जब मैं बहुत छोटी थी। नानी कहा करती थीं। जब तू पैदा हुई वर्षा ऋतु में 15 भादों को, तब देवता सो रहे थे। बाद में जाना कि शिशिर, बसंत और ग्रीष्म.. ये तीन ऋतुएँ देवताओं का दिन होती हैं। तब देवता जागते रहते हैं। और वर्षा, शरद और हेमंत उनकी रात होती हैं। तब देवता सोए रहते हैं। लगता है मैं ज़िंदगी भर जो सोचती रही, लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने का जतन था जो इंसान के भीतर सो गए हैं..
पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री मानी जाने वालीं मशहूर लेखिका और साहित्यकार अमृता प्रीतम ने यह वक्तव्य 16 अप्रैल, 1983 के दिन तब दिया, जब उनके कविता-संग्रह ‘कागज और कैनवस’ को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया।
31 अगस्त, 2024 को 105 वीं जयंती पर उन्हें याद करते हुए जब हम उनके समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक सरसरी निगाह भी डालते हैं, तो भी बार-बार यही आभास होता है कि वे एक ऐसी लेखनी थीं जो अपने उपन्यासों, निबंधों, नज़्मों और कविताओं के माध्यम से मानव के भीतर सो गए देवता को जगाने का अनवरत जतन करती रहीं। अमृता जी यह मानती थीं कि जब मानवीय चेतना स्त्री-पुरुष के दैहिक दायरे से ऊपर उठ जाती है, तब ही सही मायनों में साहित्य का सृजन होता है।
अक्षरों से प्यार करो, व्यापार नहीं
वर्ष 1983 में जब अमृता प्रीतम जी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तब उन्होंने कहा कि अर्धनारीश्वर का फलसफा खो गया तो दासता पैदा हुई। शिव शक्ति जैसा चिंतन खो गया तो जड़ता पैदा हुई। धर्म खो गया तो प्रतिकर्म में से मज़हब पैदा हुआ। आत्मा खो गई तो शरीर एक वस्तु बन गया। मजहब और सियासत बहुत बड़े माध्यम बन गए जिनके हाथों वस्तु बन चुके इंसान का व्यापार होता है।
यह दुनिया लफ्ज़ फरोशों की दुनिया है। मेरी नज़रों में दो ही तरह के लोग होते हैं। एक जो अक्षरों को प्यार करते हैं और एक जो अक्षरों का व्यापार करते हैं। जिस तरह से मजहब और सियासत के दायरे में अक्षरों का व्यापार होता है, उसी तरह अदब के दायरे में भी अक्षरों का व्यापार होता है। अक्षरों से प्यार करो। अक्षरों का व्यापार नहीं।
फिर कोई भी बर्तन न हिंदू रहा न मुसलमान
अमृता प्रीतम के पिता करतार सिंह लेखक व संपादक थे। वे पहले ब्रज भाषा में लिखते थे फिर पंजाबी में लिखने लगे। हर जाति-धर्म के कवि, साहित्यकारों और शायरों का उनके घर में आना-जाना रहता था। एक दिन अमृता ने गौर किया तो देखा कि उनकी नानी ने हिंदुओं और सिखों को चाय-पानी के लिए अलग बर्तन रखे हैं जबकि मुसलमानों के लिए अलग। इस पर वे अड़ गईं कि वह भी मुसलमानों वाले बर्तन में ही चाय-पानी ग्रहण करेंगी। उनके पिता को जब यह पता चला तो वह नानी पर बहुत नाराज हुए। इसके बाद घर में कोई भी बर्तन न हिंदू रहा, न मुसलमान रहा।
पिता ने समझाया क़ाफिया रदीफ
अमृता जब मात्र 11 वर्ष की थीं तब उनकी माँ राज बीबी चल बसी थीं। तब उन्हें ऐसा एहसास हुआ जैसे ईश्वर उनसे बेगाना हो गया हो। घर में किताबों का ढेर लगा था। इन किताबों के बीच खुद भी वो एक किताब सा खामोश पड़ी रहतीं। उन्हें लगता किताबों के वरक खाली नहीं हैं पर मैं ऐसी किताब हूँ जिसके वरक खाली हैं। इसी अकेलेपन और खालीपन को भरने के लिए उन्होंने हाथ में कलम थाम ली। तब उनके पिता ही उनके पहले गुरु हुए। उन्होंने ही उनको लेखन के संस्कार दिए। ग़ज़ल- लेखन में क़ाफिया और रदीफ के मायने समझाए।
गालियों के रूप में जो छप गई अखबार पर
उस कविता को आज भी लोग गा रहे मजार पर
जब भारत का विभाजन हुआ तो इस बँटवारे से अमृता का हृदय तड़पकर चीत्कार कर उठा। आँखों से आँसू बनकर तमाम कविताएँ कागज पर उतर आईं। इन्हीं कविताओं में उन्होंने एक कविता वारिस शाह के नाम लिखी। इस कविता के लिए उन्हें समाज का बहुत विरोध झेलना पड़ा। लोगों ने कहा कि यह कविता गुरु नानक के नाम होनी चाहिए थी। लेनिन या स्टेलिन के नाम होनी चाहिए थी। तब अमृता के नाम अखबार गालियों से भर गए। हालांकि वही कविता फिर इतनी प्रसिद्ध हुई कि लोग इसे बाजारों और चौबारों में गाते रहे। रोते रहे। आज भी यह कविता पाकिस्तान में वारिस शाह के मजार पर उर्स के दिनों में गाई जाती है।
वारिस शाह! आज तुमसे मुखातिब हूँ
उठो अपनी कब्र में से बोलो
और मोहब्बत की किताब का नया वरक खोलो
इंसानियत की किताब का
लोगों के दुख-दर्द की किताब का
जब पंजाब में एक बेटी रोई थी वारिस शाह!
तुमने उसकी दास्तान लिखी थी
हीर की दास्तान
आज तो लाखों बेटियाँ रो रही हैं
वारिस शाह! तुमसे कहती हैं
उठो कब्र में से बोलो
उठो अपना पंजाब देखो
जहाँ लाशें बिछी हुई हैं
चनाब दरिया में अब पानी नहीं बहता
खून बहता है
हीर को जहर देने वाला एक चाचा कैदो था
अब तो सब चाचा कैदो हो गए
राँझे की बाँसुरी खो गई
गले से गीत टूट गए
पानी में जहर किसने मिला दिया
रजनीश ओशो ने भी दिया सम्मान
अपनी रचनाओं से जन-जन के हृदय में प्रेम और इंसानियत का बीज बोने वाली अमृता प्रीतम को वर्ष 1986 में राज्यसभा के लिए नामित किया गया। वहीं भारत के पांच विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी-लिट की मानद उपाधि से सम्मानित भी किया।
देश-दुनिया के लाखों लोग उनका सम्मान करते थे। रजनीश भी उनसे खासे प्रभावित और प्रेरित थे। ओशो ने अमृता जी को जब अपनी कुछ किताबों की भूमिका लिखने के लिए कहा तो हर्ष और आश्चर्य के मिश्रित भाव से उनका हृदय भर आया।
अमृता जी ने लिखा..
जब किसी के आने से उस काया का अंग अंग खिलने लगा तो आने वाले का नाम कहानीकार हुआ। जब किसी के आने से उस काया के साँस बौराने लगे तो आने वाले का नाम कवि हुआ। जब किसी के आने से उस काया के प्राण दीपक से जलने लगे तो आने वाले का नाम ऋषि हुआ और इन सब से तरंगित जब किसी के आने से उस काया की आँखों में प्रेम और प्रार्थना का एक आँसू उभर आया तो उस आँसू का नाम रजनीश हुआ। ओशो हुआ।
कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रेम और प्रार्थना का, आँसू और करुणा का, संवेदना और कविता का, कथा और ज़िंदगी का, मानवता और इंसानियत का, आत्म बल और आत्मविश्वास का यही नाता, यही जज़्बा और यही रूप अमृता प्रीतम के शब्द-शब्द में आजीवन छलकता रहा.. पृष्ठ-पृष्ठ झलकता रहा..
सांई!
तू मुझे अपनी चिलम से
थोड़ी सी आग दे दे
मैं तेरी अगरबत्ती हूँ
और तेरी दरगाह पर मुझे
एक घड़ी जलना है..