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छत्रपति शिवाजी महाराज की माता राजमाता जीजाबाई की 352वीं पुण्यतिथि

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“राजमाता जीजाबाई : मातृत्व, साहस और नेतृत्व की अद्वितीय गाथा”

डॉ. शैलेश शुक्ला

वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं

वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह

भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में राजमाता जीजाबाई का नाम आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। वे केवल छत्रपति शिवाजी महाराज की जननी ही नहीं थीं, अपितु वे एक विचार, एक दृष्टिकोण और एक प्रेरणा की मूर्तिमान अभिव्यक्ति थीं। उनका जीवन मातृत्व, नेतृत्व, राजनीतिक समझ, धार्मिकता और सामाजिक चेतना का संगम था। ‘शिवाजी अंधश्रद्धा से परे’ (लेखक : जेम्स डब्ल्यू लेन) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिवाजी का व्यक्तित्व मुख्यतः जीजाबाई की शिक्षा, दृष्टिकोण और अनुशासन का ही प्रतिफल था।

राजमाता जीजाबाई का जन्म 12 जनवरी 1598 को लखुजी जाधवराव और महालसा बाई के यहां देवगिरी (वर्तमान महाराष्ट्र) में हुआ था। लखुजी जाधव अहमदनगर के निज़ामशाही दरबार में एक उच्चस्तरीय मराठा सरदार थे। जाधव वंश की यह कन्या अपनी बाल्यावस्था से ही राजनीतिक घटनाओं, सैन्य चर्चा और धार्मिक वातावरण से घिरी हुई थी। डॉ. जयसिंह राव पवार अपनी पुस्तक ‘मराठों का इतिहास’ में उल्लेख करते हैं कि जीजाबाई की प्रारंभिक शिक्षा में शास्त्र, नीति, धर्म और प्रशासनिक मूल्यों का समावेश था। वे रामायण और महाभारत की गूढ़ शिक्षाओं में रुचि रखती थीं, जिससे उनके भीतर नीति और धर्म की समृद्ध समझ विकसित हुई।

जीजाबाई का विवाह शाहजी भोंसले से हुआ, जो बीजापुर दरबार में एक शक्तिशाली सैन्य प्रमुख थे। विवाह के उपरांत जीजाबाई को राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, दमन और पारिवारिक तनाव का सामना करना पड़ा। शाहजी के बीजापुर दरबार में रहते हुए वे प्रायः राज्य से दूर रहते थे। इस स्थिति में जीजाबाई ने पुणे में रहकर बालक शिवाजी का लालन-पालन किया। ‘शिवचरित्र’ (लेखक : बाबासाहेब पुरंदरे) के अनुसार पुणे की वीरान भूमि को उन्होंने न केवल बसाया, बल्कि उसे शिवाजी की कर्मभूमि भी बनाया। वे स्वयं प्रशासनिक कार्यों में भाग लेती थीं और बालक शिवाजी को शासन कौशल की शिक्षा देती थीं।

राजमाता जीजाबाई ने मातृत्व को केवल संतान-पालन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने इसे राष्ट्र-निर्माण का माध्यम बनाया। ‘शिवभारत’ (कवि पंडित परमानंद द्वारा रचित) में वर्णन मिलता है कि जीजाबाई प्रतिदिन शिवाजी को रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाया करती थीं और उन्हें रघुकुल और पांडवों के आदर्शों से जोड़ती थीं। जीजाबाई ने बालक शिवाजी को यह सिखाया कि एक राजा का धर्म केवल शासन करना नहीं है, बल्कि प्रजा की सेवा और रक्षण करना भी है।

उन्होंने बालक शिवाजी को महत्त्वपूर्ण सूत्र सिखाया :

  • “राजा वह नहीं जो राजमहलों में रहे, बल्कि वह है जो रणभूमि में प्रजाजनों के लिए लड़े।”
  • “सत्ता सेवा का माध्यम है, अधिकार का नहीं।”

‘भारतीय नारियां’ (लेखिका : रमा झा) के अनुसार, जीजाबाई का मातृत्व एक ऐसा स्तंभ था जिस पर सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य का निर्माण खड़ा हुआ।

जीजाबाई कट्टर धार्मिक थीं, परंतु वह कट्टरता अंधविश्वास नहीं, बल्कि समावेशी और सहिष्णु विचारधारा पर आधारित थी। उन्होंने शिवाजी को हिन्दू धर्म की गहराई, उसकी नैतिकता और सार्वभौमिक दृष्टिकोण से परिचित कराया। ‘शिवाजी अंधश्रद्धा से परे’ में यह भी वर्णित है कि जीजाबाई के धार्मिक दृष्टिकोण ने शिवाजी को अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता का दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया।

उनकी प्रेरणा से शिवाजी ने मंदिरों के संरक्षण के साथ-साथ मस्जिदों और सूफी दरगाहों का भी सम्मान किया, जैसा कि 1674 में उनके राज्याभिषेक के समय धर्मगुरुओं की बहुलता से सिद्ध होता है जीजाबाई ने शिवाजी को न केवल धार्मिक और नैतिक मूल्य सिखाए, बल्कि उन्होंने सैन्य कौशल और राजनीतिक चातुर्य भी सिखाया। बालक शिवाजी को उन्होंने यह सिखाया कि “दुश्मन को हराना तलवार से नहीं, पहले बुद्धि से करना चाहिए।”

‘राजमाता जीजाऊ’ (लेखक : दत्तोपंत आपटे) के अनुसार, वे शिवाजी के सभी रणनीतिक योजनाओं में मानसिक सहारा बनी रहीं। जब शिवाजी ने 1645 में बीजापुर के विरोध में स्वराज्य की घोषणा की, तो जीजाबाई ने न केवल आशीर्वाद दिया बल्कि उनकी योजना को विस्तार भी दिया।

राजमाता जीजाबाई उस कालखंड की महिला थीं, जब समाज में महिलाओं की स्थिति अत्यंत सीमित थी, परंतु उन्होंने अपने जीवन से सिद्ध किया कि महिलाएं केवल घर की शोभा नहीं, बल्कि समाज का नेतृत्व भी कर सकती हैं।

‘Women in Indian History’ (लेखिका : किरण पवार) में उल्लिखित है कि जीजाबाई ने पुणे में बालिकाओं की शिक्षा के लिए पाठशालाएं खुलवाईं और विधवाओं के लिए संरक्षण गृह की स्थापना करवाई। वे इस बात की पक्षधर थीं कि स्त्रियों को भी राष्ट्र के निर्माण में समान भागीदारी दी जानी चाहिए। उनका यह दृष्टिकोण मराठा समाज में महिलाओं के प्रति सम्मान और जागरूकता लाने में क्रांतिकारी सिद्ध हुआ।

शाहजी की अनुपस्थिति, शिवाजी के संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता — इन सब के बीच जीजाबाई एक दृढ़ स्तंभ बनकर खड़ी रहीं। जब शिवाजी अग्निपरीक्षा से गुजर रहे थे, तब जीजाबाई ने उन्हें साहस, धैर्य और राष्ट्रभक्ति के लिए प्रेरित किया। जब अफजल खान के साथ युद्ध की योजना बनी, तब जीजाबाई ने अपने पुत्र को सजीव उदाहरणों के माध्यम से बताया कि “धर्म और स्वराज्य की रक्षा के लिए छल का उपयोग यदि शत्रु कर रहा है, तो न्यायसंगत उत्तर देना आवश्यक है।”

राजमाता जीजाबाई का जीवन केवल मराठा इतिहास तक सीमित नहीं है। वह भारतवर्ष की समूची मातृशक्ति की प्रतीक बन गईं। उनके विचार, शिक्षाएं और दृष्टिकोण आज भी प्रेरणास्रोत हैं।

डॉ. सदाशिव कान्हेरे अपनी पुस्तक ‘भारतीय इतिहास की महामाताएं’ में लिखते हैं कि यदि जीजाबाई जैसी माताएं न होतीं, तो

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