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#Chargola_Exodus1921 एक अनकही दास्तान- राजदीप राय

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भारतीय इतिहास में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हुआ सबसे बड़ा श्रमिक आंदोलन, जिसमें ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जलियांवाला बाग से भी बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया था मगर नियति की परिहास देखिए कि इतिहास के पन्नों में ना तो उस आंदोलन को जगह मिली और नाही उसके सूत्रधारों को।

दरअसल औपनिवेशिक काल में बंधुआ मजदूरी करवाने केलिए गिरमिटिया एक्ट बनाया गया, जिसके तहत असम के चाय बागानों केलिए छोटानागपुर संथाल परगना, जंगलमहल के वनवासियों को चुना गया था और भारत के विभिन्न नगरों में स्थापित उद्योगों और मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, टोबैगो जैसे देशों में गन्ना और गेहूं खेतों में काम करवाने केलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग चुने गए।

असम में सबसे पहले चाय बागान ब्रह्मपुत्र घाटी में लगाया गया, जहां बड़े पैमाने पर छोटानागपुर, संथाल परगना और जंगलमहल के वनवासी मजदूरों को बसाया गया। जब जरूरत की अपेक्षा मजदूरों की आपूर्ति नहीं हुई तो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से भी मजदूरों को लाया गया।

खासकर अविभाजित सुरमा घाटी (जिसका बड़ा हिस्सा बंटवारे में पाकिस्तान में चला गया जो अब बांग्लादेश में है) में चाय बागान लगाए जाने लगे तब यूपी बिहार से ही लोगों को लाया गया था।

असम के बराक घाटी (अविभक्त सुरमा घाटी) में सबसे पहले 1855 में शिलचर के निकटवर्ती बरसांगन इलाके में चाय बागान लगाया गया।उनदिनों चाय श्रमिकों को मजदूरी दर के रूप में कंपनी की ओर से एक मैनेजमेंट का मुहर लगा हुआ कागज का पर्ची (टोकन) दिया जाता था, जिसका चलन चाय बागानों में चलने वाले छोटे दुकानों और बाजारों तक ही सीमित था। जिस पर्ची को चाय बागान के व्यापारी जमाकर फिर बागान मैनेजमेंट को जमा करते और विनिमय में रुपये लेते थें।

चाय श्रमिकों को रुपये ना देने का मुख्य कारण था ये कभी भाग कर अपने मूल राज्य या गांव ना जा सकें। मगर धीरे धीरे जब कुछ दशक बीता और बीसवीं सदी की शुरुआत हुई तब कंपनी ने चाय श्रमिकों को उनके मजदूरी के बदले पैसे देना शुरू किया। प्रथम विश्वयुद्ध 1914 में जब शुरू हुआ था, तब सुरमा घाटी(बराक घाटी) के श्रमिकों साप्ताहिक मजदूरी पांच आना मिलता था लेकिन जैसे जैसे युद्ध बढ़ता गया कंपनी ने ब्रिटेन का आर्थिक नुकसान का हवाला देते हुए साप्ताहिक मजदूरी पांच आना से घटाकर तीन आना कर दिया।

चाय श्रमिकों को उम्मीद थी युद्ध के बाद मजदूरी दर में बृद्धि होगी लेकिन 1918 में जब प्रथम विश्वयुद्ध खत्म हुआ, उसके बाद भी इनके मजदूरी में कोई बृद्धि नहीं हुई, जिससे बागान श्रमिकों में आक्रोश भर गया।

उस समय चाय बागानों में खासकर श्रमिकों के रिहायशी इलाकों में किसी बाहरी व्यक्ति का आवाजाही पूर्णतः प्रतिबंधित था। चाय श्रमिकों का बागान से बाहर किसी प्रकार का संबंध रखना अपराध की श्रेणी में आता था। जरूरत का समान क्रय विक्रय के लिए बागान में ही कुछ लोगों को दुकान का परमिशन दिया गया था जिसके चलते वो बाहर से सामान खरीदकर बागान में बेचते थें। इसके अलावा बागानों में पूजा पाठ आदि कार्यक्रमों के लिए एक बागान से दूसरे बागान में पंडितों के आने जाने पर छूट था। 

उन्हीं दिनों महात्मा गांधी के आह्वान पर देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था। जिसका असर असम के चाय बागानों में पड़ना शुरू हुआ। पंडित देवसरण त्रिपाठी जो तत्कालीन अविभाजित सिलहट (बांग्ला में श्रीहट्ट या सिलेट कहा जाता है) जिले के श्रीमंगल चायबागान में पैदा हुए थें और बाद में उनके पिताजी उन्हें लेकर सिलहट के ही करीमगंज महकूमा के अन्तर्गत लौंगाई वैली के मेदली चाय बागान में आकर बस गए थें, वे लौंगाई वैली (पाथरकांदी विधानसभा क्षेत्र) और चरगोला वैली (राताबाड़ी विधानसभा क्षेत्र) के चाय बागानों में घूमकर पुरोहिती का कार्य करके अपनी जीविका चलाते थें और उसी साथ चाय श्रमिकों के मन में स्वतंत्रता की विगुल फूंकते थें।

इन्हीं के साथ और एक व्यक्ति थें जो उत्तरप्रदेश के गोरखपुर से अपने किसी संबंधित के साथ असम आकर चरगोला चाय बागान में बस गए थें उनका नाम था पंडित राधाकृष्ण पांडेय जिन्हें आम बोलचाल की भाषा मे लोग पं. राधाकिशुन कहते थे। वे उपोरोहिती के कार्य केसाथ ही छोटा मोटा व्यापार भी करते थें। इसके अलावा वो बहुत ही प्रखर वक्ता थें, जिनके वाणी में ओज तो था ही साथ में उनका मस्तिष्क भी बहुत सृजनशील था। ये अपनी वाणी और मस्तिष्क का प्रयोग चाय श्रमिकों में स्वतंत्रता आंदोलन की भावना जगाने केलिए करते थे।

इनके अलावा एक नाम और था गंगादयाल दीक्षित का जो काछार जिले के लखीपुर के बिन्नाकांदी चायबागान के निवासी थें और चायबागानों में घूमकर कपड़ा बेचकर अपना भरण पोषण करते थें, इसकी आड़ में श्रमिकों में स्वतंत्रता की चिंगारी भड़काते थें। 

चरगोला वैली के चाय श्रमिकों को जब धार्मिक गतिविधि और सांस्कृतिक मिलनकेन्द्र की जरूरत महसूस हुई तब दुल्लभछोड़ा के पंडित यमुना प्रसाद चौबे की अगुवाई में ब्रिटिश प्रशासन के अनुशंसा पर स्थानीय चाय श्रमिकों के अनुदान और श्रमदान से सिंगला नदी के तट पर साढ़े बारह बीघा जमीन पर 1903 में “रामजानकी मंदिर” की प्रतिष्ठा हुई थी। यह मंदिर चरगोला वैली के लगभग 25 बागानों के श्रमिकों का सांस्कृतिक केन्द्र था। जहां दूर दराज के लोग ट्रैन पकड़ने केलिए एक दिन पूर्व आकर ठहरते थें और रात को ट्रेन से आकर अपने घर ना जा पाने की स्थिति में रात्रि विश्राम भी करते थें।

अगस्त-सितंबर 1920 को महात्मा गांधी के आग्रह पर देश मे असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तब पंडित देवशरण त्रिपाठी, गंगादयाल दीक्षित और राधाकिशुन पांडेय ने नेतृत्व में इस आंदोलन की आंच चाय बागानों तक पहुँचने में देर नहीं लगी क्योंकि श्रमिकों में अपने मजदूरी दर कटौती को लेकर नाराजगी पहले से ही थी।दुल्लभछोड़ा के रामजानकी मंदिर प्रांगण में अक्सर धर्मसभा के नाम पर चरगोला वैली के श्रमिकों की गुपचुप सभा होने लगी। इसीतरह एक सभा 01 मई 1921 को हुई जिसमें मुख्य वक्ता राधाकिशुन पांडेय ने अपने ओजस्वी भाषण से श्रमिकों को असहयोग आंदोलन के संबंध में बताया उन सबको गुलामी की जंजीरें तोड़कर अपने अपने देश (गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़, बस्ती गोरखपुर आदि) में जाने का सपना दिखाया और श्रमिकों को कंपनी से मजदूरी दर तीन आना के बदले बारह आना करने की मांग केलिए आह्वान किया। अगले दिन स्थानीय श्रमिकों ने अपने अपने बागान मैनेजमेंट से ये मांग किया, जिसे मैनजमेंट ने तुरंत मना कर दिया।

जिसके बाद फिर 02 मई की रात रामजानकी मंदिर में पंडित देवशरण त्रिपाठी, गंगादयाल दीक्षित और राधाकिशुन पांडेय की उपस्थिति में एक सभा हुआ। जिसमें अगले दिन03 मई को सिंगलाछोड़ा चाय बागान के एक सुनसान टीला पर एकत्रित होकर वहां से अपने अपने मूलस्थान केलिए प्रस्थान करने का कार्यक्रम तय हुआ। निर्धारित सूची अनुसार आणिपुर, दुल्लभछोड़ा, मोकामछोड़ा, दामछोड़ा, गंभीरा खेकरागोल आदि बागानों के लगभग साढ़े सात सौ श्रमिक उक्त टीला पर उपस्थित होकर “महात्मा गांधी की जय” “जय हिन्द” बोलकर अपने मूलस्थान केलिए निकल पड़ें।

पैदल चलते चलते हुए करीमगंज, बदरपुर, चांदपुर, मैमनसिंह आदि रैलस्टेशन और स्टीमर घाट पर एकत्रित हुए। कुछ दिनों में ब्रिटिश सरकार के अन्याय अत्याचार के खिलाफ चरगोला वैली के श्रमिकों का अपना काम छोड़कर अपने देश (मूलस्थान) जाने की खबर आसपास के सभी बागानों में जंगल मे आग लगने की तरह फैल गई,  जिसका नतीजा ये हुआ की तत्कालीन अविभाजित सुरमा वैली के सभी चायबागानों से श्रमिक अपना काम छोड़कर अपने मूलस्थान जाने केलिए निकल गए, और साढ़े सातसौ की भीड़ देखते देखते बीस हजार के पहुंच गई।

इसके बाद ब्रिटिश प्रशासन में हड़कंप मच गया वे तुरंत रेल स्टेशन और स्टीमर घाटों पर एकत्रित भीड़ को समझा बुझाकर डरा कर अपने बागानों में लौटाने का प्रयास करने लगी। लेकिन श्रमिक अपने इरादे से टस से मस नहीं हुई क्योंकि उनका का नेतृत्व पंडित देवशरण त्रिपाठी कर रहे थें। ब्रिटिश प्रशासन ने कुछ दिन के लिए रेल और स्टीमर यातायात व्यवस्था बंद कर दिया मगर श्रमिक विभिन्न स्टेशन और घाटों पर डटे रहें खाने केलिए उनके पास सत्तू,चना, चिउड़ा और दाना था थोड़ा बहुत खाने पीने का इंतजाम उन स्टेशन और बंदरगाहों के स्थानीय निवासीयों ने किया। इसी बीच सिलहट के डेप्युटी कमिश्नर के आदेश पर असिस्टेंट डेप्युटी कमिश्नर के.सी. दे के अगुवाई में 21 मई 1921 को चांदपुर रेल स्टेशन पर एकत्रित भीड़ पर गोरखा इन्फैंट्री ने अंधाधुंध फायरिंग करना शुरू कर दिया। अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी मारे गए, जिसमें छोटे छोटे बच्चों सहित बृद्ध, और गर्भवती महिला तक शामिल थीं। यहीं नहीं जब चांदपुर, बदरपुर स्टीमर घाट में श्रमिक जहाज में चढ़ने केलिए डॉक वे पर थें तभी ब्रिटिश प्रशासन के निर्देश पर डॉकवे को गिरा दिया गया जिसके कारण सैकड़ों की तादाद में सेनानी मेघना और बराक में डूबकर मर गए।

इसके साथ ही करीमगंज, मैमनसिंह, चटग्राम आदि रैल स्टेशनों पर भी फायरिंग हुई थी। सरकारी आंकड़ों में 1800-2200 श्रमिकों के मारे जाने की बात कही गई लेकिन वास्तविक संख्या का आजतक अनुमान लगाना मुश्किल है। शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन रात श्रमिकों को हथियार के बल पर तहस नहस कर दिया गया। कुछ वहाँ से पैदल भागने लगे कुछ अलग अलग बस्तियों में रहना शुरू कर दिया जो पकड़े गए उन्हें पकड़कर फिर से उनके बागान में लाया गया। उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई। लगभग तीन महीने केलिए सुरमा घाटी में रेल और जहाज सेवा रोक दी गई ताकि इस खबर को दबा दिया जाए। देशबंधु चित्तरंजन दास ने इस घटना को महात्मा गांधी तक पहुचाया, जिसे सुनकर 21 अगस्त 1921 में महात्मा गांधी शिलचर आए और चाय श्रमिकों से मिलकर उनको सांत्वना दिया।

इस आंदोलन के मुख्य नेतृत्वकर्ता पंडित देवशरण त्रिपाठी जी को करीमगंज रेल स्टेशन के गिरफ्तार करके करीमगंज जेल में डाल दिया गया। उस समय करीमगंज जेल में कैदियों द्वारा जेलर को सलामी देने का प्रचलन था। पंडित जी ने इसका पुरजोड़ विरोध किया इसके कारण उन्हें जेलर की ओर से शारिरिक यातनाएं दी गई फिरभी पंडित जी सलामी देने केलिए नहीं झुंके। कुछ दिन बाद श्रमिकों को भड़काने के आरोप में उन्हें असम का कालापानी कहा जाने वाला जोरहाट जेल में भेज दिया गया। जहां पंडित जी ने आमरण अनशन किया। ईक्कीस दिन तक आमरण अनशन करने के बाद बाइसवें दिन उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया।

इस पूरे आंदोलन में ब्रिटिश प्रशासन के कठोरतम दमननीति के कारण प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कितने श्रमिक स्वतंत्रता सेनानियों को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा इसका अंदाजा लगाना भी नामुमकिन है। जलियांवाला बाग से दो साल बाद हुए इस आंदोलन और इस भयंकर नरसंहार को इतिहास में वो जगह नहीं मिली जो इसे मिलना चाहिए था। अब समय की मांग है जब हम अगले तीन महीने में स्वतंत्रता के 76 वां वर्षपूर्ति मनाएं, उससे पहले इन स्वतंत्रता सेनानियों सच्ची श्रद्धांजलि देने केलिए पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने की आवाज केन्द्र और राज्य सरकार के सामने उठा ही सकते हैं।

राजदीप राय

दुल्लभछोड़ा

8011960168

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