भाभी की सूझ-बूझ ने सब कुछ आसान कर दिया था। मुखिया उपेन्द्र महाशय प्रायः धंधे की सफलता के लिए डिगवॉय रहा करते थे। वे महीने दो महीने में एक बार घर को आया करते थे क्योंकि डिगवॉय से रुपोशी बाड़ी करीब एक दिन की रेल यात्रा जितनी लम्बी थी। उनके और मालती जी के नौ बच्चे थे। बड़ा बेटा भानु, दूसरे का नाम पुनु, तीसरा मनु, चौथा पिजु और पाँचवा सबसे छोटा लड़का जुनु था। वही बेटियों में क्रमशः अनु, तनु, रुनु और अपु। अपु की एक जुड़वा भी थी लेकिन दुर्भाग्यवश वह शैशव में ही ईश्वर के घर चली गयी। ब्राह्मणों का साधारण परिवार। वहाँ के जमींदार ने इन्हें बसाया था। घर और खेत भी दिए थे। उनके आस-पास के सभी अन्य घर इन्हीं के कुटुम्ब हैं। घर के सामने एक बड़ा सा पोखर है और घर भी काफी बड़ा है। घर के चारों तरफ आम और कटहल के बड़े-बड़े पेड़ लगे हुए हैं। और घरों तरह मालती जी ने भी कई सारे फूलों के पौधे लगाए हैं। साथ ही कुछ नींबू और अन्य सब्जियों की भी बागवानी कर ली है। यही से प्रतिदिन वह ताज़े-ताज़े फल-फूल तोड़कर अपने शालीग्राम ठाकुर को अर्पित करती है। बहुत ही भक्तिमति महिला थी।
रुनुबाला इनकी तीसरी और सबसे छोटी लड़की है उसके बाद जुनु और अपु है। रुनुबाला बचपन से ही काफी मेहनती और बुद्धिमान रही है। वह गाँव के स्कूल श्रीगौरी हाई स्कूल में पढ़ा करती थी। ये स्कूल भी उनके घर से चार किलोमिटर दूर था जहाँ वे सभी चलकर ही जाया करते थे। चाहे कड़ी धूप हो या तेज बारिश स्कूल पैदल ही जाना पड़ता था। बरसात के दिन रास्ते में कीचड़-ही-कीचड़ हो जाता था। तो कभी किसी के पोखर पानी बरसात में लबालब भर जाने पर रास्ते पर आ जाता तो रास्ते का पता न चलता था। रुनुबाला फिर भी इन रास्तों को निडर होकर पार किया करती। रुनुबाला को कला का बड़ा ही शौक था। हर दुर्गा पूजा में या फिर शरत पूर्णिमा में होने वाली लक्ष्मी पूजा में पूरे घर की रंगोली बनाने की जिम्मेदारी इन्हें ही सुपुर्द कर दी जाती थी। वही पढ़ाई की बात हो तो ये रात को रसोई के सामने वाले बरामदे में बैठ कर घर के सभी बच्चे लालटेन या फिर टिबरी की रोशनी में पढ़ा करते थे। माँ रसोई में काम करते हुए इन्हें देखा करती क्योंकि रसोई का दरवाज़ा रात को सोने से पहले या फिर दोपहर में ही बन्द रहता। पुरातन खयाल का बनाया घर है सो आमिश और निरामिश माने शाकाहारी और मांसाहारी भोजन बनाने के लिए दो अलग-अलग रसोई और रसोई के अलग-अलग बर्तन व मसाले। चूल्हा भी अलग। उन्हें धोना-मांझना सब अलग ही होता। इस बात का खयाल विशेष रूप में माताएँ अपने सभी बच्चों को सिखा देती थी।
“ए जुनु ये क्या कर रहा है रे। अभी तक तुझसे वर्णमाला याद नहीं हुई?”
“देख तो रे रुनु। तेरा भाई अभी तक वर्णमाला याद नहीं कर सका है। उसे जरा मदद तो कर दे।”
“माँ मेरी भी कल भुगोल की परीक्षा है। मास्टर जी डांटेंगे अगर परीक्षा अच्छी न हुई तो।”
“देख ले न मेरी शोना, मेरी रानी बेटी। उसकी भी परीक्षा है। देख तेरे मास्टर जी तो बड़े नरम दिल वाले है। वे लड़कियों को नहीं मारते हैं। लेकिन ये तो लड़का है। प्रथम कक्षा में होने के बावजूद भी मास्टर जी कैसे डंडे बरसाते हैं। देख न मेरी लाडो”। रुनुबाला की इच्छा नहीं थी। लेकिन माता के आदेश का पालन न कर वह उनका अनादर नहीं करना चाहती थी। सो वह अपने भाई को बुला लेती है। जुनु अपनी बड़ी बहन के पास ही पढ़ता था। वह जानता था कि अच्छी तरह से न पढ़ने पर दीदीमोनी ज़रूर डाटेगी। जुनु बेचारा बड़ी बहन के डर से उसके पास रेंगता हुआ आया। हाँ रेंगता हुआ। जुनु को पोलियो जो हो चुका था। उसकी देखभाल भी अक्सर रुनुबाला के जिम्मे ही थी। वह तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। उसे घर के उतने काम न करने पड़ते थे। कभी-कभार बड़ी बहन या छुड़दी के साथ उसे बर्तन वगैरह धोने या धान सुखाने का काम करना पड़ता था। बाकी बड़े भाई सब बड़ी कक्षा में पढ़ते थे और उन्हें घर की दूसरे काम जैसे गाय दोहना या छप्पर की मरम्मत करना इत्यादि काम शामिल थे। वही उनमें इतना धैर्य न था कि वे जुनु के साथ कही आ जा सके। रुनु का लगाव अपने इस भाई के प्रति कुछ अधिक था तो वह ही उसकी जिम्मेदारी लिए हुए थी।
अगले दिन सारे बच्चे खा-पीकर निकल गये। रुनु भी तैयार होकर निकलने वाली ही थी कि जुनु उसके पास लंगड़ाता हुआ आया। “क्यों रे तू यहाँ इस वक्त क्या कर रहा है?” रुनु ने ज़रा सी बेरुखी से पूछा। “बोड़दा, मेज़दा सभी निकल गये। उन्होंने मेरी पुकार सुनी ही नहीं। बस छुड़दा है लेकिन मुझसे अठन्नी मांगते हैं।” “पर छुड़दा तो ऐसे नहीं करेंगे। बता सच-सच।” “वो दीदीमोनी आज दोपहर को नौटंकी वाले आने वाले है। छुड़दा ने कहा है कि अगर उन्हें अठन्नी दे दे तो वे मुझे और तुझे साथ ले चलेंगे और 10 पैसे का मटर खरीद देंगे और रंगीन कागज़ भी दिला देंगे। उनके किसी मित्र ने उनसे कहा है।” रुनु ये सब सुनकर बड़ी खुश होती है। वह जुनु को अपने साथ स्कूल ले चलती है। जुनु का पोलियो होने के कारण लंगड़ाकर चलना पड़ता था। रुनु बड़े धैर्य से अपने भाई को साथ लिए चलती थी। कुछ दिनों से काल बैसाखी की बरसात बहुत ज़ोरो से होने लगी है। रास्ते भर में कीचड़ के साथ-साथ पेड़ों की टहनियाँ टूट कर बिखरी हुई है। आजकल सुनंदा काकी के पोखर में ज्यादा मिट्टी ढह जाने से पोखर का पानी स्कूल जाने वाले रास्ते में फैला पड़ा है। उनके घर के पास कुछ दिनों से सांप निकलने की घटना भी हो रही है। रुनु अपने भाई को पानी से भरे रास्ते में गिरने से बचाने के लिए उसे गोद में उठाने की बात कहती है लेकिन जुनु मना कर देता है। वह जानता है कि दीदीमोनी उसे उठा नहीं पाएगी। फिर दोनों भाई बहन मिलकर कही से एक पेड़ की टूटी टहनी उठाकर रास्ते को टटोलकर चलते है और सुनंदा काकी के घर का दायरा पार कर जाते है। आगे ईट से बना कुछ पक्का रस्ता था जिसे शायद तब की सरकार ने दिखावे को बना रखा था। दोनों भाई-बहन स्कूल पहुँचते हैं मगर उन्हें थोड़ी देर होती है। लेकिन चूंकि जुनु की ऐसी हालत थी इसलिए स्कूल के मास्टर जी भी उन्हें थोड़ा समय दिया करते थे। वे रुनुबाला को अपने भाई की मदद करता देख हमेशा ही उसकी प्रशंसा करते थे। कक्षा में भी वह कई छात्राओं के लिए प्रेरणा बनी हुई थी। उस दिन रुनुबाला स्कूल पहुँचते ही अपनी परीक्षा की अंतिम तैयारी करती है। तय समय पर परीक्षा हो जाती है और रुनु और जुनु को मनु नियत स्थान पर मिलने के लिए बुला लेता है। स्कूल से निकलते वक्त मनु स्कूल से सटे झाड़ी के किनारे चला जाता है। रुनु और जुनु भी चोरी छिपे कक्षा से निकलकर वही आ जाते हैं। घर में यदि किसी को पता चला कि वे बारुनी मेला घूमने गए हैं तो बड़े भैया या फिर पिताजी से अच्छी खासी खानी पड़ सकती है।
छुड़दा और उनकी टीम बारुनी मेला की तरफ निकल पड़ते हैं। बारुनी मेला बराक नदी के किनारे बसे सिद्धेश्वर मंदिर के उसपार वाले मैदान में हुआ करता था। छुड़दा ने घर में कहलवा भेजा था कि वे स्कूल के पार वाले रास्ते के उस पार हरिमति दादी के घर जा रहे हैं। उनके घर फागुन-चैत्र संक्रांति की सफाई और कुछ मदद करानी है। दादी अकेली रहती है। पीशीमोनी(बुआ) के ससुराल की दूर की कोई रिश्तेदारी लगती है। सो इस झूठ से कुछ देर राहत जरूर मिल जाएगी। तीनों ने मिलकर मेले में खूब मस्ती करी। 10 पैसे की जगह 20 पैसे के मटर भी खाए। रुनु ने मेले से दो पैसों की कुछ कांच की चूड़ियाँ भी खरीदी की। हाथों में सुन्दर कांच की चूड़ियों को पहनकर वह बहुत खुश होती है। परन्तु घर जाते वक्त उसे खयाल आता है कि यदि बोड़दी और मेजदी या अपु ने ही देख ली तो वह क्या जवाब देगी? सबके लिए लेने लायक पैसे भी नहीं थे इसलिए उसे बड़ा दुख हुआ। वह सोचने लगी कि इन चूड़ियों का क्या किया जाए। बाद में न जाने क्या सोच कर वह खुश हो गयी। घर जाते ही उसने सबसे पहले सभी बहनों को बुला भेजा। रुनु ने अपनी सभी बहनों में चूड़ियाँ बराबर बांट दी। सभी कम उम्र की लड़कियाँ हाथों में रंगीन कांच की चूड़ियाँ पहनकर खुश हो गयी। रुनु ने अपनी समझदारी से सारी बहनों को खुश कर दिया था। रात को सारी लड़कियाँ अपने-अपने कामों में लग गयी। बोड़दी,मेजदी माँ को रसोई में मदद करने लगी। वही छुड़दी घर के अंदर धुले कपड़े लत्ते तह लगाने लगी। बिस्तर ठीक-ठाक करने लगी। रुनु और बाकी बच्चे भी पढ़ाई पूरी कर खाने की प्रतीक्षा करने लगे थे। रुनु छुड़दी की मदद करने में लगी हुई थी। तभी एक घटना घटी। रसोई में माँ तेज आवाज़ में मेजदी को डांटे जा रही थी। मामला ये था कि मेजदी माँ को पता न चले इसलिए अपनी साड़ी के आंचल से अपनी कलाई छुपाए हुए काम कर रही थी। लेकिन उनकी अतिरिक्त सतर्कता ने ही उनसे भूल करवा दी। केरोसीन के टेबल लैप्म की कांच की चिमनी उनसे टूट गयी थी। ये चिमनी बहुत ही किमती थी। पिताजी डिगवॉय से लाए थे। अब नयी चिमनी लाने में फिर एक महीना लगेगा क्योंकि वे कल ही वापस गए हैं। अब पूरे महीने लालटेन या फिर टिबरी की रोशनी में ही निकालनी पड़ेगी। अब कांच तो टूटा ही साथ-ही-साथ हाथ में कांच की चूड़ी भी दिख गयी। मेजदी उस वक्त को कोसे जा रही जब उसने ये कांच की चूड़ी पहनी और रुनु का नाम लेकर माँ से शिकायत करने लगी। वही माँ गुस्से में थी कि अगर चूड़ी पहन भी ली तो दिखाने में क्या लाज थी? बता देती तो क्या होता? वह डांटती थोड़े ही। माँ इधर लगातार ही बोले जा रही थी –“अरे जवान लड़की है। कांच की क्या सोने की चूड़ी भी पहन मना थोड़े करती हूँ। इतना छुपाने की क्या पड़ी थी। चुपचाप बता देती मुझे। मैं थोड़े न मना करती हूँ। दोनों हाथों की कलाइयाँ सूनी रहे जवान बेटी की किसे पसन्द है। थोड़ा तो अक्ल से काम लेती। बुद्धु लड़की कही की।” इस समय पीशीमोनी(बुआ) भी वही थी। वे बहुत ही अनुशासन प्रिय थी। घर के बच्चों को वह खूब लाड करती थी परन्तु गलती होने पर डांटती भी बहुत थी जिसके कारण बच्चे उनको प्यार भी करते थे और मानते भी बहुत थे। पीशीमोनी(बुआ) बोली —”ये रंग-ढंग शादी से पहले के है तो शादी हो चुकी। जवान लड़कियाँ यू मुसलमानो की बेटी की तरह कांच की चूड़ियाँ चमकाती फिरे तो कौन ब्राह्मण अपना लड़का देगा। मेले घूमना क्या तुम लड़कियों को शोभा देता है। जो मुह उठाये चल दी? गयी तो गयी बता कर भी नहीं गयी वरना अकेली न छोड़ती। बड़का या मंझला ही जाता तुम सबके साथ। सौदा भी अच्छा ले आता। न जाने कहाँ-कहाँ फिरती रही होगी। कितनों की नज़र पड़ी होगी। हाय रे राधा-कृष्ण क्या जमाना आ गया है!” कहकर वह अपने काम में लग गयी।
रुनु से रहा नहीं गया। वह कुछ कहना चाहती थी लेकिन बड़ों के बीच बोलने में उसे हिम्मत नहीं पड़ती थी। तब के समय में घर-घर का ये ही नियम था कि घर में जब कोई बड़ा-बूढ़ा बात करें या डांटे तो बच्चे वहाँ आस-पास भी खड़े नहीं रह सकते हैं। बोलना तो दूर की ही बात थी। पर वह करती भी क्या? वह छुड़दी को लेकर चोरी-छिपे बोड़दा(बड़े भैया) के पास जाती है और पूरी ईमानदारी से सारी बातें बता देती है। बड़े भैया सारी बातें सुनकर पहले तो रुनु पर नाराज़ होते है लेकिन अपनी नाराज़गी को सैयत करते हुए वह माँ से इस बारे में बात करने का आशवासन देते हैं। बड़े भैया रसोई की तरफ जाते हैं तो पीशीमोनी(बुआ) चुप हो जाती है। बड़े भैया अब घर में पिताजी की गैर मौजूदगी में कर्ता के रूप में थे। सोलह वर्ष के भानु हाई स्कूल में पढ़ते थे। अगले साल दसवी की परीक्षा देकर कॉलेज में जाएंगे। इसलिए अब उन्हें धीरे-धीरे घर और बाहर दोनों जगहों की जिम्मेदारी समझ में आने लगी थी । माँ भी सबसे बड़े बेटे होने के नाते उन्हें ही सारी जिम्मेदारियाँ देती थी। माँ भी बड़े बेटे के आने के बाद चुप हो गयी।
भानु – क्या हुआ माँ, इतने गुस्से में क्यों हो?
माँ – देख न रे, आज सारी की सारी मेले घूमने गयी थी। मुझे बिना बताए। फिर कांच की चूड़ियाँ भी खरीद लायी। मैं देख न लू और डांटू नहीं इसलिए तनु साड़ी से छुपा रही थी। अब देख लिया तो रुनु पर इल्ज़ाम लगा रही है।
भानु – माँ वह सच ही कह रही है। गलती उसकी नहीं है। रुनु ने मुझे बता दिया था। बस तुम्हारे डर से वह सामने नहीं आती। तुम कही जान न लो इसलिए अपनी सारी चूड़ियाँ बहनों में बांट दी उसने। तनु तो मेले में गयी ही नहीं थी।
माँ – (आश्चर्य के साथ) अच्छा! कहा है वह मरी? सामने ला तो। एक तो सारा दिन घर से गायब रही उसपर से बड़ी और छोटी को भी फंसा लिया? उसकी टोली, रुनु,जुनु,अपु कहाँ है ला तो।
भानु – माँ तुम उन्हें डांटो, खूब डांटो, लेकिन साथ में अपने लाडले मनु को भी। वही तो है इन बन्दरों का सरदार।
मनु पास ही बैठा हुआ अपना पाठ याद कर रहा था। उसे डर के मारे पसीना आ रहा था। घर में माँ और पिताजी के बाद यदि किसी का सम्मान करता तो वह एक मात्र बोड़दा का ही था। जब सारी बात सामने आ गयी तो फिर किसी के मन में अब डर नहीं था। था तो केवल दुख की बिना बोले कही जाने का। सबसे ज्यादा रुनु को डर था कि इस प्रसंग के बाद कही उसकी दोनों बड़ी बहने नाराज़ न हो जाए। वही माँ ने सबको सामने बुला लिया। सभी अपराधी की मुद्रा में खड़े थे।
माँ – देखो आज जो कुछ भी हुआ दूसरी बार नहीं होना चाहिए। मनु तुम तो बहुत समझदार हो। पढ़ाई में भी अच्छे हो तुमसे ये उम्मीद नहीं थी। घर की बेटियों को झूठ बोलना सिखाना या चालबाजी सिखाना सही नहीं है। वे दूसरे घर जाएंगी। उन्हें घर में समझदारी से काम लेना सिखाना चाहिए। तुम उन्हें उकसाया करोगे तो कैसे चलेगा?
मनु – माँ मुझसे भूल हो गयी। दुबारा ऐसा न होगा।
माँ की डांट खाकर मनु की आँखों से झर-झर आँसु बहने लगे। तब रुनु अपने छुड़दा के पास जाकर कहती है—रो मत छुड़दा। तुमने तो हमें मेले का आनंद देने के लिए किया था। लेकिन इसमें अकेले तुम्हारे थोड़े ही गलती है। मैं भी जिम्मेदार हूँ। माँ की ओर देख—माँ मुझे भी तुम डांटों, भैया को अकेले क्यों डांटती हो, उनकी गलती में हमने भी बराबर साथ दिया है। रुनु की बात सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ। पीशीमोनी(बुआ) रुनुबाला के साहस की बात से खुश होती है। वह सबको समझाती है कि अगर बच्चे आगे बढ़कर अपनी गलती स्वीकार करे तो अच्छी बात है। इससे मामले जल्दी निपटते हैं। घर में शांति बनी रहती है। रुनु की बातें सुनकर अनु-तनु भी आश्चर्यचकित हो जाती है। उसका साहस देखकर उन्हें आश्चर्य होता है। तनु के मन में अब अपनी छोटी बहन के लिए ममता उत्पन्न होती है क्योंकि तनु तो अकेले रसोई में डांट खा रही थी। लेकिन रुनु तो सबके सामने डांट खा रही है। अपनी बहन के पास जाकर वह उसे गले लगाती है और प्यार से झल्लाते हुए कहती है – पगली कही की। मेरे लिए सबके सामने मार खाने चली आयी।
बुआ की बात से सारे बच्चे सहमत थे। अपनी गलती मान लेने में ही भलाई है। सभी ने उस दिन मन-ही-मन निश्चय किया कि वे आगे से कही भी बिना बताए नहीं जाएंगे और न ही झूठ बोलेंगे। रुनुबाला के साहस ने उस दिन घर के झगड़े को जल्दी निपटा दिया था।
डॉ मधुछन्दा चक्रवर्ती
व्याख्याता
सरकारी प्रथम दर्जा कॉलेज, के आर पुरम
8217797037
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