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शब्दों का जाल
— संजय अग्रवाला, जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल
ये जो तनहाई में बैठकर
अक्षरों से बातें करते हो न तुम,
जो शब्दों की डोर बुनकर
अपनी ही दुनिया रचते हो न तुम,
एक दिन यही जाल
तुम्हें खुद में ही उलझा लेगा।
जो कागज़ पर बहते
ये अनजाने एहसास हैं,
जो हर पंक्ति में छिपे
अनकहे कुछ राज़ हैं,
जो धड़कनों में घुलकर
स्याही बन बहते हैं,
कभी कराहते, कभी मुस्कुराते,
पर अंततः वही रह जाते हैं।
और जो तुम्हारे अंदर
एक दीवाना बसता है न,
जो हर पीड़ा को
छंदों में समेट लेता है,
जो हर आँसू को
कविता में ढाल देता है,
वो एक दिन सब कुछ छीनकर
तुम्हें भी तुमसे ही छीन लेगा।
तब तुम्हारे शब्द
तुम्हारी परछाई बन जाएँगे,
हर ख़ामोशी
किसी ग़ज़ल का हिस्सा होगी,
और तुम्हारे अपने ही एहसास
तुमसे अपरिचित लगेंगे।
और तब शायद,
तुम सच में कवि बन जाओ…
हाँ, शायद तब ही तुम
उस कविता को जी पाओ,
जिसे लिखते-लिखते
खुद को खो चुके हो…





















