“सब अभिनय में व्यस्त हैं,
इधर हिंदू हो रहे हैं बेघर।”
मुर्शिदाबाद कभी नवाबी राजधानी हुआ करता था। आज भी इस ज़िले की धरती पर इतिहास चलता है। लेकिन आज इतिहास बनाने की राह में इंसान नहीं—राजनीति मुख्य कारण बनती जा रही है। एक छोटी सी उकसावे की घटना से पूरा ज़िला, यहाँ तक कि पूरा राज्य खतरे के दायरे में आ गया। इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? राजनीति, प्रशासन, समाज—या हम सभी?
असल में हुआ क्या था?
खबरों के मुताबिक, 1 अप्रैल 2025 को मुर्शिदाबाद के एक गाँव में एक रैली को लेकर अचानक तनाव फैल गया। अगले दिन यानी 2 अप्रैल को, दोनों पक्षों की तरफ से थाने में एफआईआर दर्ज की गई। रातभर पुलिस छापेमारी करती रही, कुछ घरों में तलाशी हुई; और इससे ही विरोध शुरू हुआ।
सबसे डरावना दिन था 4 अप्रैल, जब सुबह-सुबह कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर फैल गए, जिससे हालात और बिगड़ गए। उसके तुरंत बाद राजनीतिक दलों की मैदान में एंट्री हुई—बयानबाज़ी शुरू हुई, मीडिया ने मसाला बनाया। प्रशासन ने कुछ इलाकों में धारा 144 लागू कर दी और स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए।
इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि गृहयुद्ध जैसी स्थिति कितनी ताक़तवर शक्ल ले रही है! एक के बाद एक घटनाएँ घटती गईं। ऐसे में आख़िरी उम्मीद होती है चुनी हुई सरकार या वो लोग जो खुद को जनता का सेवक कहते हैं।
लेकिन हैरानी की बात ये है कि वही संगठन, राजनीतिक पार्टियाँ और सामाजिक संस्थाएँ दर्शक की भूमिका में हैं! यहाँ एक ही बात याद आती है—वाकई सेल्यूकस, क्या अजीब देश है ये और इसके लोग!
घटना पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ—
तृणमूल कांग्रेस कह रही है, “हम सख़्त कदम उठा रहे हैं”—
लेकिन सवाल ये है कि पहले से मिले खुफिया रिपोर्ट्स को गंभीरता से क्यों नहीं लिया गया?
भाजपा बयानबाज़ी में एक कदम आगे है। उनका कहना है, “इस घटना से साबित होता है कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण हो रहा है।” लेकिन समाधान की जगह वे विभाजन को और बढ़ावा दे रहे हैं—ऐसा मानना है कई विश्लेषकों का।
कांग्रेस और वामपंथी—एक कहता है “धार्मिक असहिष्णुता,” दूसरा कहता है “राजनीतिक विफलता।”
शासक पार्टी चाहती है कि इस घटना के ज़रिए उनकी विफलता ढकी रहे। प्रशासनिक नाकामी को छुपाने के लिए उन्होंने “बाहरी तत्व” का तर्क चुना।
भाजपा इस घटना को “हिंदू सुरक्षा” मुद्दे के रूप में इस्तेमाल कर रही है। वे बार-बार कहते हैं, “मुख्यमंत्री अल्पसंख्यक तुष्टिकरण में व्यस्त हैं, हिंदू पिट रहे हैं।”
कांग्रेस थोड़ा मौन रहकर भी इशारों में कह रही है—“इस घटना से साफ़ है कि भाजपा और तृणमूल एक-दूसरे को मज़बूत कर रहे हैं।”
वामपंथी अपने पुराने, घिसे-पिटे रेकॉर्ड की तरह बस कह रहे हैं, “जनता की एकता चाहिए”—
लेकिन उस एकता को बनाने के लिए वो ज़मीन पर मौजूद नहीं हैं।
धार्मिक संगठन क्या कर रहे हैं?
एक-एक कर धर्म आधारित संगठनों ने अपनी स्थिति जाहिर की है—
“हिंदू एक हो,” “हम उत्पीड़ित हैं”—ऐसे नारों से अगले दौर के संघर्ष को और हवा दी जा रही है।
जहाँ राजनीति चुप है, वहीं मौक़ापरस्त ताक़तें चालाकी दिखा रही हैं। दोनों धर्मों की ओर से कुछ कट्टरपंथी संगठनों ने इस घटना को अपनी विचारधारा और दुश्मन की तस्वीर गढ़ने के काम में लगा दिया है। वे चाहते हैं कि तनाव बना रहे, लोगों के मन में डर बना रहे। क्योंकि उनके लिए शांति का मतलब ही है—उनकी हार।
और इन सबके बीच कोई नहीं देख रहा……उन आम लोगों को, जो पीड़ित, उत्पीड़ित, बेघर हो चुके हैं।
मुमिन शेख, एक जुलाहा, हताशा में कहते हैं—
“मैं हिंदू हूँ या मुसलमान, ये सोचने से पहले मुझे देखना होता है कि मेरे काम का ऑर्डर बंद हो गया है। मेरे लिए भूख ही सबसे बड़ा सवाल है।”
गौरांग पाल, एक दुकानदार—
“दंगा हो या राजनीति, टूटती हमारी दुकान है, रुकती हमारे बच्चों की पढ़ाई है।”
उन्होंने कोई पोस्टर नहीं उठाया, कोई झंडा नहीं लहराया। वे बस शांति और राहत की प्रतीक्षा कर रहे थे।
आम लोगों का नुकसान हो रहा है, तो हो! इससे राजनीतिक दलों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा। अगर पड़ता, तो ऐसा कभी होता ही नहीं।
नेता सब अपनी-अपनी चालें खेल रहे हैं—ऐसा लगता है।
और आखिर में सिर्फ एक सवाल पीछा करता है—
इसके लिए ज़िम्मेदार कौन?
राजनीति, प्रशासन, समाज—या हम सभी?
अगर आज इस सवाल का जवाब नहीं मिला,
तो शायद कल सवाल पूछने वाला ही न रहे।
— राजू दास





















