फॉलो करें

संस्कृति साधक विष्णु-ज्योति: आधुनिक असमिया संस्कृति

204 Views
       20 जुन का दिन अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग कारणों से महत्वपूर्ण होता है । हमारे लिए भी है। समस्त असम वासियों एवं 20 जुन में काफी नजदीकी रिश्ता है। यह दिन कला-गुरु विष्णु राभा का स्मृति दिवस है। समस्त असमवासी अपने-अपने स्तर से अपनी-अपनी तरह से इन्हें याद करते हैं। विप्लवी, सृष्टिशील, शिल्पी आदि सभी कलागुरु विष्णु राभा के प्रति श्रद्धा अर्पित करते हैं। विष्णु राभा द्वारा असमिया समाज, साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में प्रदत्त  बहु आयामी अवदान का मूल्यांकन शब्दों में कतई संभव नहीं है क्योंकि उनकी सृष्टि की परिधि काफी व्यापक और विशाल रही है। वे बनना तो चाहते थे फुटबॉल खिलाडी किन्तु जीवन-पथ पर चलते-चलते परिस्थितियों के आह्वान पर क्या-क्या बनते चले गये, इससे वे खुद भी अनजान रहे। उन्होंने जो भी किया, वही उनके लिए आत्मानुसंधान की नवीन सृजनता बनी। चित्रांकन, गीत, नृत्य, अभिनय आदि उन्होंने क्या नहीं किया। विष्णु राभा राजनीति भी करते थे। उनके राजनीतिक मतादर्श के पंथ को लेकर विधिज जनों में मत पार्थक्य हो सकता है, किन्तु इसके बावजूद उनकी विश्वसनीयता व स्वीकार्यता में कोई कमी नहीं रही।
विष्णु राभा के व्यक्तित्व का अध्ययन करने वालों का स्पष्ट मानना है कि विश्वमुखी चिन्तन शैली ने उन्हें विश्व नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित किया। इनके बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्माण में गण-शिल्पी ज्योतिप्रसाद अग्रवाल की सहभागिता की विशेष भूमिका रही है। प्रख्यात साहित्यकार भवानीप्रसाद अधिकारी ने लिखा है विष्णु राभा ज्योतिभक्त थे। उनकी ज्योति प्रीति सतही नहीं बल्कि आदर्शों के प्रति समर्पण के साथ थी। लेखक ने दोनों को एक दूसरे का पूरक मानते हुए, दोनों कलाकारों का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए लिखा है- ज्योतिप्रसाद असमिया जन-जीवन का स्पन्दन अनुभव कर लेते थे। असमिया समाज और यहाँ की मि‌ट्टो की गंध में मोहित उनकी आत्मा असमिया संस्कृति की दुर्दशा को देखकर तड़पती थी। विदेश और स्वदेश की वाक् विचित्रता व भाव प्रकाश शैली का गहन विश्लेषण करके एक नया रूप देना उनकी अनूठी अभिरुचि थी। मानो ज्योति देश-विदेश के चुने हुए हीरे-मोतियों से असमिया वस्त्रों को सजाकर नयी पहचान दे रहे थे तो विष्णु राभा असमियां साँचे में नयी-नयी प्रतिभाओं के सृजन से एक नये असमिया परिवेश – संस्कृति का गठन करने के प्रयास में जुटे थे। ज्योतिप्रसाद को विस्तृत व प्रसारित मानसिकता के साथ विष्णुप्रसाद की विश्वमुखी चिन्ता के अनोखे समन्वय के कारण दोनों में एक दूसरे के प्रति गहरा स्नेह व निकटता थी। दोनों ही परंपरा प्रेमी थे। गौरवमयी असमिया परंपरा के प्रति सदा समर्पित उन दोनों महान आत्माओं को असमिया मात्र हृदयासिक्त स्नेह से ससम्मान पाद-अर्घ्य, वन्दना करके अपने आपको धन्य मानते हैं।
20 जून राभा दिवस व 17 जनवरी शिल्पी दिवस के किसी भी आयोजन में शामिल
कोई संवेदनशील व्यक्ति अनायस ही अन्दाजा लगा सकता है कि असमिया जनमानस में इन दोनों महान कलाकारों के प्रति कितनी गहरी श्रद्धा और आस्था है। असमिया साहित्य में इन विभूतियों पर हजारों पन्नों का अध्ययन प्रकाशित हो चुका है, परन्तु लेखक व पाठक वर्ग आज भी इसे प्रारंभिक अध्ययन मानते हुए और अधिक प्रयास की अपेक्षा करता है।
    श्री अधिकारी ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए उसी लेख में पुनः लिखा है- पृथ्वी पर जिन महापुरुषों ने जन्म ग्रहण किया है उनमें तीन को परंपराओं के सृजक या प्रतीक (कृष्टी’र आक’र) के रूप में जाना जाता है। एक हैं स्वयं श्रीकृष्ण, जो गीत, वाद्य, राजनीति, धनुर्विद्या, रणनीति, सर्वगुण निधान थे। इटली के लियोनाडों द विन्सी, जो कि वैज्ञानिक, चित्रकार व राजनीतिज्ञ के रूप में विश्व में प्रतिष्ठित  हैं। इनके बाद तीसरे व्यक्तित्व के रूप में असम के  महापुरुष श्री श्री शंकरदेव उल्लेखनीय हैं। शंकरदेव को पूरा असमिया समाज गुरु के रूप में पूजता है। असमिया परंपरा, साहित्य या संस्कृति शंकरदेव के योगदान के बिना निर्जीव है। श्रीमंत शंकरदेव क्या नहीं जानते। उन्होंने क्या नहीं दिया मानव समाज को, विशेषकर असम को। ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जो उनकी लेखनी से अछूता रह गया। उन्होंने सब कुछ दिया। गीत, वाद्य, नाट्य, लय-संचार, साहित्य, भाउना-नाट, नाम-कीर्तन, घोषा-बोरगीत, एकांकिका, नामधर, कोल-मृदंग, ताल, भांजघर, दोलयात्रा, हॉरी, धनसंचय, बैंक व्यवस्था, समाज, धर्म, नीति, कानून, अहिन्सा, नैतिक आन्दोलन, त्याग, वैराग्य, समाधि आदि सब
कुछ शंकरदेव की ही देन है। असमिया समाज आज भी आज भी पूर्णरूप से शंकरदेव को समझने और स्वीकारने में सफल साबित नहीं हो पाया है। ज्योति प्रसाद ने शंकरदेव की बहुमुखी प्रतिभा को पहचाना और उनके ‘दर्शन’ के मंथन के प्रयास में जुट गये। ज्योति के माध्यम से विष्णु को शंकरदेव की विशालता को काफी नजदीक से देखने का अवसर मिला। ‘शंकर दर्शन’ से विमुग्ध ज्योति-विष्णु ने उनकी धारावाहिकता को बनाए रखने का सफल प्रयास किया, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है।
  विष्णु राभा अपने उदार व विश्वमुखी चिन्तन के चलते आज भी सर्वत्र ग्रहणीय व वंदनीय हैं। उनकी महानता ने उन्हें व्यापकता दी है। उनके आदर्शों ने सहस्त्रों की संख्या में अनुगामियों को पथ का संधान दिया है। ज्योतिप्रसाद के सानिध्य में व उनके समानान्तर निजी चिन्तन और अनूठी शैली में राभा की रचनाओं ने असमिया संगीत में अभिनव धारा का शुरूआत की। राभा ने विश्व-संस्कृति-सागर से = असमिया संस्कृति को विचित्रता प्रदान की। दक्षिण अमेरिकी सुर का असमियाकरण “नाहर फुले नुहुवाय टगर फुले हुआबो” जैसी अनेक रचनाएँ हैं जिनके समायोजन ने असमिया कला-संस्कृति को समृद्धि दी, वहीं राभा को चिरस्मरणीय बनाया। ज्योति-विष्णु का वह काल असमिया समाज संस्कृति का स्वर्णिम का था। 1936 में असम साहित्य सभा के तेजपुर अधवेशन के अध्यक्ष स्वभाव कवि ख्यात रघुनाथ चौधरी ने अपने उद्दात्त सम्बोधन में कहा था- ज्योति की ज्योति और राभा की आभा से असमिया संगीत का आकाश उज्ज्वल हो उठा है।
    यथार्थ पर आधारित विष्णु-ज्योति दर्शन की प्रासंगिकता कभी म्लान नहीं हो सकती। मानव संस्कृति के विकास हेतु इनके आदशों की केवल प्रतिष्ठा नहीं वरन् शुद्ध भावना से क्रियान्वन की आवश्यकता है। आशा है संदर्भित जन, संगठन अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन अवश्य करेंगे।
उमेश खंडेलिया धेमाजी, 9954756161
Best Regards,
Madan Singhal
Patrakar  &  Sahityakar
Agarsen Siksha Sansthan
(inside Phulbari,Shillong Patty)
Silchar – 788001, Assam.
Mob : 9435073653,03842267606 (R)

Share this post:

Leave a Comment

खबरें और भी हैं...

लाइव क्रिकट स्कोर

कोरोना अपडेट

Weather Data Source: Wetter Indien 7 tage

राशिफल