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शिलचर (बराक घाटी):
शारदीय दुर्गोत्सव बांग्ला समाज का सबसे बड़ा सांस्कृतिक पर्व माना जाता है। बराक उपत्यका की राजधानी शिलचर में यह पर्व हर वर्ष एक विशेष रंग और उत्साह लेकर आता है। माँ दुर्गा के आगमन से लेकर विसर्जन तक शहर का हर कोना आनंद, उत्साह और मेल-मिलाप की भावना से सराबोर रहा।
षष्ठी से ही ढाक की थाप गूंजने लगी और मंडपों में जगमगाती रोशनी के बीच उमड़ने लगे श्रद्धालु। सप्तमी की रात शहर की गलियाँ मानो जनसैलाब से भर उठीं। हर पूजा समिति ने अपनी-अपनी ओर से विशेष साज-सज्जा और थीम के माध्यम से लोगों को आकर्षित किया—कहीं आधुनिक रोशनी की छटा तो कहीं परंपरा की झलक।
अष्टमी के दिन दोपहर से तेज़ आँधी-पानी शुरू हो जाने के बावजूद भक्तों का उत्साह कम नहीं हुआ। सिर पर छाता और भीगते हुए भी लोग एक मंडप से दूसरे मंडप तक पहुँचते रहे। शाम की आरती में ढाक-ढोल की थाप और धुन ने भक्ति का ऐसा वातावरण रचा कि हर कोई मंत्रमुग्ध हो उठा। कुमारी पूजा के क्षणों में शिलचरवासियों की भावनाएँ चरम पर पहुँच गईं।
नवमी पर भी बारिश ने कई बार बाधा डाली, फिर भी श्रद्धालुओं के उत्साह में कोई कमी नहीं आई। अंजलि, प्रसाद वितरण और हवन से पूजा पंडाल जीवंत बने रहे।
दशमी की सुबह से ही पूरे वातावरण में विदाई का दर्द घुलने लगा। महिलाओं के बीच सिंदूर खेला ने रंग भर दिए तो शाम ढलते ही विसर्जन घाटों पर उमड़ने लगी हजारों की भीड़। रात साढ़े चार बजे तक प्रतिमाओं का विसर्जन चलता रहा। ढाक की गूँज, उत्साह और आँखों के आँसुओं के बीच शिलचर ने माँ को विदा किया।
इतिहास गवाह है कि कभी दुर्गोत्सव केवल राजमहलों और संपन्न घरों तक सीमित था। लेकिन समय के साथ यह पर्व अब सर्वजन का उत्सव बन चुका है। आज यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और सामाजिक मेल-जोल का महान अवसर है।
साल 2025 का शिलचर दुर्गोत्सव भी इस धरोहर को फिर एक बार प्रमाणित कर गया। आँधी-पानी, भीड़ और थकान के बावजूद लोगों के मन में वही चिरंतन प्रश्न गूँजता रहा—”फिर कब आएँगी माँ?” विजयादशमी की रात उसी प्रतीक्षा और अगले वर्ष की गिनती की शुरुआत के साथ समाप्त हुई।




















