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“पतंग”

मकर संक्रांति पर लोग दही और चूड़ा क्यों खाते हैं?
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सुनो सुनो ऐ दुनिवालो मुस्कुराती ये पतंग क्या कहती है ,
ऊँचे गगन में उड़ती है, और ऊपर ही उठने को कहती है ।
हवा की मंशा जानने को सही दिशा को पाने को ,
माना कि थोड़ा वक़्त लगे,धीरज मन में धरने को ।
फिर अपने रंग में आ, मस्ती से वहाँ विचरती है ,
बिना ख़ौफ़ के हरदम ये बुरे हालात से लड़ती है ।
माना कि डोरी बंधी हुई, पर ये ज़ोर है जिससे जुड़ी हुई ,
उम्मीद के धागे पंख बने, परवाज़ इधर या उधर जो गई हुई,
चढ़ती है, उतरती है, मचलती है और ये बढ़ती है ।
गिरती है, सम्भलती है , कभी सरपट ऊपर को चढ़ती है ।
माना कि इसको कटना है, पर ये सबका अफ़साना है ,
जब तक जीना है उड़ना है, फिर मिट्टी अपना ठिकाना है ।
बेख़ौफ़ तमन्ना के रस्ते, ये अपनी राह पकड़ती है ।
जब तक डोर है,रब के हाथ में,हर संकेत पकड़ती है ।
हम भी एक पतंग हैं साथी, साँसों की डोर से बंधे हुये ,,
इस दुनिया में उड़ना है, विपरीत हवाओं में उलझते हुये ।
तब तक ही ये कर्म क्षेत्र-जब तक ये साँस धड़कती है ।
कर्म ही धर्म है, और नहीं कुछ, तब कुछ कर गुजरती है।
हरेंद्र नाथ श्रीवास्तव
मौलिक व स्वरचित
@ सर्वाधिकार सुरक्षित

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