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शिलचर।देश की सुरक्षा और न्याय व्यवस्था पर एक के बाद एक सवाल गहराते जा रहे हैं। अब यह सवालों का तूफ़ान खड़ा किया है सत्ताधारी दल के ही शिलचर विधानसभा के विधायक की विस्फोटक स्वीकारोक्ति ने। सीमा पार करके बांग्लादेश से लोग पश्चिम बंगाल में हत्या करते हैं और फिर वापस लौट जाते हैं इस तरह का आरोप खुलेआम लगाकर उन्होंने मानो अपनी ही सरकार के गले में फंदा डाल दिया।
शिलचर के विधायक दीपायन चक्रवर्ती ने हाल ही में बंगला भाषा विवाद पर सोशल मीडिया में एक वीडियो डाला (वीडियो कुछ दिन पहले रात करीब एक बजे उनके फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर पोस्ट हुआ)।
तृणमूल नेता ममता बनर्जी पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि बंगला भाषा पर बोलने का ममता बनर्जी को कोई नैतिक अधिकार नहीं है। ममता बनर्जी और सांसद सुष्मिता देव भाषा को लेकर राजनीति कर रहे हैं। अमित मालवीय, दिल्ली पुलिस और पश्चिम बंगाल भाजपा नेता शमीक भट्टाचार्य के बयानों को उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से सही ठहराया।यह उनके भाषण से लगभग स्पष्ट हो गया।
विधायक ने आगे कहा कि बांग्लादेश से आकर आतंकवादी पश्चिम बंगाल में हत्या करते हैं और फिर बांग्लादेश लौट जाते हैं। तब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहां होती हैं? हालांकि, अमित मालवीय और शमीक भट्टाचार्य के बंगला भाषा पर अपमानजनक टिप्पणी पर उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने सांसद कनाद पुरकायस्थ और पूर्व सांसद राजदीप राय की तरह सोशल मीडिया में दृढ़ और स्पष्ट विरोध भी नहीं किया। भाषा प्रेमियों के मन में सवाल उठ रहा है कि क्या विधायक ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए अपनी मातृभाषा के अपमान पर भी चुप्पी साध ली?
इधर, विधायक की इस टिप्पणी पर सवाल उठ रहे हैं तो फिर सीमा पर बीएसएफ बैठकर क्या कर रही है? अगर यह सच है, तो क्या सीमा सुरक्षा बल की मिलीभगत से यह अवैध घुसपैठ और अपराध हो रहा है? उल्लेखनीय है कि बीएसएफ सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है, जो सत्ताधारी दल के हाथ में है। इसलिए आरोपों की उंगली घूम-फिर कर दिल्ली की ओर ही उठ रही है—शायद विधायक ने इसका अंदाज़ा नहीं लगाया था, या फिर मुँह से सच निकल गया।
जब सत्ताधारी दल का नेता खुद कह देता है कि सीमा से अवैध तरीके से अपराधी घुसते हैं और अपराध करके सुरक्षित लौट जाते हैं, तब समझना मुश्किल नहीं कि सुरक्षा का पाठ पढ़ाने वाले ही देश की सुरक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी नाकामी का दस्तावेज़ लिख रहे हैं।
पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक की अचानक मृत्यु ने भी कई सवाल खड़े किए हैं। हालांकि वे बीमार थे, लेकिन उसी बीमारी के दौरान केंद्रीय एजेंसी ने उनसे पूछताछ की ऐसा कई मीडिया रिपोर्टों में आया। मृत्यु के बाद संवैधानिक पदाधिकारी के रूप में उन्हें मिलने वाला राजकीय सम्मान तक नहीं दिया गया। यह सिर्फ़ व्यक्तिगत अपमान नहीं, बल्कि राष्ट्र की गरिमा के प्रति नग्न उदासीनता है।
और भी हैरान करने वाली बात पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का रहस्यमय ग़ायब होना। वह कोई आम नागरिक नहीं, भारत के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर रहे हैं। अगर उनका ही पता नहीं चलता, तो आम नागरिक की सुरक्षा कितनी डगमग है, यह बताने की ज़रूरत नहीं।
एक ही दल लगातार तीसरी बार सत्ता में आकर भी देश के नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रहा है। बल्कि, नेताओं के बयानों से ही सीमा पर निगरानी की नाकामी, प्रशासनिक लापरवाही और सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरी साफ़ दिख रही है। बीएसएफ पहरा दे रही है फिर भी अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ संभव इसका जवाब जनता नहीं, बल्कि दिल्ली से आना चाहिए।
सत्ताधारी दल का अहंकार इतना चरम पर है कि देश के एक पूर्व राज्यपाल को न्यूनतम श्रद्धांजलि देना भी उन्होंने ज़रूरी नहीं समझा। यह उदासीनता साफ़ कर देती है कि संवैधानिक पद, सीमा सुरक्षा और आम नागरिक की सुरक्षा सब कुछ आज राजनीतिक फ़ायदे की नज़र से देखा जा रहा है।
जब सीमा के प्रहरी होते हुए भी अपराधी घुसकर अपराध करें और फिर सुरक्षित लौट जाएं, जब पूर्व उपराष्ट्रपति लापता हों, और पूर्व राज्यपाल मृत्यु के बाद भी सम्मान न पाए तब सवाल उठाना विलासिता नहीं, यह नागरिक का वैध अधिकार है। और इन सवालों का जवाब सत्ता में बैठे लोगों को देना ही होगा।





















