बच्चे हों या बूढ़े, कहानियां सुनना सबको अच्छा लगता है। कहानियां सुनने के अनेक फायदे हैं। मसलन, कहानियाँ जहां एक ओर हमारी कल्पनाशीलता को विकसित करती हैं, वहीं दूसरी ओर कहानियां हमें नए विचार सीखने में भी बहुत मदद करती हैं। ये कहानियां ही होतीं हैं जो हमारी भावनाओं को भी समझने में बहुत ही सहायक व उपयोगी सिद्ध होतीं हैं। इतना ही नहीं , कहानियों से हमें हमारी सनातन संस्कृति, हमारे इतिहास और विभिन्न नैतिक मूल्यों की भी जानकारी मिलती है । सच तो यह है कि नैतिक कहानियाँ बच्चों को अच्छे और बुरे, सही-गलत, नैतिक-अनैतिक के बीच अंतर सिखाती हैं, जिससे वे अपने जीवन में सही निर्णय लेने में सक्षम हो पाते हैं।कहानियों से बच्चों में रचनात्मकता(क्रिएटीविटी) का तो विकास होता ही है, साथ ही साथ इनसे बच्चों का भाषा कौशल का विकास भी होता है। सांस्कृतिक और सामाजिक विकास में भी कहानियां योगदान देतीं हैं। इतना ही नहीं, कहानियाँ बच्चों को समस्याओं को पहचानने और उन्हें हल करने के तरीके सीखने में मदद करती हैं।ध्यान और एकाग्रता बढ़ाने में कहानियां मदद करती हैं, क्योंकि वे कहानी को ध्यान से सुनने और समझने में व्यस्त रहते हैं। कहानियों को सुनने से बच्चों का संज्ञानात्मक विकास (कोगनेटिव डेवलपमेंट) होता है तथा मनोरंजन तो कहानियों से होता ही है, लेकिन आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ( एआइ), इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग साइट्स का जमाना है। आज की संस्कृति मल्टीप्लेक्स और एंड्रॉयड मोबाइल फोन की संस्कृति हो गई है। इस संस्कृति से हमारे बच्चे ‘ब्रेन राट’ का शिकार हो रहे हैं। स्क्रीन टाइम अधिक होने का प्रभाव हमारे बच्चों के मन-मस्तिष्क और शरीर पर पड़ रहा है। बच्चे आज चहारदीवारी में व्यस्त नजर आने लगे हैं और वे पहले की भांति न तो खेल के मैदानों में ही जाना चाहते हैं और न ही घर-परिवार के सदस्यों से आपसी संवाद और बातचीत ही करना चाहते हैं। हम आज इंटरनेट संस्कृति में इतने अधिक रम-बस चुके हैं कि अब पहले की भांति दादा-दादी, नाना-नानी व पारिवारिक सदस्यों से कहानियां नहीं सुनते हैं। आज समय भी नहीं बचा है किसी के पास, कहानियां सुनने-सुनाने का।अब पहले की भांति बच्चे कहानियों में कल्पनाओं की सैर नहीं करते हैं, क्यों कि न तो सुनाने वालों को ही रूचि अब रही है और न ही सुनने वालों को। सच तो यह है कि आज कहानियां सुनने का अंदाज पूरी तरह से बदल चुका है।दादी-नानी के मुंह से निकलकर कहानियां अब पॉडकास्ट तक पहुंच चुकीं हैं। पाठकों को बताता चलूं कि पॉडकास्ट एक डिजिटल ऑडियो कार्यक्रम होता है, जो आमतौर पर श्रृंखला के रूप में होता है और इसे इंटरनेट पर डाउनलोड या स्ट्रीम किया जा सकता है । वास्तव में यह एक लचीला माध्यम है, जिसमें कोई भी किसी भी विषय पर बात कर सकते हैं, अपनी कहानी सुना सकते हैं, या अन्य लोगों के साथ चर्चा कर सकते हैं, लेकिन इसमें वह बात नहीं है जो दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियों में हुआ करती थी। तब बच्चे भावात्मक रूप से अपने पारिवारिक सदस्यों से जुड़ा करते थे, आज डिजिटल माध्यम हो गया है, जो बच्चों पर उतना प्रभाव नहीं छोड़ रहा, जितना प्रभाव (रचनात्मकता, भावात्मक, अभिव्यक्ति, भाषा शैली) आज से 25-30 साल पहले छोड़ता था। हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि आज के समय में कहानियों का जादू बरकरार नहीं है, लेकिन समय के साथ कहानियों के सुनने-सुनाने के तरीकों में अभूतपूर्व बदलाव आ गये हैं। रेडियो का प्रयोग भी अब पहले की तुलना में काफी कम हो गया है, क्यों कि आधुनिक युग में मनोरंजन के अनेक साधनों का विकास हो चुका है। पहले रात के समय बच्चे बड़े चाव से खुले आसमान के बीच प्राकृतिक वातावरण में कहानियां सुना करते थे और उनका मन-मस्तिष्क और शरीर का विकास होता था। आज डिजिटल माध्यम से आंखों की समस्याएं, सिर दर्द, चिड़चिड़ापन की समस्याएं जन्म ले रहीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज के समय में लोककथाएं मोबाइल फोन और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पॉडकास्ट व ऑडियोबुक्स के रूप में चल रही हैं। दरअसल, तकनीक का प्रभाव आज हमारे बच्चों के मन-मस्तिष्क पर पड़ रहा है। आज बड़े-बुजुर्गों द्वारा नहीं बल्कि कहानियों को बच्चों द्वारा इयरफोन, पाडकास्ट, मोबाइल रेडियो आदि पर लगाकर सुना जा रहा हैं। पहले टीवी पर पंचतंत्र, विभिन्न लोककथाएं, जातक कथाएं और वीर रस की गाथाएं सुनने देखने को मिल जातीं थीं, लेकिन आजकल बच्चों को कार्टून, विडियो गेम्स, एंड्रॉयड, इंटरनेट से ही फुर्सत नहीं है। आज के समय में कहानियां ऑडियोबुक्स व पॉडकास्ट ऐप्स की लाइब्रेरी में विभिन्न ऑडिबल प्लेटफॉर्म्स पर मौजूद हैं। आज आंगन भी पहले की तरह खुले नहीं रहे, शहरीकरण और रोजगार के कारण बच्चों के माता-पिता भी आज गांवों से शहरों की ओर रूख करने लगे हैं। सच तो यह है कि आज के समय में गांव-घर के आंगन से बाहर निकलकर कहानियां ऑनलाइन नए अंदाज में सुनी जा रही हैं। नई पीढ़ी भले ही इन्हें पसंद कर रही है, लेकिन इनमें स्वर दादी-नानी, किसी पारिवारिक सदस्यों का नहीं है। ये स्वर किसी पेशेवर वॉयस आर्टिस्ट का ही होता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हर आयु वर्ग के लिए, हर शैली की कहानियां इंटरनेट के कारण एक क्लिक पर उपलब्ध हैं। फिर चाहे वे कोई मोटिवेशनल कहानियां हों, हॉरर स्टोरीज हों या फिर लोककथाएं या वीर रस से ओतप्रोत कहानियां। आज हम सभी कामकाज में फंसे हैं। जीवन आपा-धापी व भागदौड़ भरा हो गया है। हमारी दिनचर्या बहुत ही व्यस्त हो चुकी है। स्कूलों में भी कहानियों का दौर आज खत्म प्रायः सा हो चुका है। पहले के जमाने में शनिवार के दिन बाल सभाएं होतीं थीं, आज नहीं होतीं या बहुत कम ही देखने सुनने को मिलतीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज के इस मौजूदा दौर में बच्चे अपने संस्कृति व संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं।कहां गए वो दिन जब हमें दादी से राजा-रानी की कहानियां, राक्षस की जान पिंजरे में बंद तोते में की कहानियां सुने बिना नींद तक नहीं आती थी। आज संयुक्त परिवार एकल परिवारों में बदलते चले जा रहे हैं और कहानियों का दौर ख़त्म प्रायः सा हो गया है। अंत में यही कहूंगा कि हमें कहानियों की ओर लौटना होगा और हमारी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करनी होगी।
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड।
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