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सीधे पल्ले की साड़ी पहने,माथे पर बर्तनों की झल्ली (टोकरी) और बगल में कपड़े की गठरी लिए अक्सर गुवाहाटी की गलियों में आपको तीखे नाक-नक्श की महिलाएं दिखेंगी।तपती धूप हो,कड़कड़ाती ठंड या मॉनसून का मौसम हर मौसम में ये गुजराती महिलाएं अपने रोजमर्रा के व्यापार के लिए गुवाहाटी के घर घर जा कर मध्यम वर्ग से वो कपड़े खरीदती हैं जिससे घर वाले ऊब गए हैं।
ये व्यापार बड़ा दिलचस्प है।घर घर जा कर ‘उतरन’ खरीदने वाली ये महिलाएं एक तरह से मध्यमवर्ग और निम्न-आय वर्ग के नागरिकों के बीच की कड़ी हैं।ये एक समाज की ‘ ऊब ‘ को खरीद कर दूसरे की ‘जरुरत’ बना कर बेचतीं हैं।इस ”ऊब की खरीद” तथा “जरूरत की बिक्री” के बीच की मजदूरी और मुनाफा इन महिलाओं के परिवारों की रोटी-कपड़ा-मकान का जुगाड़ है।इनकेे पास रात्रि-शयन के लिए भाड़े का मकान तो है पर सुबह के नास्ते से लेकर रात का खाना ये खाना-बदोशों की तरह ही खा पाते हैं।ऐसा इस लिए की इस व्यापार में दिखती सिर्फ वो महिला है पर इस हाड़-तोड़ मेहनत वाले व्यापार में परिवार के हर सदस्य को खपना पड़ता है।अतः पूरा खाना बनाने का समय इनके पास नहीं है।
दिलचस्प बात ये भी है कि आज भी ये महिला-व्यापारी कमोबेश बार्टर सिस्टम (वस्तु के बदले वस्तु) से व्यापार करती हैं।ये उतरन (पुराने कपड़ों) के बदले घर में उपयोग आने वाले स्टील के बर्तन देती हैं।फिर उन पुराने कपड़ों को वे गुवाहाटी के विभिन्न स्थानों पर सड़क किनारे दुकान लगा कर बेच देती हैं।गुवाहाटी के प्रसिद्ध राजमहल होटल के सामने की फुटपाथ, मालीगांव का रेल-कॉलोनी बाजार और बेलतला की साप्ताहिक हाट इस उतरन बेचने वालियों की पसंदीदा जगह है।
गुवाहाटी में ऐसा व्यापार करने वाले कुल बहत्तर-पचहत्तर परिवार हैं।पलटन बाजार पुलिस स्टेशन के सामने से गुजर कर आप जब शोलापाड़ा की तरफ जाएंगें तब दाहिने मुड़ने वाली सड़क पर एक चौड़े नाले के किनारे और उसके आस-पास फैली मलिन बस्ती में इन सारे गुजरात मूल के परिवारों का बसेरा है।ये कुनबा द्वितीय विश्व-युद्ध में आज के म्यांमार और तब के वर्मा से विस्थापित हो कर आया बताते हैं।
बस्ती की एक अम्मा के अनुसार द्वितीय विश्वयुद्ध के समय गुजरात के कई व्यापारी तब के वर्मा में अपना समृद्ध व्यापार चलाते थे।युद्ध की त्रासदी के चलते उन्हें सबकुछ छोड़ कर वहां से अपने देश भारत आना पड़ा।शायद वे वहां बर्तनों के व्यापारी रहे होंगे।सामान्य गरीब लोग उस समय कपड़े नाममात्र ही पहनते थे।लगता है विस्थापन की लंबी यात्रा में वे व्यापारी अपनी दुकान में बेचे जाने वाले बर्तनों को तब के अच्छी नौकरी पेशा या कुछ सम्पन्न लोगों को देते रहे और उनसे उनके पुराने कपड़े ले कर सामान्य कृषकों-मजदूरों के मुहैया कराते रहे हों।उस लंबी यात्रा में कई लोग गुजरात पहुंचते उसके पहले ही भारत में विभिन्न जगहों में बस गए हो सकते हैं।मैंने इस समुदाय के लोगों को ऐसा व्यापार करते कोलकाता और अन्य शहरों में भी देखा है।
गुवाहाटी के ये सभी परिवार लगता है कालांतर के एक ही खानदान का विस्तार है।सभी माली जाती के लोग हैं ऐसा उनका कहना है।उनके अनुसार उनके पूर्वजों का गांव गुजरात का विरमगांव है।इनमें से कई लोग अब भी अपने पूर्वजों के गांव साल में एकाध बार जाते हैं।
नाले किनारे बसे दस घरों में से एक में मैं अपने एक लेखक मित्र के साथ रविवार की सुबह सात बजे पहुंचा तब नाले की पुलिया पर तीन-चार माल ढुलाई वाले ऑटो खड़े थे।सभी ऑटो पर पुराने कपड़ों की गांठे लादी जा रही थी।पूर्व परिचित अम्मा सामने के खोखे से चाय ले कर आ रही थी।हमें देख कर पुलिया के किनारे वाले एक कमरे के घर में ले गई।अम्मा ने माल लोड करते सभी पुरुषों,महिलाओं और युवकों को वहां बुला कर हमारा परिचय कराया।उन सभी खोखे से लाई चाय की चुस्कियों के साथ बातचीत हुई।चूंकि सबने नौ बजे से पहले बेलतला बाजार पहुंचना था इसलिए उनके पास हमें देने के लिए आधा घण्टा ही था।
उनसे हुई बातचीत से पता चला कि स्थानीय वोटर लिस्ट में उनका नाम दर्ज है और उनके पास बीपीएल कार्ड भी है।ये सारे परिवार करीब आठ दशकों से गुवाहाटी की गलियों और सड़कों पर एक ही व्यापार में लगे हैं।कमरतोड़ मेहनत के बाद भी ये अपने परिवार की बेसिक जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते।शिक्षा के लिए खर्च करने के लिए इनके पास पैसे नहीं है।पूरे कुनबे में सबसे ज्यादा पढा लिखा युवक भी सिर्फ बारहवीं पास ही है।हम जिस घर में बैठे थे उसके आसपास के दस घरों के लिए दो टॉयलेट (संडाश)और एक स्नानघर है।सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना अधिकतर उन्हें अपने कार्यस्थल की सस्ती होटल में ही खाना पड़ता है।जिसका अनुभव हमें बाहर के खोखे से लाई चाय पिलाने से ही हो गया था।दस घरों में से एक भी घर में तब तक चूल्हा नहीं जला था,सभी खोखे की चाय ही पी रहे थे।देर होने से ऑटो वाले चले जाएंगे और नौ बजे तक वे अपने जगह नहीं पहुंच पाएंगे।
इनकी पीड़ा थी कि उन जैसे ही काम करने वाले कोलकाता,दिल्ली और अन्य शहर में काम करने वालों को प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत घर मिला है पर गुवाहाटी के इस मेहनतकश कुनबे में किसी एक को भी ये सुविधा नहीं मिली है।इन्हें कोई पेंशन भी नहीं मिल रही।इन परिवारों को बेलतला बाजार में अपनी फुटपाथी दुकानों के लिए प्रतिदिन दो सौ रुपये देने होते हैं।मालीगांव बाजार में शुक्रवार के दिन बैठते हैं वहां भाड़ा तो सिर्फ पांच रुपये प्रतिदिन है पर सुविधा बिल्कुल नहीं है।इन परिवारों की समृद्धि का पैमाना इनके पुराने कपड़ों की गांठ है।जो जितनी गांठ की दुकानदारी करता है वो उतना समृद्ध माना जाता है।
अपनी दुश्वारियों को ले कर वे अपने पिछले नगर निगम मेयर से मिलते रहे हैं।उनके हिसाब से उन्होंने उनकी भरसक सहायता भी की थी।गुजरात का ये देवी-पूजक समाज अपनी कुलदेवी का मंदिर यहां बनाना चाहता है।उन्होंने नगर-निगम मेयर मृगेन शरनिया से मंदिर बनाने के लिए सहायता मांगी थी।उन्होंने जगह खोजने की बात कही थी ,फिर उनका कार्यकाल ही खत्म हो गया।
गुजरात का ये समाज इस बात से पीड़ित है कि उनके पूर्वजों के प्रांत गुजरात,उनकी कर्मभूमि असम और पूरे देश में एक ही पार्टी की सरकार के होने के बावजूद उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
देश के प्रधानमंत्री मोदीजी की बात छेड़ने पर उनके चेहरे पर स्वाभाविक गर्व दिखने लगा।उनमें से एक का कहना था कि उसने सुना है कि असम के सर्वानंद सोनोवाल मोदीजी के दोस्त हैं,कोई उनकी बात सोनोवालजी तक पहुंचा दें तो मोदीजी तक उनकी बात पहुंच जाएगी।
-संवेद अनु,गुवाहाटी
9435559588