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मुल्क चलो आंदोलन_1921 एक अनकही दास्तान

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भारतीय इतिहास में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध यूँ तो अनगिनत बड़े-छोटे आन्दोलन हुए जिसमें कुछ को इतिहास में जगह मिली और कुछ नींव की ईंट बन कर रह गए।ब्रिटिश शासन के विरुद्ध दक्षिण असम (तत्कालीन सिलेट जिला) के चाय श्रमिकों द्वारा किया गया मुल्क चलो आंदोलन भी उनमें से एक है।यह एक इतना तीव्र और जनसमर्थन प्राप्त आंदोलन था कि इसे कुचलने केलिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जलियांवाला बाग से भी बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया था मगर नियति की परिहास देखिए कि इतिहास के पन्नों में ना तो इस आंदोलन को जगह मिली और ना ही उसके सूत्रधारों को।
दरअसल औपनिवेशिक काल में बंधुआ मजदूरी करवाने केलिए एक एक्ट बनाया गया जिसके तहत श्रमिकों से एक पेपर पर हस्ताक्षर करवाकर एक एग्रीमेंट करवाया जाता था।अधिकांश मजदूर इस “एग्रीमेंट” शब्द का उच्चारण भोजपुरी के तद्भव स्वरूप के लहजे में “गिरमेंट” या “गिरमिट” के तौर पर करते थे।बाद में यही “गिरमिट” शब्द इन मजदूरों की पहचान बनी और वे गिरमिटिया मजदूर कहे जाने लगे।
शुरू-शुरू में असम (ब्रह्मपुत्र घाटी) के चाय बागानों केलिए भारत के दंडकारण्य कहे जाने वाले छोटानागपुर,संथाल परगना,जंगलमहल के कई आदिवासी जातियों को चुना गया था। इसी के साथ भारत के विभिन्न नगरों में स्थापित उद्योगों और मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, टबेगो जैसे देशों में गन्ना,और गेहूं खेतों में काम करवाने केलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग चुने गए।
सन 1826 में यांडाबू संधि होने के बाद सर्वप्रथम सन 1837 में ब्रह्मपुत्र घाटी के चाबुआ में चाय  बागान लगाया गया। जहाँ काम करने केलिए बड़े पैमाने पर जंगल महल और छोटा नागपुर के श्रमिकों को लाया गया।लेकिन उनमें एक कमी थी कि जंगलों में निवास करने के कारण वे लोग खेती-बाड़ी के अनभिज्ञ थे।उन्हें यह सब सीखने में काफी समय लगता था।इसके अलावा इन जातियों की परिवेश और मौसम के अनुरूप ढलने में भी बहुत दिक्कत होती थी।जिसके चलते बड़े पैमाने पर इनकी मृत्यु होने लगी। यही कारण था जब सन 1855 में अविभाजित सुरमा-बराक घाटी में सिलचर के निकट बरसांगन में चाय बागान लगाया गया तब यहाँ चाय श्रमिक के तौर पर उत्तरप्रदेश-बिहार से लोगों को लाया गया।
इतना सहज नहीं था श्रमिकों को यहां लाना।मालगाड़ियों और जहाजों में पशुओं की भांति एक दूसरे के ऊपर भड़कर उन्हें यहां लाया जाता था।जहां उन्हें शौचक्रिया करने का भी जगह नहीं मिलता था।अतः मालगाड़ी और जहाज में गंदगी फैलने के कारण कई श्रमिक रास्ते में ही दम तोड़ देते थें। एक ब्रिटिश रिपोर्ट के अनुसार सन 1863-1866 के बीच केवल तीन साल में करीब तीस हजार से ज्यादा श्रमिकों की रास्ते में ही मृत्यु हो गई।
यहां आने के बाद उन्हें घनघोर जंगलों को काटकर चाय खेती के अनुकूल बनाने का काम सौंप दिया जाता। जहाँ कभी सैकड़ों श्रमिकों की मृत्यु विषधर सांप-बिच्छू और जंगली जानवरों के हमलों से तो कभी यहां के स्थानीय लुसाई,रियांग जैसी जनजातियों के हमलों में होने लगी।इन सबके बावजूद श्रमिक यहाँ काम करने लगे।
उनदिनों चाय श्रमिकों को मजदूरी दर के रूप में कंपनी की ओर से मैनेजमेंट का मुहर लगा हुआ एक कागज का पर्ची (टोकन) दिया जाता था जिसका चलन चाय बागानों में चलने वाले मैनेजमेंट द्वारा मान्यताप्राप्त छोटे दुकानों और बाजारों तक ही सीमित था। जिस पर्ची को चाय बागान के व्यापारी जमाकर फिर बागान मैनेजमेंट को जमा करते और विनिमय में रुपये लेते थें।
चाय श्रमिकों को रुपये ना देने का मुख्य कारण था ये कभी भाग कर अपने मूल राज्य या गांव ना जा सकें।मगर धीरे धीरे जब कुछ दशक बीता और बीसवीं सदी की शुरुआत हुई तब कंपनी ने चाय श्रमिकों को उनके मजदूरी के बदले पैसे देना शुरू किया।सन 1914 में जब प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ था तब सुरमा घाटी(बराक घाटी)  के श्रमिकों को साप्ताहिक मजदूरी पांच आना मिलता था लेकिन जैसे जैसे युद्ध बढ़ता गया कंपनी ने ब्रिटेन की आर्थिक नुकसान का हवाला देते हुए साप्ताहिक मजदूरी पांच आना से घटाकर तीन आना कर दिया।
चाय श्रमिकों को उम्मीद थी युद्ध के बाद मजदूरी दर में बृद्धि होगी लेकिन सन 1918 में जब प्रथम विश्वयुद्ध खत्म हुआ उसके बाद भी इनके मजदूरी में कोई बृद्धि नहीं हुई जिससे बागान श्रमिकों में आक्रोश भर गया।
उस समय चाय बागानों में खासकर श्रमिकों के रिहायशी इलाकों में किसी बाहरी व्यक्ति का आवाजाही पूर्णतः प्रतिबंधित था।चाय श्रमिकों का बागान से बाहर किसी प्रकार का संबंध रखना अपराध की श्रेणी में आता था।जरूरत की समान के क्रय विक्रय केलिए बागान में ही कुछ लोगों को दुकान का परमिशन दिया गया था जिसके चलते वो बाहर से सामान खरीदकर बागान में बेचते थें।इसके अलावा बागानों में पूजा पाठ आदि कार्यक्रमों केलिए एक बागान से दूसरे बागान में पंडितों के आने जाने पर छूट था।श्रमिकों पर ब्रिटिश मैनेजरों द्वारा अमानवीय अत्याचार होता था। श्रमिकों की छोटी-छोटी गलतियों पर उन्हें चाबुक से मारा जाता था और जमीन पर लेटाकर उनके पेट को बूटों से रौंदा जाता था। इसके अलावा श्रमिक महिलाओं की यौन शोषण भी होता था।जिसके कई उदाहरण आज हमारे सामने हैं। जिसमें अप्रैल 1921 का “खरील” की घटना और लालछड़ा चाय बागान का मैनेजर “होलब्रुक और मोटेरी” की घटना उल्लेखनीय है।
उन्हीं दिनों महात्मा गांधी के आह्वान पर देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था।जिसका असर असम के चाय बागानों में पड़ना शुरू हुआ।पंडित देवसरण त्रिपाठी जो तत्कालीन अविभाजित सिलहट (बांग्ला में श्रीहट्ट या सिलेट कहा जाता है) जिले के श्रीमंगल चायबागान में पैदा हुए थें और बाद में उनके पिताजी उन्हें लेकर सिलहट के ही करीमगंज महकूमा के अन्तर्गत लौंगाई वैली के मेदली चाय बागान में आकर बस गए थें, वे लौंगाई वैली (पाथरकांदी विधानसभा क्षेत्र) और चरगोला वैली (राताबाड़ी विधानसभा क्षेत्र) के चाय बागानों में घूमकर पुरोहिती का कार्य करके अपनी जीविका चलाते थें और उसी साथ चाय श्रमिकों के मन में स्वतंत्रता की विगुल फूंकते थें।
इन्हीं के साथ और एक व्यक्ति थें जो उत्तरप्रदेश के गोरखपुर से अपने किसी संबंधित के साथ असम आकर चरगोला चाय बागान में बस गए थें उनका नाम था पंडित राधाकृष्ण पांडेय जिन्हें आम बोलचाल की भाषा मे लोग पं. राधाकिशुन कहते थे। वे उपोरोहिती के कार्य केसाथ ही  छोटा मोटा व्यापार भी करते थें इसके अलावा वो बहुत ही प्रखर वक्ता थें जिनके वाणी में ओज तो था ही साथ में उनका मस्तिष्क भी बहुत सृजनशील था। ये अपनी वाणी और मस्तिष्क का प्रयोग चाय श्रमिकों में स्वतंत्रता आंदोलन की भावना जगाने केलिए करते थे।
इनके अलावा एक नाम और था गंगादयाल दीक्षित का जो काछार जिले के लखीपुर के बिन्नाकांदी चायबागान के निवासी थें और चायबागानों में घूमकर कपड़ा बेचकर अपना भरण पोषण करते थें इसकी आड़ में श्रमिकों में स्वतंत्रता की चिंगारी भड़काते थें।
तत्कालीन सिलेट जिले करीमगंज महाकुमा के दक्षिण में एक ऐसा समतल भूभाग है जो चारों दिशाओं से पहाड़ों से घिरा हुआ है।दक्षिण में लुसाई पहाड़,उत्तर में दोहालिया पहाड़,पूर्व में छाताछड़ा पहाड़ और पश्चिम में बादशाही पहाड़ और इन चारों पहाड़ों के बीच के भूभाग जिसके मध्य में सिंगला नदी प्रवाहित है उसे चरगोला वैली (घाटी) कहा गया।जब चरगोला घाटी के चाय श्रमिकों को जब धार्मिक गतिविधि और सांस्कृतिक मिलनकेन्द्र की जरूरत महसूस हुई तब दुल्लभछोड़ा के पंडित यमुना प्रसाद चौबे की अगुवाई में ब्रिटिश प्रशासन के अनुशंसा पर स्थानीय चाय श्रमिकों के अनुदान और श्रमदान से सिंगला नदी के तट पर साढ़े बारह बीघा जमीन पर 1903 में “रामजानकी मंदिर” की प्रतिष्ठा हुई थी।यह मंदिर चरगोला वैली के लगभग 25 बागानों के श्रमिकों का सांस्कृतिक-आध्यात्मिक मिलन केन्द्र था।जहां दूर दराज के लोग आवाजाही के सिलसिले में समय असमय आश्रय लेते थे रात्रि विश्राम भी करते थें।इसके कारण ये मंदिर चरगोला घाटी के सभी बागानों में सूचना प्रसारण का केन्द्र भी था।
अगस्त-सितंबर सन1920 को महात्मा गांधी के आग्रह पर देश मे असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तब पंडित देवशरण त्रिपाठी, गंगादयाल दीक्षित और राधाकिशुन पांडेय ने नेतृत्व में इस आंदोलन की आंच चाय बागानों तक पहुँचने में देर नहीं लगी क्योंकि श्रमिकों में अपने मजदूरी दर कटौती को लेकर नाराजगी पहले से ही थी।इसके अलावा ठीक उसी समय सन 1921 के अप्रैल में सिलचर के निकट खरील चाय बागान में महिला यौन शोषण से संबंधित जो वारदात घटित हुई उसके बाद पूरे बराक घाटी के श्रमिकों को झकझोर कर रख दिया।खरील चाय बागान के मैनेजर विलियम लेमन रीड ने एक हीरा ग्वाला नामक एक युवती के घर में जाकर जोर जबरदस्ती करने की कोशिश की लेकिन हीरा के पिता गंगाधर ग्वाला और भाई नेपाल ग्वाला के विरोध के कारण उसने अपने रिवॉल्वर से उसके भाई को गोली मार दिया जिससे तुरंत नेपाल ग्वाला की मौत हो गई।अदालत ने इस विषय में विलियम लेमन रीड को सजा देने के बजाए बाइज्जत बरी कर दिया।इस घटने से श्रमिकों का गुस्सा का बांध टूट गया।
वैसे भी दुल्लभछोड़ा के रामजानकी मंदिर प्रांगण में  अक्सर धर्मसभा के नाम पर चरगोला वैली के श्रमिकों की गुपचुप सभा होती रहती थी। लेकिन खरील घटना के बाद सभा नियमित रूप से होने लगी। इसी तरह एक सभा 01 मई 1921 को हुई जिसमें पण्डित देवशरण त्रिपाठी, गंगा दयाल दीक्षित राधाकृष्ण पाण्डेय सुरेश चन्द्र देव समेत कई स्वतंत्रता सेनानी उपस्थित हुए।मुख्य वक्ता राधाकिशुन पांडेय ने अपने ओजस्वी भाषण से श्रमिकों को असहयोग आंदोलन के संबंध में बताया उन सबको देवासुर संग्राम जैसी तमाम पौराणिक कहानियों का दृष्टांत देकर उन्हें ये समझाने में सफल हुए कि श्रमिकों की दुर्दशा का वास्तविक कारण ये अंग्रेज हैं।और अंग्रजों को यहाँ से बाहर करने केलिए उनके अर्थ संग्रह के स्रोतों को खत्म करना पड़ेगा।इसी रणनीति के चलते श्रमिकों को गुलामी की जंजीरें तोड़कर अपने अपने देश (गाजीपुर, बलिया,आजमगढ़,बस्ती गोरखपुर आदि) में जाने का सपना दिखाया और श्रमिकों को कंपनी से मजदूरी दर तीन आना के बदले बारह आना करने की मांग केलिए आह्वान किया। अगले दिन स्थानीय श्रमिकों ने अपने अपने बागान मैनेजमेंट से ये मांग किया जिसे मैनजमेंट ने तुरंत मना कर दिया।
जिसके बाद फिर 02 मई की रात रामजानकी मंदिर में पंडित देवशरण त्रिपाठी,गंगादयाल दीक्षित और राधाकिशुन पांडेय की उपस्थिति में एक सभा हुआ जिसमें अगले दिन03 मई को सिंगलाछोड़ा चाय बागान के एक सुनसान टीला पर एकत्रित होकर वहां से अपने अपने मूलस्थान केलिए प्रस्थान करने का कार्यक्रम तय हुआ। निर्धारित सूची अनुसार आणिपुर, दुल्लभछोड़ा,मोकामछोड़ा,दामछोड़ा, गंभीरा खेकरागोल आदि बागानों के लगभग साढ़े सात सौ श्रमिक उक्त टीला पर उपस्थित होकर “महात्मा गांधी की जय” “जय हिन्द” बोलकर अपने मूलस्थान केलिए निकल पड़ें।बाद में वो निर्जन टीला “गांधी टीला” के नाम से ख्यात हुआ।
पैदल चलते हुए श्रमिक करीमगंज,बदरपुर, चांदपुर, मैमनसिंह आदि रैलस्टेशन और स्टीमर घाट पर एकत्रित हुए। कुछ दिनों में ब्रिटिश सरकार के अन्याय अत्याचार के खिलाफ चरगोला वैली के श्रमिकों का अपना काम छोड़कर अपने देश (मूलस्थान) जाने की खबर आसपास के सभी बागानों में जंगल मे आग लगने की तरह फैल गई  जिसका नतीजा ये हुआ की तत्कालीन अविभाजित सुरमा वैली के सभी चायबागानों से श्रमिक अपना काम छोड़कर अपने मूलस्थान जाने केलिए निकल गए, और साढ़े सातसौ की भीड़ देखते देखते बीस-तीस हजार तक पहुंच गई।
इसके बाद ब्रिटिश प्रशासन में हड़कंप मच गया वे तुरंत रेल स्टेशन और स्टीमर घाटों पर एकत्रित भीड़ को समझा बुझाकर डरा कर अपने बागानों में लौटाने का प्रयास करने लगी। लेकिन श्रमिक अपने इरादे से टस से मस नहीं हुई क्योंकि उनका का नेतृत्व पंडित देवशरण त्रिपाठी कर रहे थें। ब्रिटिश प्रशासन ने कुछ दिन केलिए रेल और स्टीमर यातायात व्यवस्था बंद कर दिया मगर श्रमिक विभिन्न स्टेशन और घाटों पर डटे रहें खाने केलिए उनके पास सत्तू,चना,चिउड़ा और दाना था थोड़ा बहुत खाने पीने का इंतजाम उन स्टेशन और बंदरगाहों के स्थानीय निवासीयों और स्थानीय कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानियों ने किया। श्रमिकों की अड़ियल रवैया देखकर बागान मैनेजमेंट ने उनकी मांग 12 आना हजीरा से ज्यादा 16 आना करने की घोषणा करते हुए उन्हें वापस लौट चलने का आग्रह किया।लेकिन श्रमिकों ने उनके प्रलोभन को ठुकरा दिया।जिससे ब्रिटिश प्रशासन बौखला गया।इसी बीच सिलहट के डेप्युटी कमिश्नर किरण चन्द्र दे के आदेश पर असिस्टेंट डेप्युटी कमिश्नर सुशील सिंह के अगुवाई में 21 मई 1921 को चांदपुर रेल स्टेशन पर एकत्रित भीड़ पर गोरखा इन्फैंट्री ने अंधाधुंध फायरिंग करना शुरू कर दिया अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी मारे गए जिसमें छोटे छोटे बच्चों सहित बृद्ध, और गर्भवती महिला तक शामिल थीं। यहीं नहीं जब चांदपुर,बदरपुर स्टीमर घाट में श्रमिक जहाज में चढ़ने केलिए डॉक वे पर थें तभी ब्रिटिश प्रशासन के निर्देश पर डॉकवे को गिरा दिया गया जिसके कारण सैकड़ों की तादाद में सेनानी मेघना,और बराक में डूबकर मर गए।
इसके साथ ही करीमगंज,मैमनसिंह, चटग्राम,आदि रैलस्टेशनों पर भी फायरिंग हुई थी। सरकारी आंकड़ों में 1800-2200 श्रमिकों के मारे जाने की बात कही गई लेकिन वास्तविक संख्या का आजतक अनुमान लगाना मुश्किल है। शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन रात श्रमिकों को हथियार के बल पर तहस नहस कर दिया गया।कुछ वहाँ से पैदल भागने लगे कुछ अलग अलग बस्तियों में रहना शुरू कर दिया जो पकड़े गए उन्हें पकड़कर फिर से उनके बागान में लाया गया। उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई। लगभग तीन महीने केलिए सुरमा घाटी में रेल और जहाज सेवा रोक दी गई ताकि इस खबर को दबा दिया जाए।देशबंधु चित्तरंजन दास ने इस घटना को महात्मा गांधी तक पहुचाया जिसे सुनकर 21 अगस्त 1921 में महात्मा गांधी सिलचर आए और फाटक बाजार में विशाल जनसभा किया।उस जनसभा में चाय श्रमिकों से मिलकर उनको सांत्वना दिया।इस भयाभय दमन उत्पीड़न के कारण कुछ श्रमिक आसपास के बस्तियों में किसी के घर में काम काज करते हुए बस गए।कुछ महीनों बाद अपने घर लौटे।जिसमें चेरागी के अयोध्या अहीर, निबिया वांगीरबिल के अंतु राय,लालछड़ा के शीतल प्रसाद कोहार,सिंगलाछड़ा के गोपाली सोनार आदि प्रमुख थे।गोपाली सोनार इस आन्दोलन के कई महीने बाद अपने घर लौटे तो उनका मानसिक संतुलन ठीक नहीं था।कुछ लोगों का मानना था वे पागल होने का नाटक करके ब्रिटिशों के खिलाफ बिगुल बजाते थे तो कई उन्हें सचमुच पागल कहते थे।
इसी तरह अंतु राय भी करीब दो महीने बाद अपने घर लौटे।दो महीने तक चांदपुर के आसपास के किसी गांव में एक बंगाली परिवार के संरक्षण में रहे और गांव के मंदिर में पुजारी का कार्य किये। उनके वापस लौटने की खबर मिलते ही वे फिर से ब्रिटिश प्रशासन के रडार में आ गए। उन्हें और उनके बड़े भाई बाबू जीबोधन राय जो उस समय अच्छी खासी जमीन के मालिक थे दोनों को ब्रिटिश प्रशासन की ओर से कई बार चेतावनी दिया गया। बाबू जीबोधन राय एक प्रकार से ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों से दूर हो गए लेकिन अंतु राय वैसे गतिविधियां जारी रखें। जिसका परिणाम अत्यंत भयाभय निकला।उसी साल दुर्गापूजा के दिन उनका शव सोनापुर के जंगल में एक पेड़ से लटका हुआ मिला।परिवारजनों का दावा है कि ब्रिटिश प्रशासन ने उन्हें मारकर पेड़ पर लटका दिया।
इस आंदोलन के मुख्य नेतृत्वकर्ता पंडित देवशरण त्रिपाठी जी को करीमगंज रेल स्टेशन से गिरफ्तार करके सिलेट जेल में डाल दिया गया उस समय करीमगंज जेल में कैदियों द्वारा जेलर को सलामी देने का प्रचलन था। पंडित जी ने इसका पुरजोड़ विरोध किया इसके कारण उन्हें जेलर की ओर से शारिरिक यातनाएं दी गई फिर भी पंडित जी सलामी देने केलिए नहीं झुंके। कुछ दिन बाद श्रमिकों को भड़काने के आरोप में उन्हें असम का कालापानी कहा जाने वाला जोरहाट जेल में भेज दिया गया जहां पंडित जी ने आमरण अनशन किया। ईक्कीस दिन तक आमरण अनशन करने के बाद बाइसवें दिन यानी 26 दिसंबर 1922 को उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया।
इस पूरे आंदोलन में ब्रिटिश प्रशासन के कठोरतम दमननीति के कारण प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कितने श्रमिक स्वतंत्रता सेनानियों को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा इसका अंदाजा लगाना भी नामुमकिन है। इस आन्दोलन और इसके दमनकारी बर्बरताओं पर ब्रिटेन की संसद के दोनों सदनों (हाउस ऑफ लॉर्ड्स और हाउस ऑफ कॉमन्स) में छह घंटे से अधिक समय तक बहस भी हुआ था। जलियांवाला बाग से दो साल बाद हुए इस आंदोलन और इस भयंकर नरसंहार को इतिहास में वो जगह नहीं मिली जो इसे मिलना चाहिए था। अब समय की मांग है कि इन स्वतंत्रता सेनानियों को सच्ची श्रद्धांजलि देने केलिए इस अनकही दास्तान को प्रचारित करते रहे।ताकि आजादी की वेदी पर हँसते हँसते अपने प्राणों का बलिदान दे देने वाले अमर बलिदानियों की वीरगाथा सुनकर आने वाली पीढ़ी में भी राष्ट्रभक्ति,वीरता और साहस का भाव जागृत हो सके।
संदर्भ जनश्रुतियां:- 1.Dr Sujit Tiwari
2.Diwakar Rai
3.Hari Narayan Rai
4.Kamalakanta Upadhyay
5.Shreedhar Chaube
संदर्भ लिखित:- 1.Planter Raj to Swaraj (Amalendu Guha)
2.Nitin Verma Thesis Paper 2007 JNU
3.Barak Cha Shramiker sankhipta Itihas (Sanat Kumar Koiri)
राजदीप राय
दुल्लभछोड़ा।

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