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किस करवट बैठेगी बिहार की सियासत – राधा रमण

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आर्थिक तौर पर पिछड़ा माना जानेवाला बिहार राजनीतिक रूप से काफी जागरूक प्रदेश रहा है। 90 के दशक तक बिहार की सियासत कांग्रेस समर्थन और कांग्रेस विरोध पर टिकी थी। लेकिन 1990  की 10 मार्च को लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से अब तक बिहार की राजनीति लालू समर्थन और लालू विरोध पर केंद्रित हो गई है। बहुचर्चित चारा घोटाले में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने और जेल जाने से लेकर सजायाफ्ता होने के बावजूद लगभग 35 वर्षों से बिहार की सियासत में लालू एक बड़ा मुद्दा हैं। यहां तक कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी पिछले 20 वर्षों से लालू समर्थन और लालू विरोध की लहर पर सवार होकर ही सत्ता सुख भोग रहे हैं।
भले ही चुनाव आयोग ने अभी तक बिहार में विधानसभा चुनाव की घोषणा नहीं की है, लेकिन नवंबर-दिसंबर में वहां विधानसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं। बात राजनीतिक सरगर्मी की करें तो पिछले एक साल से सियासी दलों ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। पिछले करीब 16 वर्षों से बिहार की सत्ता में छोटे भाई की भूमिका का निर्वहन कर रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस बार येन केन प्रकारेण बिहार की सत्ता पर काबिज होने के लिए कमर कस चुकी है। बीते एक साल में शायद ही कोई हफ्ता होगा जब कोई केंद्रीय मंत्री बिहार में नहीं रहा होगा। हर हफ्ते राज्य में केंद्रीय मंत्रियों का दौरा लगा ही रहता है। इसके अलावा पहली बार राज्य सरकार में भाजपा के मंत्रियों की संख्या जनता दल (यूनाइटेड) के मंत्रियों की संख्या से ज्यादा है। यही नहीं, बीते एक साल में पांच बार प्रधानमंत्री बिहार का दौरा कर चुके हैं। प्रधानमंत्री जब भी बिहार आते हैं हजारों करोड़ रुपये की परियोजनाओं की सौगात दे जाते हैं। हालांकि विपक्षी पार्टियां राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस प्रधानमंत्री की घोषणाओं को ढपोरशंखी बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने साल 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान आरा में सवा लाख करोड़ की आर्थिक सहायता देने की बात कही थी, आज तक नहीं दिया।
बात बीते विधानसभा चुनाव की करें तो 2020 के चुनाव में 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में राष्ट्रीय जनता दल को सबसे अधिक 75 सीटें मिली थीं। दूसरे स्थान पर भारतीय जनता पार्टी रही जिसे 74 सीटों पर विजय मिली थी। बीते 20 वर्षों में सत्ता के लिए सबसे मुफीद रहे नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) को महज 43 सीटों पर संतोष करना पड़ा। इसी तरह कांग्रेस को 19, वाम दलों में भाकपा-2, माकपा-2 और भाकपा माले को 11, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को 6, जीतनराम मांझी की हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा को 4, बहुजन समाज पार्टी को 1, अपने को ‘मोदी का हनुमान’ बतानेवाले चिराग पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी को 1, निर्दलीय सुमित कुमार सिंह को 1 और शेष 4 सीटें अन्य क्षेत्रीय दलों को मिली थी। लेकिन समय के साथ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के पांच और बसपा के 1 विधायक के पाला बदल लेने के कारण फिलहाल बिहार में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। फिलहाल उसके 80 , राजद के 77 और जनता दल (यू) के 45 विधायक हैं। इनमें राजद के 4 विधायक तो तकनीकी रूप से ही राजद में बने हुए हैं। हकीकत में वे सरकार के साथ हो लिये हैं। इसी तरह कांग्रेस के 2 विधायक भी अंदरखाने पाला बदल चुके हैं।
नीतीश कुमार नौवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। वह वर्ष 2000 में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। हालांकि महज सात दिनों के लिए। इतनी बार और इतने लंबे समय तक मुख्यमंत्री बननेवाले वह बिहार के पहले राजनेता हैं। वैसे तो नीतीश की राजनीति लालू विरोध की रही है लेकिन इस दौर में दो बार 2013 और 2022 में वह राजद के समर्थन से भी मुख्यमंत्री बने हैं। इसीलिए तेजस्वी यादव उन्हें पलटू चाचा भी कहते हैं। चूंकि नीतीश के समर्थन के बिना बिहार में न तो भाजपा सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचती है न ही राजद। इसलिए नीतीश दोनों दलों की मजबूरी हैं। कभी वह राजद के साथ मिलकर भाजपा को ढपोरशंखी और साम्प्रदायिक पार्टी बताते हैं तो कभी भाजपा से गलबहियां करके लालू के राज को जंगलराज बताकर लोगों से समर्थन मांग लेते हैं। सुविधा की सियासत के नीतीश माहिर खिलाड़ी हैं।
बिहार की सियासत पर बारीक नजर रखनेवाले लोग बताते हैं कि नीतीश इस बार कठिन राजनीतिक चुनौती में फंस गए हैं। विधायकों की संख्या अधिक होने के कारण भाजपा इस बार स्वाभाविक तौर पर अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाहेगी। दूसरे, इस चुनाव में नीतीश को भरे मन से चिराग की पार्टी के लिए भी प्रचार करना पड़ेगा। ज्ञात रहे कि 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग की लोजपा की वजह से ही नीतीश की जदयू को 78 से 43 सीटों पर सिमट जाना पड़ा था।
नीतीश के लिए इस बार बड़ी चुनौती जनसुराज के संस्थापक और चुनाव लड़ाने–जिताने में माहिर प्रशांत किशोर बनेंगे। प्रशांत किशोर (पीके) कभी जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। कई मौकों पर नीतीश कुमार ने यह खुलासा किया था कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के कहने पर उन्होंने प्रशांत किशोर को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया था। अब पीके ने घोषणा की है कि उनकी पार्टी ‘जनसुराज’ राज्य की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। पीके अपनी सभाओं में नीतीश और तेजस्वी पर ही निशाना साधते रहे हैं। इस बीच प्रशांत ने अपनी पार्टी ‘जनसुराज’ में पूर्व केंद्रीय मंत्री और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके रामचन्द्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) की पार्टी ‘आप सबकी आवाज’ का विलय कराकर बड़ा दांव चल दिया है। रामचन्द्र प्रसाद सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं। वह नीतीश के गृह जिले नालंदा के ही मूल निवासी हैं और जाति से कुर्मी हैं। वे राजनीति में आने से पहले कई वर्षों तक बिहार के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव रहे हैं। उन्हें नीतीश ही राजनीति में लेकर आये थे। कुछ वर्षों तक वे परोक्ष रूप से जदयू के फंड मैनेजर भी थे। बाद में खुश होकर नीतीश ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया और पार्टी ही सौंप दी। मोदी -2 सरकार में रामचन्द्र प्रसाद सिंह इस्पात मंत्री थे। बाद में जदयू से अलग होने पर भाजपा में चले गए। अब चुनाव से ठीक पहले रामचन्द्र प्रसाद सिंह के भाजपा छोड़कर सक्रिय होने से जाहिर है नुकसान नीतीश का ही होगा।
बिहार की राजनीति के जानकार पहले से ही ‘जनसुराज’ को भाजपा की बी टीम बताते रहे हैं। अब प्रशांत और आरसीपी दोनों के साथ आने से सबसे ज्यादा बेचैनी जदयू और उसके हितचिंतकों को ही है। तभी तो जदयू के मुख्य प्रवक्ता और वर्षों से नीतीश के साथी रहे नीरज कुमार पीके और आरसीपी दोनों को विषैला सांप बता रहे हैं। यही नहीं केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी भी दोनों को विषाणु और कीटाणु कह रहे हैं। फिलहाल कहना जल्दीबाजी होगी कि पीके और आरसीपी की सक्रियता और हाथ मिलाने से फायदा भाजपा को होगा या राजद का। लेकिन इतना तय है कि नुकसान नीतीश और जदयू का ही होगा।
इसके अलावा भारतीय पुलिस सेवा से इस्तीफा देकर सियासत में हाथ आजमाने उतरे शिवदीप लांडे भी ‘हिंद सेना’ बनाकर राज्य की सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने पर आमादा हैं। लांडे की छवि ईमानदार प्रशासक की रही है। हालांकि वह महाराष्ट्र के मूल निवासी हैं। बिहार की सियासत में क्या गुल खिलाते हैं, यह समय बताएगा।
दिक्कत महागठबंधन में भी कम नहीं है। कांग्रेस और कन्हैया कुमार के सक्रिय होने से राजद को पसीने छूट रहे हैं। उधर, निर्दलीय सांसद राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव दुबारा से कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। यह लालू की अनिच्छा के बावजूद हो रहा है। राहुल गांधी भी अपने पूरे लावलश्कर के साथ गाहेबगाहे बिहार घूम रहे हैं। वह पिछले पांच माह में चार बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। इस बीच कांग्रेस ने बिहार का प्रभारी और प्रदेश अध्यक्ष बदल दिया है।
फिलवक्त बिहार की क़ानून व्यवस्था भी ठीक नहीं है। अपराधी खुलेआम क़ानून को अंगूठा दिखाते फिर रहे हैं। हत्या और अपहरण की वारदातें बढ़ गई हैं। विपक्ष इसे जमकर हवा दे रहा है और नीतीश निरीह शासक की मानिंद चुप्पी ओढ़े हैं। उन पर उम्र हावी हो गई है। कब क्या बोल जाएं और कब किसका पैर छू लें, कहना कठिन है। ऐसे में लालू के जंगलराज का सवाल अबकी बार कितना हावी होता है, समय बताएगा।
ऐसे में इतना तो तय है कि बिहार में इस बार आमने-सामने की लड़ाई नहीं होनेवाली है। ऐसे में सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा, फिलहाल कहना जल्दबाजी होगी।

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