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किसी समय में सेम का पौधा घर की सुरक्षा में लगी घास फूस की टटिया पर फैल कर रसोई की महीने 2 महीने का इंतजाम कर देता था!
और कभी छप्पर (खपरैल) की छत पर फैली लौकी कद्दू की बेले मिलकर महीने 2 महीने सब्जी का खर्च निकाल देती थी!
खलियान में फैली कद्दू की बेल पर लगने वाले पीले पीले फूलों से स्वादिष्ट और सुगंधित पकोडीयों से सुबह के नाश्ता में महीना कब निकल जाता था; पता ही नहीं लगता था!
जेठ, बैशाख के महीने में दाल और कुमड़े(कुमेहड़ा) से बनी बडीयां (बरीं) जाड़ों तक का रसोई का खर्च झेल जाती थी!
इन्हीं महीनों में अम्मा के हाथ का बना बथुआ और भात खाने का भी अपना अलग ही तरह का आनंद होता था; ऐसा लगता था! मानो! स्वर्ग में परोसे जाने वाले भोजन का आनंद ले रहे हो!
सावन,भादो के महीने में भूसे के गुगों पर फैली तोरई की बेलें; तथा तालाब पर पानी में उगने वाली चोलाई और नारी के साथ से रसोई के कई महा निकल जाते थे!
यह वह दिन थे; जब सब्जी पर होने वाले खर्च का अहसास! तक नहीं होता था!
जाड़े के मौसम में गांव के बाहर घूरें के ढेरों पर या फिर पानी के नल के पास के स्थान को साफ कर; धनिए के बीज को जूते से रगड़ कर कुछ समय तक घूरे में; पोटली बांधकर गाड़ दिया जाता था!
उसके बाद उसकी क्यारियां बनाकर देते थे; और उसके चारों ओर लहसन, बाकला, मूली, देसी टमाटर, फूलगोभी की लगा दिए जाते थे!
फिर जाड़े की सीजन में इन सभी सब्जियों का भोकाल चलता था! जैसे-जैसे शरद ऋतु आगे बढ़ती;
मूली और टमाटर तथा हरे धनिया की चटनी को तो जमाई वाला रुतबा हासिल हो जाता था!
खिचड़ी के साथ तो हरी चटनी, मूली का चोली दामन का साथ होता था!
तब हम लोगों को जीडीपी का कोई ज्ञान नहीं था!
राजनीति में पडकर हम अपना आपसी व्यवहार खराब नहीं करते थे!
ना! ही! एक दूसरे के प्रति बैर और जलन की भावना थी! लाख वैचारिक मतभेद होने के बाद भी; हम सब में आपसी प्रेम और मानवता थी!
यह सभी सब्जियां सर्व सुलभ और रसोई की साथी थीं!
अगर घर पर कोई मेहमान आ जाते थे; तो तीन चार सब्जियों का इंतजाम तो चुटकी बजाते यूं ही हो जाता था!
वह भी बिल्कुल ऑर्गेनिक एकदम शुद्ध!
गर्मी के मौसम में गांव के चारों ओर आम की बगिया से आंधी में गिरे आमों से पूरे साल के अचार का इंतजाम हो जाता था!
गांव के अंदर लगी आटा पीसने वाली चक्की से गेहूं का आटा पीसकर शुद्ध आता था!
जैसे-जैसे शाम को एक घर से धुआं उठता था; तो फिर क्या? गोबर से बने कंडे के टुकड़े को लेकर आग मांग कर लाने का सिलसिला भी शुरू हो जाता था!
सूरज के ढलने के समय रेडियो पर चौपाल और आकाशवाणी के मनमोहक समाचारों और कार्यक्रमों से दिन विदा लेता था!
रात में छतों पर सोते समय फुल आवाज में रेडियो पर विविध भारती के सतरंगी गानों की धुनें गूंजा करती थी; जिसकी स्वर लहरियां हवा में एक गांव से दूसरे गांव तक सुनाई देती थी!
रातें बड़ी होती थी; द्वा!रे द्वारे! खटीयों पर बिस्तर लगाए जाते थे!
मर्द घर से बाहर दरवाजों पर सोते थे;वहीं महिलाएं घर के आंगन में खटिया बिछा कर सोती थी!
हर तीसरे दरवाजे पर कथा कहानियां, बुझजनीयां होती थी! कहीं-कहीं तो बड़े बूढ़े एक साथ बैठकर आल्हा का राग छेड़ देते थे!
जो किसी बड़े मनोरंजक कार्यक्रम से कम नहीं होता था!
घर के बीच आंगन में लगे नीम के पेड़ के नीचे पड़ी खटिया में बहुएं अपनी साड़ी से पर्दा खींचकर सोती थी!
वहीं बच्चे अपनी दादी से कहानी सुनते सुनते सो जाते थे!
एक एक व्यक्ति के कम से कम पांच पांच बच्चे होते थे! लेकिन सब खुश, हष्ट पुष्ट, सबके सपने पूरे होते थे!
लेकिन महंगाई कभी उन बड़े बूढ़ों को हडी नहीं!
उन्होंने कभी आंदोलन नहीं किया!
एकदम खुश और मस्त लोग थे!
तब किसानों में कर्ज का फैशन बिल्कुल नहीं था!
किसान कर्ज से ऐसे घबराते थे; नाम लेने मात्र से ही जैसे सांप की पूंछ पर पैर पड़ गया हो!
समय बदला,आ गया टेलीविजन और नौकरी का जमाना!
बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही टीवी देख कर कोट पैंट और जींस पहनने लगे सेंट का तो जैसे चलन ही चल पड़ा!
सरकारी नौकरी वाले दामादो में बेटियों के पिताओं को भगवान विष्णु नजर आने लगे!
बच्चियों को नारायण के साथ बिहाने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड, गृह ऋण, गोल्ड लोन मजबूरी बन गया!
और वक्त बदलता ही चला गया, और फिर आया वकीलों और इंजीनियरों का दौर!
इनसे रिश्तो के लिए बेटियों के बाप अपने पूर्वजों की संपत्ति भी बेचने को तैयार थे! फिर क्या था?
धीरे धीरे घर की कच्ची दीवारों पर सेम की बैलों को फैलाने वाली बेटियां अपने पति के साथ रहने फ्लैटों में चली गई!
जहां जाकर, उन्हीं बेटियों ने कैक्टस के पौधे उगाने शुरू कर दिए!
और फिर देखते ही! देखते! सब्जियां भी महंगी हो गई!
बहुत पुरानी यादें ताजा हो गई।
सच में सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं होता था! कहीं महंगाई नहीं थी!
जिसके पास कुछ नहीं था उसका भी काम चलता था।
महंगाई का दूर-दूर तक नामोनिशान न था।
सिर्फ था! तो चैनो अमन, प्यार, सम्मान, भाईचारा, बड़े छोटे की तहजीब!
पुराने दिनों में दही,मट्ठा की भरमार थी;
जिसके पास कुछ नहीं था,उसका भी काम चलता था।
चना, मटर गुड,आम,जामुन;
सबके लिए उपलब्ध रहता था।
बेमेल विचारों के रहते भी;
अगाध आपसी प्रेम था।
आज की दकियानूसी,बैर,वैमनस्य,जलन भरी मानसिकता;
तब उसका नामोनिशान न था।
हाय रे! आधुनिकता! हाय रे! ऊंची शिक्षा;
कहां तक ले आई,
चारों तरफ सिर्फ महंगाई ही महंगाई;
बेफिजूल खर्चों से घिरे इंसान,आडंबर में अपनी नींद गवाई।
विचारणीय है कि:
क्या हमारा लक्ष्य यही है, जिधर हम जा रहे हैं। या फिर सिर्फ हम गफलत में हैं!और जिंदगी का सफर यूं ही जारी है!
——-संकलित। सुधाकर शुक्ला