कवि सम्मेलन बनाम फूहड़पन व चुटकुलेबाज़ीतालियाँ पीटना और पिटवाना ये दोनों ही बातें तथाकथित कवि-सम्मेलनों के लिए ज़रूरी मानी जाती हैं। और ये हास्य कवि-सम्मेलन और हास्य कवि? ये भी अनोखे जीव
होते हैं। हँसते-हँसाते न जाने कब गंभीर हो जाएँ और न जाने कब कूदकर राष्ट्रप्रेम की ट्रेन पर सवार हो जाएँ और कब ये नैतिकता पर प्रवचन करना आरंभ कर दें पता ही नहीं चलता। हँसते-हँसते सांस्कृतिक अस्मिता की चारपाई पर चढ़ना इनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं। लेकिन श्रोताओं को भी दाद देनी पड़ेगी। वे भी तालियों में कमी नहीं आने देते और हर हाल में कवियों का उत्साहवर्धन करते रहते हैं। कई बार मजबूरी भी होती है। कई कवि डरा-धमकाकर भी तालियाँ बजवाने का जुगाड़ कर लेते हैं। एक साहब तो कविता शुरू करने से पहले ही कह देते हैं कि जिन्होंने उनकी कविताओं पर तालियाँ नहीं बजाईं या कम बजाईं उनका अगला जन्म उस योनि में होगा जिसमें तालियाँ बजाने का काम करना पड़ता है। उनके इस अद्वितीय अनुभवजन्य ज्ञान पर ईर्ष्या होना अस्वाभाविक नहीं। कवियों की ऐसी भविष्यवाणियों से श्रोता डर ज़रूर जाते हैं पर इस बात पर भी ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ पीटते हैं और जब तक ये गब्बर रूपी कवि महाशय माइक नहीं छोड़ते शोले में बसंती के थिरकते हुए पैरों की तरह इनके श्रोताओं के हाथों का नर्तन भी थमता। अब कौन छोटी सी-बात के लिए अगले जन्म में इतना बड़ा रिस्क ले। वैसे कविता की बजाय चुटकुले पर ताली पीटने में भी कम रिस्क नहीं। जो अगले जन्म में बनना होता है या नहीं बनना होता है इस जन्म में ज़रूर बन जाते हैं। कई हास्य कवि जो थोड़े एक्यूपंक्चरिस्ट टाइप के होते हैं वो कविता शुरू करने से पहले तालियाँ बजाने के लाभ गिनवाकर अपनी तालियाँ पक्की कर लेते हैं। कई कवि बार-बार लानत भेजकर श्रोताओं से तालियाँ बजवाने का जुगाड़ करते हैं। कई कवि मंच और माँ सरस्वती को इतने अधिक आदर व सम्मान से नमन करते हैं कि श्रोता अपने आपको दीन-हीन, अकिंचन, अविवेकी और न जाने क्या-क्या समझने लगते हैं और वे जब तक अपनी इस हीनावस्था से उबरते हैं कवि अपना काम निकालने में सफल हो जाते हैं।
कुछ समझदार क़िस्म के कविगण श्रोताओं से आशीर्वाद माँग कर अपना कविकर्म प्रारंभ करते हैं। ऐसे विनम्र कवि को श्रोता अपना आशीर्वाद न दें तो क्या करें? श्रोता उनकी विनम्रता पर ही मुग्ध होकर ताली पीटने लग पड़ते हैं। वैसे कहकर ताली बजवाना कुछ जँचता नहीं। मज़ा तो तब है जब आपकी कविता श्रोताओं को ताली बजाने के लिए विवश कर दे। अब कविता में दम न हो तो बेचारे कवियों का क्या श्रोताओं से तालियों बजवाने का भी हक़ नहीं रहा? एक बात और। क्या हर कविता ताली बजाने के लिए ही होती है? कोई हमसे कहे कि आप बहुत अच्छे हैं तो धन्यवाद कहना बनता है लेकिन यदि कोई हमसे कहे कि आप बहुत घटिया क़िस्म के आदमी हैं तो क्या इस पर भी धन्यवाद देना बनता है? शायद नहीं। यहाँ अपना स्वयं का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है न कि अपना घटियापन प्रदर्शित करने की। कुछ कविताएँ हँसाने के लिए नहीं रुलाने के लिए होती हैं। हम हैं कि फिर भी ताली पीटे जा रहे हैं। ये क्या सिद्ध करता है? एक बार दिल्ली से बाहर की एक कवयित्री महोदया का संदेश आया। लिखा था कि आप दिल्ली में रहते हैं और दिल्ली में आए दिन अच्छे-अच्छे कार्यक्रम और कवि सम्मेलन होते रहते हैं। कभी हमें भी मौका दिलवाइएगा। हाँ, यहाँ अच्छे-अच्छे कार्यक्रम और कवि सम्मेलन होते रहते हैं लेकिन कितने? उँगलियों पर गिनाने लायक भी नहीं। काश मैं उन्हें वास्तविकता से अवगत करा सकता! काश मैं उन्हें बता सकता कि अब कवि सम्मेलनों के नाम पर फूहड़पन परोसा जाता है। कविता नहीं चुटकुलेबाज़ी कवि सम्मेलनों की जान हो गई है। कई कवि सम्मेलन पूरी तरह से दलालों के हाथ में चले गए हैं। कई हास्य कवि बड़े ठेकेदार बन बैठे हैं। कुछ स्वयंभू राष्ट्रीय स्तर के कवि- कवयित्रियाँ चार-चार पंक्तियों की मात्र दो-चार तुकबंदियों के दम पर घंटों लोगों को मूर्ख बनाने की कला में पारंगत हैं। कुछ कवि अपने चुटकुलेपाठ के दौरान दूसरे अच्छे शायरों की रचनाओं को भी इस अंदाज़ में पेश करने में पारंगत हैं जैसे वे उनकी स्वयं की रचनाएँ हों। एक बड़े नाम और बड़ी पहुँच वाले कवि महाशय मात्र चार पंक्तियों का एक बंद सुनाने में कम से कम एक घंटा लेते हैं। बंद की एक पंक्ति सुनाने के बाद कम से कम बारह चुटकुले सुनाएँगे और चुटकुलों के बाद फिर उसी पंक्ति की पुनरावृत्ति। उसके बाद कुछ और चुटकुले व तथाकथित अच्छे श्रोताओं की छद्म प्रशंसा तथा चापलूसी और फिर पंक्ति की पुनरावृत्ति। फिर थोड़ी दूसरों की प्रशंसा और बहुत-सी आत्म-प्रशंसा और फिर उसी पंक्ति की पुनरावृत्ति। ये शृंखला कभी विशृंखलित नहीं होती। उनका अधिकांश समय चुटकुलेबाज़ी और साथ की कवयित्रियों पर कमेंट करने में गुज़रता है और माफ कीजिए घटिया ऑडियंस को इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए। एक ही बंद को हज़ार बार सुनाना कहाँ तक ठीक है? आप कहेंगे लोगों की डिमांड है। तो आपने लोगों की डिमांड पूरा करने का ठेका ले लिया है। बहुत ख़ूब! हास्य कवि सम्मेलनों में काव्य के नाम पर महिलाओं पर जो छींटाकशी की जाती है और कवितापाठ के लिए आई कवयित्रियों से जैसे चुहलबाज़ी व शाब्दिक छेड़छाड़ की जाती है उसे प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए तो सहन करना भी संभव नहीं। यही कारण है कि कविता के वास्तविक श्रोता कवि सम्मेलनों से किनारा कर चुके हैं। जितने भी मंचीय कवि हैं उनमें से बहुत बड़ी संख्या में लंपट क़िस्म के लोग हैं जो संपूर्ण नारी जाति को अपनी जागीर समझते हैं। उन पर भद्दे चुटकुले और तुकबंदियाँ सुनाते हैं। कवितापाठ के आई कवयित्रियों पर फबतियाँ कसी जाती हैं। द्विअर्थी अश्लील संवादों की बौछार होती रहती है। हर मर्यादा को तोड़ डालने की बेहयाई साफ झलकती रहती है। किसी भी पर महिलाओं के प्रति ऐसा आचरण उचित नहीं माना जा सकता। ये मैं नहीं कहता उनका प्रदर्शन कहता है। उनके चुटकुले, तुकबंदियाँ और नोकझोंक इसे स्पष्ट करते हैं। श्रोता इस माहौल में रस से सराबोर हो निहाल हो जाते हैं। अधिकांश आयोजकों का मक़सद यही तो होता है। कई कवयित्रियाँ भी हैं जो सस्ती लोकप्रियता के लोभ में सीमाओं का अतिक्रमण करने से नहीं चूकतीं। छोटे-छोटे क़स्बों तक में विभिन्न अवसरों पर लोग उन्हें बुलवाते हैं और उनके लटके-झटकों और नोक-झोंक से इस तरह आनंदित होते हैं मानो मुजरा या कैबरे देख रहे हों। यक़ीन न हो तो यू ट्यूब देख लीजिए। ऐसे वाहियात क़िस्म के असंख्य वीडियो यू ट्यूब पर देखे जा सकते हैं। वैसे ऐसे लोग भी हैं जो किसी भी महिला को जिसने केवल दो-चार बंद लिखे हों अंतरराष्ट्रीय स्तर की कवयित्री बनवा सकते हैं और पूरे विश्व में उसका कविता पाठ करवा सकते हैं। दो-चार बंद न भी लिखे हों तो उनका भी प्रबंध करवा देंगे। ऐसे में अच्छी कविता और सार्थक कवि सम्मेलनों अथवा मुशायरों के लिए क्या सचमुच कोई संभावना हो सकती है?
सीताराम गुप्ता,
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