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भेड़िया आया … शिकार किया … और चला गया। अमेरिकी नागरिक नाथन एंडरसन पर यह उक्ति सटीक बैठती है। अमेरिकी वित्तीय शोध कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च ने बुधवार को अचानक अपनी दुकान बंद कर दी है। 2017 में नाथन एंडरसन नामक अमेरिकी नागरिक द्वारा स्थापित इस संस्था ने महज आठ साल के अंदर न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के कई देशों के शेयर बाजार में भयानक उथल-पुथल मचाई थी। हिंडनबर्ग रिसर्च के काम करने का तरीका बिलकुल अलग था। यह रिपोर्ट तैयार करने के बाद अपनी वेबसाइट के माध्यम से दुनियाभर में जारी करती थी। रिपोर्ट में वित्तीय अनियमितता का जिक्र होता था। चूंकि हर व्यापारिक समूह मुनाफे के लिए ही कारोबार करता है। इसलिए तत्काल किसी को शक भी नहीं होता है। लोगबाग उस रिपोर्ट को सच मान लेते हैं। उस देश की विपक्षी पार्टियां हवा देने लगती हैं। सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है। जिस किसी व्यापारिक समूह के खिलाफ यह रिपोर्ट होती थी, जब तक वह संभलता तब तक उसके शेयर बाजार में भूचाल आ चुका होता था। उसके हजारों-लाखों करोड़ रुपये अथवा डॉलर डूब चुके होते थे। इसने अपनी रिपोर्ट से देश के अग्रणी उद्योग समूह अडाणी को भी लाखों करोड़ रुपये की चपत लगा दी थी। इसके अलावा निकोला समूह, क्लोवर हेल्थ, कंडी और लार्डस्टाउन मोटर्स आदि कई प्रमुख कंपनियां हैं जिन्होंने हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट जारी होने से अपनी जमा पूंजी गंवाई है।
खास बात यह कि अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ लेने और पद भार ग्रहण करने के पहले नाथन एंडरसन ने अपनी दुकान बंद कर दी। हिंडनबर्ग रिसर्च के खिलाफ अमेरिकी अदालतों में कई मुकदमें चल रहे हैं। अमेरिका का डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस जाँच कर रहा है। हालाँकि रिपोर्ट जारी करने के पहले हिंडनबर्ग रिसर्च दावा करता था कि ‘वह धोखाधड़ी उजागर करके निवेशकों को नुकसान से बचाने के लिए ऐसा कर रहा है।‘ इससे किसी को इस पर शक भी नहीं होता था। लेकिन आरोप है कि रिपोर्ट जारी करके नाथन एंडरसन करोड़ों रुपये (डॉलर) कमाते थे। जब उन्हें लगा कि कार्यभार ग्रहण करने के बाद डोनाल्ड ट्रंप उनके खिलाफ एक्शन ले सकते हैं तो कारोबार समेटकर एंडरसन संत बनने का दिखावा कर रहे हैं। एंडरसन कहते हैं कि ‘कंपनी बंद करने का फैसला काफी बातचीत और सोच समझ कर लिया है। हमने उन एम्पायर्स को हिला दिया जिन्हें हिलाने की जरूरत थी।‘ उन्होंने लिखा कि ‘ कोई खास बात नहीं है। कोई खास खतरा भी नहीं है। स्वास्थ्य की कोई समस्या नहीं है और कोई बड़ा व्यक्तिगत मुद्दा भी नहीं है। मैंने वह सब हासिल कर लिया है जो हमने टारगेट किया था। मैंने पिछले 8 साल का ज्यादातर समय किसी लड़ाई में या अगली लड़ाई की तैयारी में बिताया है। अब मैं अपने शौक पूरे करने, घूमने, अपनी मंगेतर और बच्चों के साथ समय बिताने के लिए उत्सुक हूँ। मैंने फ्यूचर के लिए काफी पैसा भी कमा लिया है।‘
नाथन एंडरसन की भोली प्रतिक्रिया और कारोबार समेटने से मुझे एक बार फिर बिहार के कुख्यात ठग मिथिलेश श्रीवास्तव उर्फ़ नटवर लाल की कही बातें याद आती है। एक बार अपनी गिरफ्तारी के बाद पत्रकारों से उसने कहा था कि ‘दुनिया में जब तक लालची रहेंगे, ठग भूखा नहीं रहेगा।‘ लालच चाहे सत्ता की हो अथवा सामान की, दोनों हितकारक नहीं कही जा सकती। एंडरसन ने तो दूसरों पर दोषारोपण करके अपना घर भर लिया। लेकिन नाथन एंडरसन के आरोपों को सही मानकर और उलझकर हमने यह क्या कर लिया? क्या हमारे नेता अमेरिकी अरबपति जार्ज सोरोस को लेकर भी वही गलती तो नहीं कर रहे हैं? आलोचकों का दावा है कि सोरोस की ओपन सोसायटी फाउंडेशन ने कई देशों में राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा दिया है। दावा तो यह भी है कि अब उसके निशाने पर भारत है। भारत के एक सियासी परिवार से सोरोस की नजदीकियां जगजाहिर है दोनों के कई फोटोग्राफ भी पब्लिक डोमेन में आ चुके हैं।
मुझे पूछने दीजिए कि जिस हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को लेकर कांग्रेस पार्टी और नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने संसद से लेकर सड़क तक सरकार और गौतम अडाणी के खिलाफ हो-हल्ला मचाया था, अब क्या कहेंगे? क्या हिंडनबर्ग की जिस रिपोर्ट से गौतम अडाणी के 7 लाख करोड़ से अधिक की पूंजी डूब गई, उसे कांगेस पार्टी अब वापस दिलाने की पहल करेगी? क्या सरकार की छवि पर अडाणी को लेकर जो दाग लगा है, उसकी भरपाई हो सकेगी?
यकीन मानिए, मैं सरकार अथवा गौतम अडाणी की बेगुनाही का कोई दस्तावेज नहीं दिखा रहा हूँ, न ही मैं दोनों में से किसी का प्रतिनिधि हूँ। मैं पत्रकार हूँ और 35 वर्षों से पत्रकारिता ही कर रहा हूँ। मेरा तो बस इतना ही कहना है कि बिना किसी ठोस सबूत के, हमें किसी पर दोषारोपण करने अथवा किसी की छवि बिगाड़ने का हक नहीं है। कीचड़ अगर हाथ में लेकर हम आसमान पर उछालेंगे तो वह हमारे ही सिर और चेहरे पर गिरेगा। अडाणी, अंबानी, टाटा, बिड़ला हों या कोई और उद्योगपति, राष्ट्र के निर्माण और इसके विकास में उनका योगदान सरकार से कमतर नहीं होता। सड़क, रेल, एयरपोर्ट, पोर्ट, संचार, इंटरनेट, शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, बांध, रोजगार से लेकर खानपान की सुविधा तक सभी सुलभ कराने में हमारे उद्योगपतियों का योगदान अहम् है। देश की अर्थव्यवस्था के वही रीढ़ होते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि उनकी आलोचना सुधार के लिए होनी चाहिए, विरोध के लिए नहीं। कहीं ऐसा न हो कि अकारण उनको कोसते-कोसते हम अपना अहित कर लें। हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं। हमें अपनी सोच बड़ी रखनी होगी। तभी हम विकसित भारत की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं।




















