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अनुभव- संवेद अनु

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अनैतिकता अमीरों या शहरों के लोगों में ही होती है ये एक गलत धारणा है। मैंने अपने पिछले 15-16 साल के जीवन में छोटे-छोटे रोजगारों के लिए 10-12 लोगों को अपनी सीमित आय से सहायता राशि (ब्याज रहित ऋण) मुहैय्या करवाई। हालांकि ऐसा करते हुए मैंने ये तय किया था कि ये छोटी रकम (500 से 3 हजार रुपये) वापस मिले तो उसे वापस किसी नए व्यक्ति को दे दूंगा। तथापि जब तक वो मुझसे मिलते रहे, मैं उनसे रकम धीरे-धीरे वापस करने का तकादा करता रहा। ये रकम मैंने अधिकतर अनजान और कुछ पहचान वाले लोगों को दी थी। इस छोटी सहायता से उन लोगों ने झाल-मुढ़ी का टिन तैयार करवाया और झाल-मुढ़ी बनाने का कच्चा माल लेकर झाल-मुढ़ी वेंडर का काम किया, कईयों ने पान-सिगरेट के छोटे स्टॉल सड़कों के किनारे लगवाए, कईयों ने फुटपाथों पर गमछे-रुमाल आदि की अस्थाई दुकानें लगाई।

 

ऐसा नहीं है कि उनमें से सभी के साथ किसी कारण वश पैसे डूब जाने की घटना हुई हो…कईयों ने उन पैसों से अपने व्यवसाय का विस्तार भी किया। कुछ लोगों के साथ सचमुच कोई ऐसी स्थिति आ गई कि उनकी पूंजी घरेलू आपदाओं में खर्च हो गई। लेकिन किसी ने भी अपना कर्ज चुकाने का जज्बा नहीं दिखाया।

 

एक व्यक्ति जिसे मैं अच्छी तरह जानता था और अब भी उसे गाहे-बगाहे मिलना होता है।वो एक वेटर था और अक्सर मैं उस रेस्तरां में जाता था। ये 15 साल पहले की बात है। वो मुझे मामा कहने लगा। वो अक्सर कहता कहीं कोई अच्छा काम लगवा दीजिये। मैं उससे कहता यार मैं खुद एक सामान्य दुकानदार हूँ फिर भी देखूंगा। मुझे पता चला कि वो एक बढ़िया कुक भी है। मैंने उससे कहा कि तुम एक छोले-भटूरे और फ़ास्ट-फ़ूड का अपना ठेला क्यों नहीं लगाते। वो डरता और कहता अगर नहीं ठेला नहीं चला तो घर-खर्च कैसे चलेगा? कई महीनों तक हमारा यही संवाद चलता रहा ,वो हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

 

मुझे एक दुकान भाड़े पर मिल रही थी। मैंने उससे कहा एक दुकान मिल रही है तुम उसमें अपना काम शुरु करो।

जरूरी बर्तन और गैस भट्टी का इंतजाम कर दूंगा। छोले-भटूरे के लिए कच्चे माल की व्यवस्था भी हो जाएगी। अभी तुम्हें जितनी सैलरी मिल रही है, उसमें जितनी कम कमाई हुई वो तुम्हें मैं कुछ महीनों तक व्यवस्था कर दूंगा। मैं जानता था कि जिस जगह वो दुकान थी वहां पहले महीने से ही वो अपनी वर्तमान सैलरी निकाल लेगा।

 

उसने काम शुरू किया। मैंने थोड़ी रकम भी मुहैय्या करवा दी। पहले महीने ही दुकान चल निकली। तीन महीने के बाद उसने मुझे बिना बताए दूसरी बेहतर दुकान भाड़े पर ली और मेरी दिलवाई दुकान की चाबी दुकान मालिक को सौंप कर चला गया। एक आध महीने का भाड़ा भी उसने चुकाया नहीं। मेरे दिलाये कुछ बर्तन भी साथ ले गया। दुकान मालिक ने मुझे बताया कि वो फलानी जगह पर दुकान चला रहा है। मैंने वहां जा कर उसे कहा अब तुम्हारा काम चल पड़ा है, मेरे दिए पैसे धीरे-धीरे चुका दो। टाल-मटोल करता रहा…छह महीने बाद मैंने उससे मांगना छोड़ दिया।

 

आज भी वो मुझे दिखता है गले में सोने की चैन आ गई है, एक पुरानी मारुति भी उसने खरीदी है और उसका बेटा इन दिनों दुकान पर बैठता है।

 

मुझे खुशी है कि वो अब एक सफल दुकानदार है…और मेरे अनुभव में उसने बढ़ोतरी की है कि नियत के मामले में शहरी और ग्रामीण या पैसे वाले और अभाव वाले लोगो के भाव अलग होते हैं।

 

पैसों के लेनदेन के मामले में साफ या मैले लोग हर श्रेणी में हो सकते हैं ,गांव और शहर कहीं भी हो सकते हैं।

-संवेद अनु

 

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