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संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना, आध्यात्मिक विरासत और बौद्धिक संपदा की आधारशिला है। यह न केवल वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों और शास्त्रों की संवाहक रही है, बल्कि यह भारत की समस्त ज्ञान-परंपरा की जननी भी है। संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द विज्ञान, दर्शन, कला, चिकित्सा, गणित और साहित्य के गहनतम रहस्यों को समाहित किए हुए है। ऐसे में संसद में डीएमके सांसद दयानिधि मारन द्वारा संस्कृत के प्रति दी गई अपमानजनक टिप्पणी अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और यह भारत की भाषाई अस्मिता पर सीधा आघात है।
संस्कृत का योगदान और उसका वर्तमान परिप्रेक्ष्य
संस्कृत भाषा केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि यह एक जीवंत और प्रासंगिक भाषा है, जो आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भी अपना स्थान बना रही है। संस्कृत में निहित सूत्रबद्धता और संरचनात्मक स्पष्टता इसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), कंप्यूटर प्रोग्रामिंग और भाषा विज्ञान के लिए अत्यंत उपयुक्त बनाती है। नासा और अन्य अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों में संस्कृत भाषा पर व्यापक अनुसंधान हो रहे हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत का वैज्ञानिक उपयोग भविष्य में और अधिक बढ़ेगा।
संस्कृत ने भारतीय गणित, आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, योग, न्यायशास्त्र, खगोलशास्त्र और व्याकरण में जो योगदान दिया है, वह विश्व पटल पर अद्वितीय है। आर्यभट्ट, चरक, सुश्रुत, पतंजलि, भास्कराचार्य, कणाद, पाणिनि और जैमिनि जैसे महान आचार्यों ने इसी भाषा में अपने विचारों को अभिव्यक्त किया, जिनका प्रभाव न केवल भारत में, बल्कि संपूर्ण विश्व में देखा गया।
इसलिए, संस्कृत का विरोध करना केवल एक भाषा का विरोध नहीं, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान और समग्र विकास की संभावनाओं का विरोध है।
लोकसभा में संस्कृत के सम्मान की पहल
संस्कृत भाषा को लेकर संसद में जो विवाद उत्पन्न हुआ, उसका एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला जी ने संसद की कार्यवाही को संस्कृत सहित छह अन्य भाषाओं में अनुवादित करने की जो पहल की, वह ऐतिहासिक है। यह निर्णय भारत की भाषाई समावेशिता और लोकतांत्रिक मूल्यों को और अधिक सशक्त बनाता है।
किन्तु, इस सकारात्मक पहल का कुछ राजनेताओं द्वारा विरोध किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। सांसद दयानिधि मारन द्वारा संस्कृत के प्रति दिए गए अपमानजनक बयान से यह स्पष्ट होता है कि वे भारत की सांस्कृतिक धरोहर और भाषाई अस्मिता को नहीं समझते। यह बयान न केवल संस्कृत भाषा का अपमान है, बल्कि यह भारतीय ज्ञान-परंपरा, संस्कृति और गौरव का भी अवमूल्यन करता है।
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय का रुख
हमारा विश्वविद्यालय, माननीय कुलपति आचार्य प्रहलाद रा जोशी जी के नेतृत्व में, इस अनुचित टिप्पणी का कठोर विरोध करता है और केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय (सीएसयू) द्वारा घोषित देशव्यापी आंदोलन का पूर्ण समर्थन करता है।
हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि—
यदि सांसद दयानिधि मारन अपनी टिप्पणी के लिए संसद में सार्वजनिक रूप से क्षमा नहीं मांगते, तो इस विरोध को और व्यापक किया जाएगा।
हमारा विश्वविद्यालय भी इस विरोध में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करेगा।
संस्कृत भाषा की अस्मिता को बनाए रखने के लिए हर आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।
संस्कृत विरोध क्यों और किसके लिए?
यह प्रश्न विचारणीय है कि आखिर संस्कृत का विरोध क्यों किया जाता है? यह भाषा किसी समुदाय, जाति या संप्रदाय विशेष की भाषा नहीं, बल्कि यह संपूर्ण भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। आज जब विभिन्न विश्वविद्यालयों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में संस्कृत पर शोध हो रहे हैं, जब दुनिया भर के लोग संस्कृत को एक वैज्ञानिक भाषा के रूप में अपना रहे हैं, तब अपने ही देश में इस भाषा का विरोध केवल राजनीतिक लाभ और वैचारिक पूर्वाग्रहों के कारण किया जा रहा है।
संस्कृत भाषा का विरोध करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि भारत की सभी भाषाओं की जड़ें संस्कृत में ही हैं। तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, हिंदी, बंगाली, मराठी, उड़िया जैसी अनेक भाषाओं का व्याकरण और शब्द-संपदा संस्कृत से ही उपजी है। संस्कृत को अस्वीकार करना भारतीय भाषाई विरासत को अस्वीकार करने के समान है।
संस्कृत भाषा: राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान
संस्कृत भाषा केवल साहित्य और धर्म की भाषा नहीं, बल्कि यह भारतीय राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की धुरी है। जब हम संस्कृत का समर्थन करते हैं, तो हम केवल एक भाषा की नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय अस्मिता की रक्षा कर रहे होते हैं।
संस्कृत की रक्षा करने का अर्थ है—
1. भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा को संरक्षित करना।
2. भारतीय भाषाओं की मूलभूत जड़ों को मजबूत बनाना।
3. भारतीय संस्कृति, योग, आयुर्वेद और शास्त्रीय परंपराओं को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाना।
4. आधुनिक विज्ञान, गणित, चिकित्सा और भाषा विज्ञान में संस्कृत के योगदान को और अधिक सशक्त बनाना।
संस्कृत रक्षा: राष्ट्रीय दायित्व
संस्कृत भाषा पर किसी भी प्रकार की अवमानना न केवल एक भाषा पर आघात है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, इतिहास और ज्ञान-परंपरा पर भी कुठाराघात है। हम इसे किसी भी स्थिति में सहन नहीं करेंगे। संस्कृत हमारी अस्मिता है, और इसकी रक्षा के लिए हर आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।
संस्कृत भाषा के संरक्षण और प्रचार-प्रसार की यह लड़ाई केवल विश्वविद्यालयों और विद्वानों की नहीं, अपितु प्रत्येक भारतीय नागरिक की भी है, जिसे अपनी जड़ों पर गर्व है।
संस्कृत रक्षा आंदोलन में हमारी भूमिका
संस्कृत भाषा की रक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए विश्वविद्यालय स्तर पर विशेष जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएंगे।
विद्यार्थियों, विद्वानों और शोधकर्ताओं को इस आंदोलन से जोड़ा जाएगा।
संस्कृत भाषा की महत्ता पर राष्ट्रीय स्तर के संवाद, व्याख्यान और परिसंवाद आयोजित किए जाएंगे।
संस्कृत प्रेमियों और भारतीय नागरिकों से अपील की जाएगी कि वे इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लें।
संस्कृत विरोध केवल एक भाषा का विरोध नहीं, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, परंपरा और गौरवशाली इतिहास का भी विरोध है। सांसद दयानिधि मारन को इस अपमानजनक टिप्पणी के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है, तो कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए इस विरोध को और अधिक व्यापक बनाएगा।
संस्कृत हमारी अस्मिता है, इसे किसी भी प्रकार से अपमानित नहीं होने देंगे।
संस्कृतस्य संरक्षणं राष्ट्रस्य उत्थानाय।
डॉ. रणजीत कुमार तिवारी
सहाचार्य एवं विभागाध्यक्ष, सर्वदर्शन विभाग,
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय




















