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भाषा सिर्फ भूगोल नहीं – बंगला को विदेशी बताने की खतरनाक प्रवृत्ति!

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शिलचर।बंगला भाषा सिर्फ एक संवाद का माध्यम नहीं है, यह एक गौरवमयी परंपरा, एक चेतना और एक जातीय पहचान का बहुआयामी प्रतिबिंब है। रवींद्रनाथ ठाकुर के विश्व-चिंतन, काज़ी नज़रुल इस्लाम की विद्रोही वाणी, सुचित्रा सेन की पर्दे पर भावनाएँ और सत्यजीत रे के कैमरे की भाषा—इन सबके पीछे है बंगला। यह भाषा हमारे अस्तित्व, पहचान और गर्व का हिस्सा है। लेकिन हाल ही में ऐसी घटना घटी है जिसने करोड़ों भारतीय बंगालियों की संवैधानिक गरिमा और सांस्कृतिक पहचान का अपमान किया है।
दिल्ली पुलिस की एक आधिकारिक एफआईआर (FIR No. 51/2025) में एक आरोपी की भाषा के रूप में लिखा गया—”Bangladeshi national language”। यानी, बंगला भाषा को सीधे तौर पर ‘बांग्लादेश की राष्ट्रीय भाषा’ बताया गया। यह घटना सामने आते ही पूरे देश में आक्रोश फैल गया। दिल्ली, कोलकाता, शिलचर, अगरतला, मुंबई, बेंगलुरु सहित विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए। सोशल मीडिया पर #RespectBengaliLanguage हैशटैग के साथ शिक्षाविद, साहित्यकार, पत्रकार, समाजसेवी और आम लोग एकजुट होकर विरोध दर्ज कराने लगे।
प्रशासनिक दस्तावेज़ में ऐसी टिप्पणी केवल अज्ञानता या लापरवाही नहीं है। यह linguistic racism—यानी भाषा-आधारित भेदभाव और रंगभेद—का प्रतिबिंब है। भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में बंगला एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय भाषा है। यह देश की दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, जिसके वक्ता 10 करोड़ से अधिक हैं। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के अलावा असम के बराक घाटी, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, दिल्ली और यहाँ तक कि कश्मीर में भी बंगला भाषी लोग रहते हैं। इस भाषा को विदेशी ठहराना संवैधानिक उल्लंघन और राष्ट्रीय एकता के लिए अपमानजनक है।
भाषा केवल भौगोलिक सीमाओं में सीमित नहीं रहती। जैसे—हिंदी भारत के अलावा नेपाल, फिजी, मॉरीशस में भी बोली जाती है; उसी तरह बंगला भारत और बांग्लादेश के बीच एक आत्मिक सेतु का काम करती है। इसलिए, बंगला बोलते ही किसी को ‘बांग्लादेशी’ मान लेना एक तरह की राजनीतिक  otheringहै—जो विभाजन और अविश्वास बढ़ाती है।
विवाद के बीच भाजपा के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने टिप्पणी की—बांग्लादेश में सिर्फ बंगला ही नहीं, बल्कि सिलहटी भी बोली जाती है, जिसका भारतीय बंगालियों से कोई संबंध नहीं। यह बयान और अधिक आक्रोश भड़काता है।
तृणमूल सांसद सुष्मिता देव ने कहा—सिलहटी बंगला का ही समृद्ध रूप है, जो बराक घाटी में सदियों से बोली जा रही है। इसे नज़रअंदाज़ करना इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर का अपमान है।
शिलचर के पूर्व सांसद राजदीप राय ने लिखा—सिलहटी भाषा बांग्लादेश से भी पुरानी है, और गुरुसदय दत्त, बिपिनचंद्र पाल, चैतन्य महाप्रभु—ये सभी सिलहटी थे। सिलहटी को नज़रअंदाज़ करना बंगाली इतिहास को नज़रअंदाज़ करना है।
राज्यसभा सांसद कनाद पुरकायस्थ** ने कहा—भारत में कम से कम 50 लाख सिलहटी भाषी बंगाली हैं, जो बराक घाटी, त्रिपुरा, ब्रह्मपुत्र घाटी, मेघालय और पश्चिम बंगाल में फैले हुए हैं। स्वतंत्रता सेनानी बिपिनचंद्र पाल, संविधान सभा के सदस्य निबारनचंद्र लस्कर, भाषा शहीद कमला भट्टाचार्य, शिक्षाविद त्रिगुणा सेन, पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोषमोहन देव—ये सभी सिलहटी भाषी थे। आज भी संसद में कई सदस्य और राज्य के मंत्री सिलहटी को मुख्य भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
घटना के एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी दिल्ली पुलिस या केंद्र सरकार ने कोई आधिकारिक माफी या स्पष्टीकरण नहीं दिया। बराक घाटी के भाजपा सांसद, विधायक और राज्य नेतृत्व भी चुप हैं। यह चुप्पी क्या सिर्फ प्रशासनिक उदासीनता है, या यह किसी सोची-समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा—यह सवाल अब बंगाली समाज में गूँज रहा है।
दिल्ली पुलिस के दस्तावेज़ में बंगला को ‘बांग्लादेशी भाषा’ कहना केवल इतिहास-विस्मृति नहीं है; यह भविष्य में भ्रम फैलाने का बीज बोता है। अगर पीढ़ी दर पीढ़ी प्रशासनिक दस्तावेज़ में ऐसे गलत उल्लेख मिलेंगे, तो उनके मन में भाषा और पहचान को लेकर गलत धारणाएँ पैदा होंगी।
आज अगर बंगला भाषा का अपमान होता है, तो कल कोई और भाषा निशाना बन सकती है। इसलिए यह केवल बंगालियों की लड़ाई नहीं—भारत की बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक एकता के लिए यह एक सामूहिक ज़िम्मेदारी है। भाषा की गरिमा की रक्षा करना, देश की सांस्कृतिक एकता और बहुलतावाद को बचाना है।
बंगला भाषा हमारा गर्व है, हमारी पहचान है। इसे ‘बांग्लादेशी’ ठप्पे में बाँधने की कोशिश दरअसल भारत के संविधान और सांस्कृतिक नींव पर सीधा हमला है। इस हमले के खिलाफ खड़े होना ही हमारी सामूहिक प्रतिज्ञा हो—ताकि भविष्य में कोई प्रशासनिक दस्तावेज़ हमारी भाषा का अपमान करने की हिम्मत न कर सके।

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