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1823 में रॉबर्ट ब्रूस ने असम में जंगली चाय के पौधों की पहचान की थी। यह घटना भारत के इतिहास को एक नए ढंग से लिखने वाली साबित हुई। इसके बाद मजदूरों का बंधुआ प्रवासन शुरू हुआ और लाखों मजदूरों को असम लाया गया, जहाँ उन्हें चाय बागानों में काम पर लगाया गया।
वह समय के वे अनकहे नायक थे। उन्होंने कठोर मौसम, जंगली जानवरों, नई बीमारियों और अकल्पनीय कठिनाइयों के साथ-साथ लगभग बंधुआगिरी जैसी जिंदगी से लड़ते हुए काम किया। ऐसे कठोर हालात में उन्होंने उठकर अपने खून और पसीने से असम को विश्व का सबसे बड़ा और श्रेष्ठ चाय उत्पादक प्रदेश बनाया। उन्होंने राज्य और देश का नाम ऊँचा किया। यह एक ऐसा समुदाय है जो हमेशा समय की मांग पर खरा उतरा है। उसने कभी भी किसी चुनौती से पीछे हटना नहीं जाना — चाहे वह विश्व के सबसे कठिन क्षेत्रों में स्टिलवेल रोड का निर्माण हो या रेलमार्गों, सड़कों के विस्तार का कार्य। वे आधुनिक असम के निर्माता हैं।
फिर भी, शोषण कई व्यवस्थागत रूपों में लंबे समय तक जारी रहा। समुदाय के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी भूमि अधिकार की। जिस भूमि पर वे सदियों से रहते आए, उस पर अधिकार के बिना स्वतंत्रता की कल्पना दूर की चीज थी। भूमि पर अधिकार का अभाव सोच, कल्पना और अपनत्व के भाव को सीमित कर देता है। इस समुदाय का भूमि से संबंध हमेशा असुरक्षित रहा।

आज असम भूमि सीमा निर्धारण (संशोधन) विधेयक 2025 के पारित होने के साथ, अपनत्व का सपना हकीकत बन गया है। समान दर्जे और समान अवसर का संवैधानिक लक्ष्य असम के चाय-जनजातियों के लिए अब तक अप्राप्त था। यह विधेयक जब अधिनियम बनेगा, तो समुदाय और राज्य के लिए एक नए युग की शुरुआत करेगा। चाय जनजातियों ने चुनौतियों का सामना सदैव किया है, अब उनके सामने अवसरों का समय है।
मुझे विश्वास है कि मेहनतकश समुदाय इस अवसर का पूरा लाभ उठाएगा और अपनी क्षमता से कहीं अधिक हासिल कर असम को गर्व महसूस कराता रहेगा।
इस साहसिक, दूरदर्शी और प्रभावकारी निर्णय के लिए सभी सम्बंधित लोगों को, विशेषकर राज्य सरकार को धन्यवाद।
यह ऐतिहासिक निर्णय चाय बागानों में बसे लाखों लोगों के लिए वास्तविक मुक्ति का सूत्रपात है।





















