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आखिर हिन्दी ही क्यों ! ! ! – अजय कुमार सिंह

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आखिर हिन्दी ही क्यों ! ! !
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विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की राजभाषा हिन्दी की निरन्तर बढ़ रही उपयोगिता एवं लोकप्रियता ने जहां एक ओर इसे राष्ट्रभाषा के रूप में परिभाषित किया वहीं दूसरी ओर इसे वैश्विक स्तर पर एक सशक्त सम्पर्कभाषा के रूप में इस प्रकार सम्मानित किया जैसे :-
हिन्दी से मिल रही है सबको नई आशा ।
इसने तो बदल दिया है जीवन की परिभाषा ।।
वस्तुत: वैश्विक स्तर पर हिन्दी के इस बढ़ते आयाम का मुख्य कारण इसकी सरलता, सुगमता एवं सार्वभौमिक प्रासंगिकता मानी जाती है क्योंकि देवभाषा संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री कही जाने वाली हिन्दी की लिपि देवनागरी है, जो कम्प्यूटर के लिए सबसे सरल एवं सुग्राह्य है, जिसे अमेरिकन वैज्ञानिक ” रिक ब्रिग्ज ” ने भी स्वीकार किया तथा इसे एक वैज्ञानिक भाषा की संज्ञा दी । यह सर्वविदित है कि हिन्दी भाषा के शब्दकोष में कुल ढ़ाई लाख शब्द है जबकि आंग्ल भाषा के शब्दकोष में शब्दों की कुल संख्या मात्र दस हजार ही है, तभी तो हिन्दी में एक चीज के लिए एक ही शब्द प्रयोग किए जाते हैं जबकि आंग्ल भाषा में अनेक चीजों के लिए एक ही शब्द के प्रयोग किए जाते हैं। दूसरी ओर हमारी राजभाषा हिन्दी जिस प्रकार बोली जाती है ठीक उसी प्रकार लिखी भी जाती है। इसीलिए इसे सहजता से कोई भी अपना सकता है। खासकर भारत जैसे भाषाई विविधता वाले देश में अगर हिन्दी न होती तो हमारी एकता और अखंडता कभी भी अक्षुण्ण नहीं रह पाती । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में यदि हिन्दी का प्रयोग राष्ट्रभाषा के रूप में न हुआ होता तो हम एकजुट कभी नहीं हो पाते । हमारी सांस्कृतिक ‌विविधताएं हमें एक दूसरे के करीब नहीं आने देती। आज हिन्दी के लिए यह स्वीकारोक्ति सचमुच सत्यस्वरूप मानी जाती है कि :- संस्कृति को एक हार के रूप में, जोड़ सके वो कड़ी है हिन्दी ।
प्यार से भारत माता कहें, सचमुच मुझसे बड़ी है हिन्दी ।।
किसी भी देश की पहचान होती है, उस देश का राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रभाषा । इनमें से हम दो तो सहज अपनाकर गौरवान्वित होते हैं परन्तु तीसरे के लिए हम पूछते हैं कि * आखिर हिन्दी ही क्यों ? * जबकि प्रत्यक्ष प्रमाण
प्रस्तुत हैं।
 आज वैश्विकरण के इस युग में भारत एक विश्व बाजार के रूप में परिभाषित हो चुका है और विश्व बाजार को भाषा की बहुलता कदापि स्वीकार नहींं है। यही कारण है कि आज कई भाषाओं के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है। वहीं दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने हिन्दी के अस्तित्व को सहज स्वीकार कर लिया है । वस्तुत:यह हमारे लिए अति गर्व का विषय है कि:-
“है गढ़ भारत किन्तु विदेश में रूप -स्वरूप गढ़ा रही हिन्दी एशिया यूरोप अफ्रीका में भी, निज राष्ट्र का मान बढ़ा रहीहिन्दी।
वैसे भी विश्व के १८० देशों रह रहे भारतीय मूल के लोगों ने नि:सन्देह अपनी भाषा और संस्कृति से विश्व समुदाय को परिचित ही नहीं अपितु प्रभावित भी किया । आज संयुक्त राष्ट्र संघ में भी हिन्दी गूंजने लगी है। विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में अनिवार्य रूप से हिन्दी का पठन-पाठन एवं वहां के आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से हिन्दी के कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को प्रतिस्थापित करने में भारतीय सिनेमा और मीडिया जगत की सराहनीय भूमिका रही है, जिसने जन जन तक हिन्दी को पहुंचाया। आज हर किसी के मोबाइल में लगे रिंग टोन बस हिन्दी की ही मिलेगी फिर भी कभी कभी हमारी घृणित मानसिकता तब दृष्टिगोचर हो जाती है जब हम अपनी मातृभाषा एवं मातृभूमि को भूलने की भूल कर अप-टू-डेट बनने का प्रयास किया करते हैं। जबकि कहा गया है कि:-+-
“मातृभाषा परित्य्ज्य येन अन्य भाषामुपासते ।
तत्रस्यानति हि ते दशा यत्र सूर्यो न भासते ।।
आज विश्व की ७६० करोड़ आबादी में ३२६ भाषाएं एवं १६५० जनपदीय बोलियां बोली जाती है। फिर भी हमारी राजभाषा हिन्दी को ही विश्वभाषा का सम्मान मिला, इसका मतलब ये नहीं है कि अन्य भाषाओं की महत्ता नहीं है, बेशक है। आप अन्य भाषा भी सीखे। भाषा कोई भी हो ,यह हमारे विचारों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है।” भाषाई समृद्धि भी जरूरी है मगर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इस उक्ति का स्मरण रहे कि:-
“अंग्रेजी पढ़ के यद्यपि सब गुण होत प्रवीण ।
पे निज भाषा ज्ञान बिन रहता दीन के दीन ।।
हिन्दी की प्रासंगिकता तब भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी । आवश्यकता है सिर्फ अपनी सोच बदल सम्मान से जीने की आदत डालें, हर रूप में आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करें। संचार क्रांति की तमाम अवधारणाओं के अनूरूप हिन्दी हर जगह आपके लिए कदम से कदम मिलाकर चलने को प्रस्तुत है। चाहे वह शिक्षा, सेवा, ज्ञान, विज्ञान, मनोरंजन, व्यवसाय, कम्प्यूटर इत्यादि। फिर भी अगर कोई ये पूछे कि “आखिर हिन्दी ही क्यों ? क्या है ये हिन्दी ? इन प्रश्न का उत्तर तो यही होगा कि :-++
“मैं भारत की वाणी हूॅ, पीड़ा भरी कहानी हूॅऺ ।
सबकी प्यास बुझाने वाली मैं चिर् प्यासी पानी हूॅऺ ।।”
आज के संदर्भ में हिन्दी उनके प्रति आभार प्रकट करती है, जिन्होंने इसे किसी न किसी रूप में अपनाया और इसके प्रचार -प्रसार में अपनी महती भूमिका निभाई और आगे भी इस हेतु संकल्पित हो। असम राज्य की इस बराक घाटी में प्रकाशित होने वाली एकमात्र हिन्दी दैनिक प्रेरणा भारती, दैनिक पूर्वोदय व दैनिक पूर्वांचल प्रहरी के सामानांतर हिन्दी सेवा हेतु संकल्पित है। इसके अतिरिक्त बराक हिन्दी साहित्य समिति, हिन्दी भाषी समन्वय मंच सदृश अनेक सामाजिक संस्थाओं द्वारा इस दिशा में बर्षों से सराहनीय प्रस्तुति दी जा रही है ।अनेक विद्यालय, महाविद्यालय ही नहीं विश्वविद्यालय भी अपने अपने ढंग से हिन्दी सेवा और सम्मान हेतु समर्पित है ताकि जनमानस को इतना तो अवश्य ही ज्ञात हो कि:-++—आखिर हिन्दी ही क्यों ! !! !!!
वस्तुत: –
*जन-जन के कंठ से निकले हिन्दी अब तो बन के बहार ,
भारत मॉऺ को नहीं चाहिए और कोई उपहार ।
अपनी इच्छा का करती हूॅऺ मैं तुमसे इजहार ,
देवनागरी में ही कीजिए बस मेरा श्रृंगार ।।
जय हिन्दी ! जय हिन्दुस्तान !!
पांचग्राम, हाइलाकांदी, असम

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