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क्या करना चाहिए?

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अचानक रास्ते में एक बिजली के खंभे पर समीर की दृष्टि पड़ी तो उसने उसपर कुछ कलम से लिखा हुआ पन्ना चिपका हुआ देखा। पास जाकर पढ़ा तो उसपर लिखा था – “कृपया ध्यान दीजिए……
इस रास्ते पर कल मेरा एक सौ रुपए का एक नोट गिर गया था । मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता, वह नोट यदि आपको मिले तो कृपया नीचे लिखे पते पर दे सकते हैं। मैं बहुत ग़रीब हूँ। मेरे लिए उस नोट की कीमत बहुत अधिक है।”
समीर को यह पढ़कर पता नहीं क्यों, उस पते पर उस व्यक्ति के पास जाने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई । उसने पता अपनी हथेली पर लिख लिया और उसी ओर चल पड़ा। दिया गया पता पास में ही उस गली के आखिरी में ही मिल गया था।
पता सुनिश्चित कर लेने पर उसने देखा कि बाहर कोई घंटी नहीं है और दरवाजा भी जर्जर दशा में है। उसने आवाज ऊंची कर आवाज लगाई तो एक वृद्धा लाठी के सहारे धीरे-धीरे बाहर आई । समीर को अहसास हुआ कि वह बिलकुल अकेली रहती है औऱ अब उसका इस दुनिया में कोई नहीं है। उसे ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा था।
       हालात को पूरी तरह भांपते हुए उसने उस वृद्धा से कहा-  “माँ जी। देखिए आपका जो सौ रुपये का नोट कल खो गया था, वह मुझे अभी- अभी मिला है। मैं उसे ही आपको देने आया हूँ।” यह कहकर उसने अपनी जेब से एक सौ रुपए का एक नोट निकालकर वृद्धा की तरफ बढ़ा दिया।
      नोट लेने की जगह वह वृद्धा अचानक ही फूटफूटकर रोने लगी। समीर परेशान हो उठा। उसने वृद्धा को संभाला। थोड़ी देर बाद वृद्धा ने संयत होकर कहा-
      “बेटा, मैं अकेली और बेसहारा हूं। पास पड़ोस में कुछ मांगकर खा लेती हूं। आज सुबह से ही करीब दस व्यक्ति मुझे सौ सौ रुपए के नोट यही कहकर दे चुके हैं कि मेरा खोया नोट ले आए हैं। मै पढ़ी-लिखी नहीं हूँ। ठीक से दिखाई भी नहीं देता। पता नहीं बेटा, किस भलेमानुस ने मेरी इस हालत को देखकर और मेरी मदद करने के उद्देश्य से कुछ किया है कि लोग मेरे घर सौ रूपए का नोट लेकर आते हैं और बिल्कुल यही बात बोलकर मुझे देने लगते हैं। बेटा। मेरे पास कहां से रूपये आयेंगे, जो गिराकर आऊंगी। ये रुपए मेरे नहीं हैं, तुम रख लो ।”
तब समीर ने उसे बताया कि बिजली के खंभे पर उसने क्या देखा-पढ़ा था, जिससे वह अपने पास के रूपये से मदद के लिए आया था।
समीर के बहुत कहने पर बुढ़िया ने पैसे तो रख लिए पर उसने एक शर्त रख दी –  “बेटा, जिसे पढ़कर सब मेरे पास आ रहे हैं, वह मैंने नहीं लिखा है । किसी ने मुझ पर तरस खाकर लिखा होगा, बेसहारा हूँ न शायद इसलिए… जाते-जाते उस काग़ज़ को जरूर फाड़कर फेंक देना बेटा, नहीं तो लोगों को लगेगा कि उनके साथ धोखा हो रहा है और अच्छा काम करने वाले लोगों का विश्वास घट जाएगा, फिर किसी वास्तविक जरूरतमंद की शायद समय पर लोग मदद करने से हिचकेंगे।”
     समीर ने सहमति देकर वृद्धा को टाल तो दिया था, परन्तु उसकी अंतरात्मा ने उसे धर्मसंकट में डाल दिया। वह यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उससे पहले आनेवालों से भी उस “माँ” ने यही कहा होगा । लेकिन किसी ने भी उस कागज़ को नहीं फाड़ा था। अब उसे बड़ी उलझन सी हो गई।
      एक तरफ उसको लिखने वाले के प्रति उसके हृदय में श्रद्धा और सम्मान उमड़ रहा था, जिसने उस बेसहारा वृद्धा के जीवन यापन की  व्यवस्था बनाई थी, दूसरी ओर वृद्धा का वह भय, जो सदा सर्वदा के लिए मानवता और मानव मूल्यों के लिए चिंतित रहने का था। उसे समझ में नहीं आया कि वह किस ओर जाए। लौटते हुए वह रास्ते के वृक्ष के नीचे छाया में खड़ा होकर सोचने लगा। सोचते हुए उसका ध्यान वृक्ष की शाखाओं, पत्तों और फल की ओर चला गया। अचानक उसे वृक्ष की नियति सोचकर निर्णय का मार्ग मिल गया। ‘समष्टि के लिए व्यष्टि को अपने हित का त्याग करना होता है।’
       वृद्धा ने यही किया था। वह खंभे के पास वापस आकर कागज़ को थोड़ी देर तक देखता रहा। फिर धीरे से उसे निकालकर अपनी जेब में रखता हुआ आगे बढ़ चला।
        समीर के हृदय में शब्द गूंज रहे थे –  ‘दूसरों की मदद करने के तरीके कई हैं, सिर्फ मदद करने की तीव्र इच्छा मन मॆ होनी चाहिए। कुछ सत्कर्म अपने जीवन में ऐसे भी होने चाहिए, जिनका ईश्वर के सिवाय कोई और साक्षी न हो।’
फेसबुक वाल से साभार संकलित

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