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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर कुछ लोगों के जो प्रश्न और शंकाएँ हैं, वे आज या कल की नहीं हैं — वे स्वाधीनता-काल से ही चली आ रही हैं।
जो केवल प्रश्न पूछकर भाग जाते हैं, उन्हें उत्तर कैसे मिले? इसलिए वे प्रश्न बार-बार दोहराए जाते हैं और अब वे परंपरागत प्रश्न बन चुके हैं। संघ शताब्दी समारोह के अवसर पर भी इनकी अज्ञानपूर्ण शंकाएँ शताब्दी पार कर चुकी हैं।
इन प्रश्नों का उत्तर संघ ने स्वाधीनता-काल में ही दे दिया था। जिन्हें संघ के प्रति जिज्ञासा थी, उन्हें उत्तर मिल चुका है। उनमें से अधिकांश लोग संघ में सम्मिलित होकर उसे स्वीकार भी कर चुके हैं। लेकिन जो विरोध करते हैं, वे केवल प्रश्न पूछते रहते हैं; उन्हें उत्तर चाहिए ही नहीं, क्योंकि यदि उत्तर मिल जाए तो प्रश्न करने का अवसर ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए वे वही पुराने प्रश्न दोहराते रहते हैं। इस प्रकार, संघ के विषय में उनके प्रश्नों का भी अब एक शताब्दी का इतिहास बन चुका है।
देश को कमजोर करने के लिए विदेशी शक्तियाँ यहाँ की राष्ट्रविरोधी ताकतों का उपयोग कर भारत को अस्थिर करने के संगठित प्रयास में लगी हैं। लेकिन इन प्रश्नासुरों को उस विषय में कोई प्रश्न नहीं सूझता।
देश को स्वतंत्र हुए 78 वर्ष हो चुके हैं। उस समय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले अधिकांश महापुरुष अब इस संसार में नहीं हैं।
संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार कांग्रेस में रहकर स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से सहभागी थे और जेल भी गए थे। वे उस समय की क्रांतिकारी संस्था ‘अनुशीलन समिति’ से भी जुड़े थे। बाद में उन्होंने कांग्रेस से बाहर आकर संघ की स्थापना की।
फिर भी प्रश्नासुरों का यह कहना कि “आरएसएस ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया” — उनके गहरे पूर्वाग्रह का परिणाम है।
तो अब प्रश्न यह है कि संघ उन्हें मनाने के लिए क्या करे? संघ के संस्थापक स्वयं स्वतंत्रता सेनानी थे; वे अब जीवित नहीं हैं। उन्हें मनाने के लिए संघ के कार्यकर्ता अब क्या कर सकते हैं?
ठीक है, आपके दल के लोग स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे, यह आपकी देशभक्ति की विरासत है — स्वीकार है।
लेकिन जब “पाकिस्तान जिंदाबाद” के नारे लगते हैं, तब आपका खून क्यों नहीं खौलता?
आप उन देशद्रोहियों का समर्थन क्यों करते हैं?
तो क्या इसका अर्थ यह नहीं कि स्वतंत्रता मिलने के बाद भी आपकी मानसिक गुलामी समाप्त नहीं हुई?
यदि ऐसा है, तो उस स्वतंत्रता का मूल्य क्या रह गया?
उस मानसिक गुलामी से बाहर आने का उत्तर तो स्वयं संघ ही है।
अब आते हैं उन लोगों पर, जो पूछते हैं कि “संघ अपने कार्यालय में राष्ट्रीय ध्वज क्यों नहीं फहराता?” —
उन्हें शायद यह ज्ञान नहीं कि संविधान के अनुरूप एक ध्वज संहिता (Flag Code) है, जिसमें यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय ध्वज हर स्थान पर नहीं फहराया जा सकता।
यदि स्वतंत्रता संग्राम के बाद की पीढ़ी को इन नियमों की जानकारी ही नहीं, तो यह स्वयं उनके अज्ञान का प्रमाण है।
फिर वही प्रश्न क्यों दोहराए जाते हैं?
अब बात करते हैं “हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा की।
हर देश का एक मूल इतिहास होता है, उसकी एक प्राचीनता होती है, और वह अपनी मूल जनजाति, अपनी संस्कृति और परंपरा से गहराई से जुड़ा रहता है।
केवल तभी वह राष्ट्र आत्मसम्मानपूर्ण कहा जा सकता है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी यही उद्घोष है —
“हिमालयं समारभ्यः यावत् हिन्दु सरोवरम्।
तं देव निर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥”
अर्थात् — हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक फैले देव-निर्मित इस देश को “हिंदुस्थान” कहा जाता है।
पाँच हजार वर्षों से अधिक पहले रचित बृहस्पति पुराण में ‘हिंदू’ की यह अस्मिता वर्णित है।
किन्तु अरब और यूरोपीय आक्रमणों के बाद जब भारत जातिविहीनता और ‘धर्मनिरपेक्षता’ की माया में उलझ गया, तब क्या हिंदू जन को अपनी प्राचीन अस्मिता और इतिहास भूल जाना चाहिए?
क्या हमें अपनी सभ्यता का तिरस्कार करना चाहिए?
हम पर अनेक बार बाहरी जनजातियों ने आक्रमण किया, फिर भी भारत तब भी हिंदू राष्ट्र था, अब भी है, और आगे भी रहेगा।
यदि हम मानसिक रूप से गुलाम बने रहेंगे, अपने स्वाभिमान और स्वदेशभाव को भूल जाएँगे, तब भी यह भूमि हिंदू राष्ट्र ही रहेगी।
भारत की विशेषता उसकी विविधता है — और हिंदू समाज भी उसी विविधता का अंग है।
क्योंकि हिंदू के लिए उसका धर्म और उसका देश अलग-अलग नहीं हो सकते।
यह इस भूमि की सभ्यता का मूल तत्व है।
इस देश की स्वतंत्रता के लिए साढ़े छह लाख से अधिक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी।
फिर भी कुछ लोग केवल 135 वर्षों के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध संघर्ष को ही स्वतंत्रता संग्राम मानते हैं।
यह हमारे उन पूर्वजों का अपमान है, जिन्होंने हज़ारों वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों — यूनानियों, हूणों, मुगलों, ग़ज़नी और ग़ोरी — से संघर्ष किया।
क्या वह स्वतंत्रता संग्राम नहीं था?
उन सभी संघर्षों का उद्देश्य भी तो यही था — अपनी भूमि और धर्म की रक्षा।
दुर्भाग्य से हम अपने युवाओं को इस स्वाधीनता के गौरवशाली इतिहास से परिचित कराने में असफल रहे हैं।
आज की पीढ़ी को अपने पराक्रमी अतीत का ज्ञान ही नहीं है।
जो लोग यह कहते हैं कि “हमारे पूर्वज स्वतंत्रता सेनानी थे” — उन्हें गर्व होना चाहिए, पर उसके साथ यह प्रश्न भी उठता है कि क्या वही स्वदेशी भावना, आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान और देशभक्ति आज हमारे भीतर विद्यमान है?
यदि वह भाव आज भी जीवित है, तो वही सच्ची देशभक्ति है।
और यदि वह भावना अब भी किसी के भीतर जीवित है — तो वह संघ के स्वयंसेवकों के भीतर है।
संघ आज भी अपनी शाखाओं में उसी राष्ट्रप्रेम, त्याग, अनुशासन और देशभक्ति की शिक्षा देता है,
जो विद्यालयों और पाठ्यपुस्तकों में दी जानी चाहिए थी, पर दी नहीं गई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पिछले एक शताब्दी से इस ज्ञान-परंपरा की विरासत को आगे बढ़ा रहा है —
यही उसकी सौ वर्षों की उपलब्धियों में से एक महान उपलब्धि है।




















