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बट सावित्री व्रत में क्यों होती है बरगद की पूजा – बी. के.मल्लिक

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वट सावित्री का त्योहार करवा चौथ और तीज की तरह ही मनाया जाता है।  इस दिन सुहागिन महिलाएं पति की  लंबी आयु और स्वस्थ जीवन के लिए व्रत रखती हैं और पूजा करती हैं। हर साल वट सावित्री का व्रत जेष्ठ माह की अमावस्या तिथि के दिन रखा जाता है। वट सावित्री पर भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा के साथ ही वट यानी बरगद पेड़ की पूजा का भी विशेष महत्व है। बरगद पेड़ में कच्चा सूत बांधकर महिलाएं इसकी परिक्रमा करती हैं।
देवी देवताओं और कई पशु पक्षियों की पूजा के साथ ही हिंदू धर्म में पेड़- पौधों की भी  पूजा का भी महत्व है। पीपल, तुलसी, केला जैसे कई पेड़ पौधों को पूजनीय माना जाता है और इनकी पूजा की जाती है। कहा जाता है कि
इन पेड़,पौधे में देवताओं का वास होता है। इन्हीं में से एक है बरगद का पेड़। बरगद पेड़ की पूजा कई मौकों पर की जाती है, लेकिन वट सावित्री के दौरान इसका महत्व काफी बढ़ जाता है। सभी सुहागिन महिलाएं बरगद पेड़ के पास एकजुट होकर वट सावित्री की पूजा करती हैं और कथा सुनती हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार बरगद पेड़ के तने में भगवान विष्णु, जड़ में ब्रह्मा और शाखाओं में शिव का वास होता है। इसलिए इस वृक्ष को त्रिमूर्ति का प्रतीक माना जाया है। वहीं बरगद के पेड़ विशाल और दीर्घजीवी होते हैं और सावित्री व्रत भी पति की दीर्घायु के लिए रखा जाता है। यही कारण है कि वट सावित्री पर वट वृक्ष की पूजा करने का महत्व है।
एक मान्यता यह भी है कि भगवान शिव बरगद पेड़ के नीचे ही तपस्या करते थे। भगवान बुद्ध को भी बरगद पेड़ के नीचे ही ज्ञान की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने इसी वृक्ष के पत्ते पर मार्कण्डेय ऋषि को   दर्शन दिए थे। इसके अलावा बौद्ध धर्म में भी बरगद वृक्ष का काफी महत्व है इसे बोधि वृक्ष के नाम से जाना जाता है I इस दिन विवाहित महिलाएं वट वृक्ष के पास एकत्रित होकर विधिविधान से पूजापाठ करती हैं। वट सावित्री का व्रत और पूजन पति की लंबी आयु की कामना के लिए किया जाता है। साथ ही इस व्रत को करने से वैवाहिक जीवन भी सुखी बनता है। इस व्रत को करने से सुहागिन महिला को अखंड सौभाग्यवती का वरदान प्राप्त होता है। वट सावित्री पर भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी के साथ सावित्री, सत्यवान, वट वृक्ष, यमराज की भी पूजा की जाती है। लेकिन इस दिन पूजा के दौरान वट सावित्री व्रत पर सावित्रीसत्यवान की कथा सुनना या पढ़ना बेहद जरूरी होता है। क्योंकि इसके बिना वट सावित्री की पूजा अधूरी मानी जाती है।
 वट सावित्री व्रत की कथा
 मद्र नामक एक देश पर अश्वपति नाम का राजा राज करता था। उसकी कोई संतान नहीं थी, जिस कारण वह दुखी रहता था। उनके राज्य में एक ऋषि महात्मा आए हुए थे। राजा ने उनका आदर-सत्कार किया और भोजन ग्रहण कराया। ऋषि महात्मा ने राजा से पूछा, हे राजन तुम्हारे पास सब कुछ होते हुए भी तुम दुखी क्यों हो। इस पर राजा ने कहा, मेरे पास सब कुछ तो है लेकिन मेरी कोई भी संतान नहीं है। राजा की बात सुनकर ऋषि ने कहा कि, तुम और तुम्हारी पत्नी दोनों देवी सावित्री का व्रत करो। ऋषि के बताए अनुसार राजा और उसकी पत्नी ने इस व्रत को किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर देवी सावित्री ने उन्हें सुंदर पुत्री होने का वरदान दिया। 9 महीने बाद ही राजा की पत्नी ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। राजा ने अपनी कन्या का नाम सावित्री रखा।
सावित्री जब विवाह योग्य हो गई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर ढूंढने की चिंता सताने लगी। राजा ने सावित्री को मंत्रियों के साथ स्वयं वर ढूंढने के लिए भेजा। जंगल में सावित्री की मुलाकात द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से हुई। सावित्री ने सत्यवान को अपने पति के रूप में वरण कर लिया।
ऋषि नारद ने सावित्री के पिता अश्वपति को बताया कि सत्यवान गुणवान, धर्मात्मा और बलवान है लेकिन वह अल्पायु है। लेकिन सावित्री तो उसे पति के रूप में स्वीकार कर चुकी थी। इसलिए माता-पिता के समझाने के बावजूद भी सावित्री धर्म से पीछे नहीं हटी और आखिरकार राजा को झुकना पड़ा। सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ हो गया। विवाह के बाद सावित्री राजमहज छोड़कर सत्यवान के साथ जंगल की कुटिया में रहने लगी। सावित्री ने पत्नीधर्म पूरी निष्ठा से निभाई। वह अंधे सास-ससुर की सेवा करती थी और पति के साथ प्रेमपूर्व रहती थी। लेकिन इसके बाद सत्यवान की मृत्यु का समय निकट आ गया। सत्यवान अल्पायु है, इसके बारे में सभी जानते थे। लेकिन नारदजी ने सत्यवान के मृत्यु के दिन के बारे भी बता दिया था। सत्वान की मृत्यु के पहले सावित्री व्रत-उपवास और पितरों का पूजन करने लगी थी। प्रतिदिन की तरह अपनी मृत्यु वाले दिन भी सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जंगल चले गए। सावित्री भी खाना लेकर जंगल पहुंच गई। लेकिन जैसे ही सत्यवान लकड़ी काटने पेड़ पर चढ़े तो उन्हें चक्कर आ गया। तब सावित्री अपनी गोद में सत्यवान का सिर रखकर सहलाने लगीं। तभी वहां यमराज आ गए और सत्यवान के प्राण लेकर अपने साथ लेकर जाने लगे। सावित्री भी यमराज के पीछे चल पड़ी।
यमराज के मना करने पर सावित्री नहीं मानी। सावित्री बोली जहां मेरे पति जाएंगे मैं भी जाऊंगी। सावित्री की निष्ठा और  पतिपरायणता  देख यमराज ने कहा कि देवी आप धन्य हैं। सत्यवान को छोड़कर यमराज ने सावित्री से तीन वरदान मांगने को कहा। पहले वरदान में सावित्री ने अंधे सास-ससुर की आंखों की ज्योति मांगी। यमराज ने सास-सुपर  की दिव्य ज्योति दे दी। दूसरे वरदान में सावित्री ने वनवासी सास,ससुर का राज्य मांगा। यमराज ने वह भी दे दिया और कहा अब तुम चली जाओ। सावित्री ने तीसरे वरदान में 100 संतानों और सौभाग्य का वरदान मांगा। यमराज ने बिना विचारे यह वरदान भी सावित्री को दे दिया। तब सावित्री ने कहा हे प्रभु मैं एक पतिव्रता पत्नी हूं और आपने मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। इतना सुनते ही यमराज को सत्यवाण के प्राण वापस करने पड़े। यह सुनते ही सावित्री वट वृक्ष के पास गई, जहां सत्वाण का मृत शरीर पड़ा था।
सावित्री वापस गई तो वहां सत्वाण को जीवित देखा। उसके सास, ससुर की दिव्य ज्योति भी वापस आ गई और राज्य भी मिल गया। तब से ही वट सावित्री पर वट वृक्ष की पूजा करने और सत्यवाण, सावित्री की कथा सुनने का विधान है। इस व्रत को करने से वैवाहिक जीवन से जुड़ी सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। पारिवारिक जीवन सुखमय बनता है और संतान की प्राप्ति होती है। इसलिए सुहागिन महिलाएं हर साल ज्येष्ठ माह के अमावस्या के दिन पड़ने वाले वट सावित्री व्रत को पति की दीर्घायु के लिए करती हैं और यह कथा सुनती हैं।
डॉ.बी. के. मल्लिक
वरिष्ठ लेखक
9810075792

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