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डॉ. रणजीत कुमार तिवारी
सहाचार्य एवं अध्यक्ष,
सर्वदर्शन विभाग,
कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं पुरातनाध्ययन विश्वविद्यालय, नलबारी, असम
प्रस्तावना
भारतीय परंपरा में आदर्श राज्य-व्यवस्था का स्वरूप सदैव से चिंतन और साधना का विषय रहा है। जब सम्राटों की पराकाष्ठा, धर्म का उत्कर्ष और प्रजाजन की समृद्धि एक ही केंद्र पर संगम करते हैं, तब ‘रामराज्य’ की कल्पना केवल एक राजनीतिक आदर्श नहीं रह जाती, वरन् जीवन के समग्र उत्थान की प्रेरणा बन जाती है। यह केवल कोई ऐतिहासिक आख्यान नहीं, बल्कि भारतीय चेतना में गहराई तक रचा-बसा वह आध्यात्मिक और नैतिक आदर्श है, जिसमें नीतिनिष्ठ शासन, सामाजिक समरसता और आत्मिक अनुशासन की त्रिवेणी बहती है।
रामराज्य वह व्यवस्था है, जहाँ राज्य का केंद्रबिंदु सत्ता नहीं, सेवा होती है; जहाँ राजा का मूल्यांकन उसके बल या वैभव से नहीं, अपितु उसकी न्यायप्रियता, त्यागशीलता और धर्मनिष्ठा के आधार पर होता है। यह राज्यतंत्र नागरिक को मात्र शासन का अधीनस्थ नहीं, बल्कि धर्म, कर्तव्य और करुणा का सजीव प्रतीक मानता है। श्रीराम का शासन एक ऐसे राजपुरुष की परिकल्पना प्रस्तुत करता है, जो अपने प्रत्येक कार्य में लोकमंगल को सर्वोपरि रखता है, जो आत्महित का त्याग कर समाजहित को अपनाता है।
यह आदर्श शासन-रूप श्रीराम के चरित्र एवं उनके व्यवहार में प्रत्यक्ष झलकता है। रामराज्य का अर्थ है—ऐसी शासन-व्यवस्था, जिसमें राजा धर्म का मूर्त रूप हो, प्रजा धर्म और नीति से संयुक्त हो, और समाज में न्याय, समता एवं करुणा का सतत प्रवाह बना रहे। इस आदर्श की पुनः स्थापना तभी संभव है, जब हम राजतंत्र के मूल में निहित उस आध्यात्मिक तत्व को गहराई से समझें और उसे अपने जीवन में आत्मसात करें।
रामराज्य न किसी कल्पना का पर्याय है, न किसी युग विशेष का विधान—यह भारतीय मनीषा द्वारा प्रतिपादित वह शाश्वत सत्य है, जो न केवल आज भी प्रासंगिक है, अपितु आने वाले युगों के लिए भी पथप्रदर्शक रहेगा।
राम का स्वरूप : आदर्श शासक का आदर्श प्रतिरूप – वाल्मीकि रामायण के प्रारम्भ में ही महर्षि वाल्मीकि द्वारा पूछा गया प्रश्न—”कोऽन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान्…”—के उत्तर में नारदजी श्रीराम के जिन गुणों का वर्णन करते हैं, वे आदर्श शासक के पूर्ण लक्षण हैं। वे धर्मनिष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, नीतिज्ञ, समदर्शी, प्रजावत्सल और परोपकारी हैं। ये गुण उन्हें सामान्य नायक से पृथक् कर उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ के पद पर प्रतिष्ठित करते हैं।
श्रीराम का जीवन एक ऐसे आदर्श शासक की जीवंत प्रतिमा प्रस्तुत करता है, जो स्वयं को सत्ताधारी नहीं, बल्कि सेवक मानता है। उनका चरित्र यह दर्शाता है कि शासन केवल प्रशासनिक कुशलता से नहीं चलता, अपितु आत्मसंयम, सहिष्णुता और न्याय की भावना से पोषित होता है। उनके द्वारा राजधर्म की परिभाषा केवल राजनीतिक दायित्वों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह धर्म, करुणा और नैतिकता के समन्वय से संपूर्ण मानवता के कल्याण की ओर उन्मुख रहती है।
सीता के परित्याग से लेकर अग्निपरीक्षा तक, राम का हर निर्णय निजी सुख के विरुद्ध, परंतु लोकहित के पक्ष में होता है। यही वह भावभूमि है, जहाँ से आदर्श शासन की संकल्पना जन्म लेती है। वह शासक ही क्या, जो केवल सुख-सुविधाओं का उपभोग करे? सच्चा शासक वह है, जो जनता के दु:ख में दु:खी हो, उनके हित में स्वयं के अहं और अधिकारों का भी त्याग कर दे। श्रीराम इसी महान संकल्प के प्रतीक हैं। इस प्रकार, राम का स्वरूप न केवल एक पौराणिक नायक की छवि है, बल्कि वह भारतीय राज्य-चिंतन की रीढ़ है—एक ऐसा शासक, जो स्वयं को नहीं, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र को सर्वोपरि मानता है।
रामराज्य : शासन का आध्यात्मिक आयाम – गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं— “दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज्य काहू न व्यापा॥” अर्थात् रामराज्य में न तो दैहिक (शारीरिक), न दैविक (प्राकृतिक) और न ही भौतिक (आर्थिक) ताप किसी को व्याप्त होता है। यह शासन-व्यवस्था केवल बाह्य नियंत्रण या विधिक अनुशासन पर आधारित नहीं होती, बल्कि यह आंतरिक शुचिता, आत्मनियंत्रण और धर्म की चेतना पर आधारित होती है। रामराज्य की मूल आत्मा ‘धर्म’ है—ऐसा धर्म जो केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि न्याय, करूणा और समत्व के व्यवहारिक स्वरूप में परिणत होता है।
रामराज्य में राजा केवल एक प्रशासक नहीं, बल्कि धर्म का मूर्तिमान प्रतिनिधि होता है, जो स्वयं मर्यादा का पालन करता हुआ दूसरों को भी मर्यादित जीवन की ओर प्रेरित करता है। यहाँ शासन सत्ता का नहीं, सेवा का माध्यम होता है; और प्रजा केवल करदाता या अनुयायी नहीं, बल्कि राज्य की आत्मा होती है।
इस आदर्श में न कोई वर्ग विशेष का प्रभुत्व होता है, न ही किसी मत या जाति का पक्षपात। सभी नागरिकों को समान अधिकार, न्याय और अवसर प्राप्त होते हैं। आर्थिक संसाधनों का वितरण इस प्रकार होता है कि कोई अत्यधिक अमीर या अत्यधिक गरीब न हो—समता, संतुलन और सहयोग इस शासन के आधारस्तंभ होते हैं। इस प्रकार, रामराज्य केवल एक ऐतिहासिक या पौराणिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक ऐसी शासन-दृष्टि है जो आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी आध्यात्मिक आधार और नैतिक दिशा दे सकती है।
नीतिशास्त्र, मनुस्मृति, और कौटिल्य का समर्थन – नीतिशास्त्र में शुक्राचार्य, मनुस्मृति में मनु, और अर्थशास्त्र में कौटिल्य– सभी ने आदर्श राज्य की स्थापना हेतु राजा के धर्मपालन पर बल दिया है। मनु कहते हैं – राजा को इन्द्र के समान तेजस्वी, यम के समान न्यायप्रिय और अग्नि के समान दुष्टविनाशक होना चाहिए। कौटिल्य का विचार है कि राजा के आचरण से ही प्रजा का स्वरूप निर्मित होता है। अतः राज्य की समृद्धि का केंद्रबिंदु राजा की नीतिपूर्ण नेतृत्वशैली है।
प्रजा की भूमिका : रामराज्य की नींव – रामराज्य केवल शासन प्रणाली नहीं, वह समस्त राष्ट्र के नैतिक और आध्यात्मिक जीवन का चरमोत्कर्ष है। प्रजाजनों को भी धर्म, संयम, सत्य, राष्ट्रप्रेम और परोपकार के मार्ग पर चलना होता है। रामायण में वर्णित प्रजाजन ऐसे थे, जो सत्यवादी, धर्मपरायण, संयमी, दीर्घदर्शी, और राष्ट्रहितचिन्तक थे।
गांधी जी की अवधारणा : आधुनिक युग में रामराज्य – महात्मा गांधी ने रामराज्य को केवल एक धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि स्वतंत्र भारत के नैतिक, सामाजिक, और राजनीतिक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। उनका समाजवाद आध्यात्मिक था, जिसमें सत्य और अहिंसा ही राजनीति की मूलधारा थी। गांधीजी कहते थे—
“मेरा रामराज्य ऐसा होगा जिसमें दरिद्र से दरिद्र भी न्याय पा सकेगा।”
उनका अंतिम शब्द ‘हे राम’ केवल एक पुकार नहीं, बल्कि उस आदर्श का प्रतीक था, जिसके लिए उन्होंने जीवन भर तप किया।
भारतीय संस्कृति में राज्य और धर्म का सम्बन्ध – भारतीय परंपरा में राज्य को धर्म के अधीन माना गया है। धर्म अर्थात् जीवनपद्धति, वह नियमसंहिता है जो राज्य को सदाचरण की दिशा देती है। शान्तिपर्व एवं अर्थशास्त्र में यह स्वीकार किया गया है कि राज्य का उद्देश्य न केवल भौतिक उन्नति है, वरन् आत्मिक एवं नैतिक विकास हेतु भी उसका उत्तरदायित्व है।
आधुनिक भारत के लिए रामराज्य की प्रासंगिकता – आज का भारत सामाजिक विषमताओं, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिक तनाव, नैतिक पतन और भौतिकवाद की चकाचौंध में अपने मूल सांस्कृतिक मूल्यों से विमुख होता जा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अधिकारों की चर्चा अधिक है, किंतु कर्तव्यों की उपेक्षा बढ़ती जा रही है। ऐसे वातावरण में ‘रामराज्य’ की संकल्पना केवल एक कल्पनात्मक आदर्श नहीं, बल्कि राष्ट्र की नैतिक एवं सांस्कृतिक पुनर्रचना का जाग्रत आह्वान है।
रामराज्य का मूल तत्व है—धर्मपरक जीवनशैली, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हो और समाज के प्रति अपनी उत्तरदायित्व-बोध को समझे। आज आवश्यकता है कि हम राम के चरित्र को केवल पूजन-प्रतिमान के रूप में न देखें, बल्कि उन्हें व्यवहार का मानदंड बनाएं। जब नागरिक अपने स्वधर्म, समाजधर्म और राष्ट्रधर्म का ईमानदारी से पालन करेंगे, तभी सच्चे अर्थों में रामराज्य की पुन: स्थापना संभव होगी।
श्रीराम का आदर्श शासन हमें यह सिखाता है कि शक्ति और अधिकार के साथ करुणा और सेवा का समन्वय आवश्यक है। यदि भारत को एक न्यायपूर्ण, समरस और संतुलित राष्ट्र बनाना है, तो ‘रामराज्य’ की भावना को आधुनिक संदर्भों में पुनर्स्थापित करना ही होगा।
उपसंहार – रामराज्य कोई दंतकथा अथवा काल्पनिक स्वप्न नहीं, अपितु भारतीय जीवनदृष्टि का शाश्वत सत्य है—एक ऐसा आदर्श जिसकी जड़ें मानवता की आत्मा में और शाखाएँ धर्म, न्याय, करुणा एवं समत्व में फैली हुई हैं। इसकी प्राप्ति किसी चमत्कारी उपाय से नहीं, वरन् आचरण की पवित्रता, तप की स्थिरता, त्याग की निर्मलता और विश्वास की गहराई से होती है। जिस दिन सम्पूर्ण राष्ट्र स्वार्थ, विभाजन और अनीति की संकीर्णताओं को त्यागकर, एकात्म भाव से दिव्य सत्ता की शरण में इस प्रकार समर्पित होगा—
“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥”(भगवद्गीता – अध्याय 9, श्लोक 22)
— उस दिन रामराज्य का पुनरागमन होगा, न केवल शासनतंत्र में, वरन् जनमानस की चेतना में। यह श्लोक केवल दार्शनिक वचन नहीं, बल्कि एक ऐसा आश्वासन है जो उस आदर्श राज्य की नींव रखता है, जहाँ भगवान स्वयं जनकल्याण के उत्तरदायित्व को वहन करते हैं। वहाँ राजा केवल सिंहासनारूढ़ व्यक्ति नहीं, धर्म का प्रतीक होता है; प्रजा केवल शासन की विषयवस्तु नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा होती है। तुलसीदासजी द्वारा वर्णित रामराज्य की छवि आज भी भारतीय लोकमानस की आदर्श कल्पना है—
“दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहि परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति॥” (रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड)
यह चित्रण केवल भौतिक सुख-सुविधाओं का नहीं, अपितु धार्मिक अनुशासन, सामाजिक समरसता और आन्तरिक शांति की उच्चतम स्थिति का वर्णन है। जहाँ कोई भय नहीं, कोई भेद नहीं, केवल धर्म और करुणा का साम्राज्य है।
रामराज्य वह है— जहाँ शासक न्याय में निष्पक्ष हो, जहाँ नीति हो शासन की आत्मा, जहाँ समाज हो समरसता का दर्पण और जहाँ प्रत्येक नागरिक हो धर्म और कर्तव्य के प्रति सजग। यही है भारतीय शासन विज्ञान का रहस्य—एक ऐसा राज्यतंत्र जो धर्म में रमा हुआ हो, न्याय से पुष्ट हो, करुणा से भीगा हो और समता से मंडित हो। यह न केवल भारत का स्वप्न है, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए एक कालातीत संदेश है कि आदर्श राज्य की स्थापना बाहर नहीं, मनुष्य के भीतर से प्रारम्भ होती है।
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