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दान का परिणाम

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सुबह का वक्त था। निशा ने बिस्तर से उठते हुए घड़ी पर नजर डाली। सुबह के साढ़े पांच बज चुके थे। काफी देर से वह जगी हुई थी, लेकिन बिस्तर छोड़ने का मन नहीं हो रहा था। खिड़की से छनकर आती हल्की रोशनी ने इशारा किया कि दिन की शुरुआत हो चुकी है। उसने सोचा, अब उठ जाना ही ठीक होगा। वह बाथरूम में जाकर फ्रेश हुई और कमरे को ठीक करने लगी।
थोड़ी देर बाद दूधवाले की घंटी बजी। निशा ने दूध लिया और किचन में रखा। तभी उसके पति, नितिश बाबू, सैर पर जाने के लिए तैयार हो गए। दोनों के बीच संवाद कम ही होता था। उनके रिश्ते अब एक पुराने रूटीन की तरह हो गए थे – उत्साह, उमंग और नयापन जैसे शब्द कहीं पीछे छूट गए थे।
नितिश के जाने के बाद, निशा अखबार लेकर बैठ गई। लेकिन उसकी नजरें दीवार पर टंगी उस तस्वीर पर टिक गईं, जिस पर माला चढ़ी हुई थी। तस्वीर उनके इकलौते बेटे निलेश की थी। उसकी आंखें भर आईं, लेकिन उसने खुद को संभाला और बगीचे की ओर बढ़ गई। वहां उसने सूखी पत्तियां साफ कीं और पौधों को पानी दिया।
इसी बीच नितिश बाबू सैर से लौट आए। निशा ने चाय बनाने के लिए रसोई का रुख किया। चाय चढ़ाते हुए उसका मन फिर से पुराने दिनों की ओर चला गया। निलेश, जो महज अठारह साल का था, पढ़ाई में अव्वल और बेहद होनहार था। वह दिन जब पिकनिक पर जाते वक्त गाड़ी चलाते हुए उसने नियंत्रण खो दिया था, उनकी जिंदगी का सबसे दर्दनाक दिन बन गया। गाड़ी के पेड़ से टकराने के बाद, अस्पताल में तमाम कोशिशों के बावजूद निलेश को नहीं बचाया जा सका।
उस दिन के बाद से निशा और नितिश की जिंदगी में सन्नाटा छा गया। उन्होंने निलेश के अंगों का दान कर दिया था, लेकिन बेटे के जाने का खालीपन हर वक्त उनके साथ था।
तभी चाय उफनने की आवाज ने निशा की तंद्रा तोड़ी। उसने जल्दी से चाय छानी और लान में बैठे नितिश बाबू के पास ले गई।
“इतना बड़ा मकान… और अब बस हम दोनों,” नितिश बाबू ने उदासी से कहा।
“सोचा था, निलेश की शादी के बाद घर में चहल-पहल होगी। लेकिन अब…” निशा ने भारी मन से जवाब दिया।
“क्यों न ऊपर का हिस्सा किराए पर दे दें?” नितिश बाबू ने सुझाव दिया।
निशा ने हैरानी से पूछा, “किराए पर?”
“हां, कम से कम घर में कुछ रौनक तो होगी। और अगर हमें कहीं बाहर जाना पड़े, तो घर खाली नहीं रहेगा।”
उसी वक्त गेट पर आवाज हुई। **सुनील वर्मा**, करीब 35 साल का एक शख्स, गेट से अंदर आता दिखाई दिया। उसने विनम्रता से नमस्ते करते हुए कहा, “मैं सुनील वर्मा। मैं आपका मकान किराए पर लेना चाहता हूं।”
कुछ शर्तों के बाद सुनील ने मकान किराए पर ले लिया। वह अपनी पत्नी शालू के साथ रहने आया। धीरे-धीरे घर में रौनक लौटने लगी। सुनील और शालू निशा और नितिश का बहुत ख्याल रखते थे।
एक दिन निशा की तबीयत अचानक बिगड़ गई। नितिश शहर से बाहर थे। सुनील ने रात-दिन उनकी सेवा की। बर्फ की पट्टियां, दवाइयां – हर चीज़ का ध्यान रखा।
शालू ने सुनील से पूछा, “तुम्हें इनसे इतना लगाव क्यों है? और इतना दूर मकान क्यों लिया?”
सुनील ने गहरी सांस ली और जवाब दिया, **”क्योंकि ये मेरी मां हैं।”**
शालू चौंक गई। सुनील ने बताया, “जब निलेश का एक्सीडेंट हुआ था, तब उन्होंने अपने बेटे के अंग दान कर दिए थे। उन्हीं में से एक किडनी मेरे शरीर में प्रत्यारोपित हुई। मैं आज जो भी हूं, उन्हीं की वजह से हूं। इसलिए मैंने यह मकान किराए पर लिया, ताकि उनकी सेवा कर सकूं।”
यह सुनकर शालू की आंखों में आंसू आ गए। निशा ने अपने बेटे को खोकर एक अनमोल रिश्ता पा लिया था – एक ऐसा बेटा, जो खून का नहीं, पर दिल का जुड़ा हुआ था। यह रिश्ता अनोखा था, जिसमें सेवा और सम्मान की भावना थी।
**मां और बेटे का यह बंधन खून से नहीं, बलिदान और आभार से बना था।**
हिंदी कहानी फेसबुक वॉल से साभार

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