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कहानी गुड़गांव के एक बेटी की

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15 जुलाई 1999, गुरुग्राम की एक साधारण सुबह, जब एक बेटी का जन्म हुआ। यह कोई आम दिन नहीं था — यह एक नई दिशा की शुरुआत थी। उस क्षण शायद किसी को अंदाज़ा नहीं था कि यह बेटी एक दिन संघर्ष, आत्मबल और नारी शक्ति का जीवंत प्रतीक बन जाएगी।
बाल्यकाल से ही उसने जीवन को बहुत गहराई से महसूस करना शुरू किया। हर अवसर को उसने अपने अभ्यास और समझदारी से सँवारा। जब दुनिया बाहरी सजावट में उलझी थी, तब वह अपने भीतर ज्ञान, धैर्य और आत्मविश्वास की नींव रख रही थी।
शैक्षणिक जीवन में वह हमेशा अपने लक्ष्यों के प्रति समर्पित रही। न तो उसने किसी मंच पर अपनी प्रशंसा चाही, न ही कोई दिखावा किया। वह बस चुपचाप, ईमानदारी से आगे बढ़ती रही — हर कदम पर सादगी और गंभीरता का परिचय देते हुए।
बारहवीं में शानदार अंक लाकर वह दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित मिरांडा हाउस कॉलेज पहुँची — अपने प्रयास और लगन के बल पर।
दिल्ली के एक प्रतिष्ठित महिला महाविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उसकी सोच में और विस्तार आया। वह न केवल पुस्तकों में उत्कृष्ट रही, बल्कि सामाजिक सहभागिता, विचार विमर्श और रचनात्मक संवाद में भी अपनी पहचान बनाने लगी।
कॉलेज के तीन वर्षों में उसकी सोच और व्यक्तित्व में असाधारण बदलाव आया। सिर्फ़ पढ़ाई ही नहीं, बल्कि सामाजिक मंचों पर सक्रियता, ग्राउंड वर्क, और नेतृत्व क्षमता ने उसे एक अलग पहचान दी। फिर उसने IIMC (भारतीय जन संचार संस्थान) में प्रवेश लिया और पत्रकारिता के क्षेत्र में नए आयामों को छुआ।
परिस्थितियाँ कभी भी आसान नहीं थीं, लेकिन उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। विश्वास, संयम और संस्कारों के सहारे वह निरंतर आगे बढ़ती रही — बिना किसी शोर के, बिना किसी शिकायत के।
आज वह जहाँ है, वहाँ तक पहुँचने की राह किसी शोहरत से नहीं, बल्कि मौन साधना और आत्मविश्वास से भरी रही है। वह उन हजारों बेटियों के लिए प्रेरणा है, जो अपनी पहचान खुद बनाना चाहती हैं — बिना किसी सहारे के, बिना किसी विशेष सुविधा के।
“कुछ आवाज़ें चिल्लाती नहीं, फिर भी उन्हें युगों तक सुना जाता है।”
यह कहानी एक ऐसी ही बेटी की है — जिसकी खामोशी भी एक बदलाव की दस्तक है

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