Hindi ki Sabse Acchhi Kavitayen: हिन्दी की कविताएं भारतीय साहित्य की समृद्ध धरोहर हैं। ये विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं का अद्भुत संगम हैं। हिंदी साहित्य में भक्ति, शृंगार, वीर, करुणा और शांत रस प्रमुख रूप से देखे जाते हैं। कालिदास, सूरदास, कबीर, तुलसीदास जैसे कवियों ने भक्ति और दर्शन का सुंदर चित्रण किया है। वहीं, आधुनिक युग में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, हरिवंश राय बच्चन, दिनकर जैसे कवियों ने छायावाद और राष्ट्रीयता की भावना को अभिव्यक्त किया। यहां 5 प्रसिद्ध हिन्दी कवियों की कुछ बेहतरीन कविताएं प्रस्तुत की गई हैं। इन सभी ने हिन्दी साहित्य में अमूल्य योगदान दिया है। हिन्दी दिवस पर ये हिन्दी की कविता पढ़नी हो, तो इन्हें चुन सकते हैं।
1. अग्निपथ- हरिवंश राय बच्चन की कविता
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
2. पुष्प की अभिलाषा- माखनलाल चतुर्वेदी की कविता
चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं, प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ॥
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ।
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ॥
मुझे तोड़ लेना वनमाली।
उस पथ में देना तुम फेंक॥
मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने।
जिस पथ जावें वीर अनेक॥
3. कोशिश करने वालों की हार नहीं होती- सोहनलाल द्विवेदी की कविता
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
4. सिंहासन खाली करो कि जनता आती है- रामधारी सिंह दिनकर की कविता
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली।जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहेतब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।जनता? हां, लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,जनता सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।सो ठीक मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?मानो जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में।अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने केजन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है।दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है।जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकारबीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं।यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजयचीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो।अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है।दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
5. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल- महादेवी वर्मा की कविता
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर।
सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन।
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल।
तारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण।
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल।
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल।
जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक।
जलमय सागर का उर जलता
विद्युत ले घिरता है बादल।
विहंस-विहंस मेरे दीपक जल।
द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम।
वसुधा के जड़ अन्तर में भी
बन्दी है तापों की हलचल।
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल।
मेरे निस्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर।
मैं अंचल की ओट किये हूँ।
अपनी मृदु पलकों से चंचल
सहज-सहज मेरे दीपक जल।
सीमा ही लघुता का बन्धन
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन।
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल।
सहज-सहज मेरे दीपक जल।
तुम असीम तेरा प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरन्तर।
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
अमिट चित्र अंकित करता चल।
सरल-सरल मेरे दीपक जल।
तू जल-जल जितना होता क्षय,
यह समीप आता छलनामय।
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल।
मंदिर-मंदिर मेरे दीपक जल
प्रियतम का पथ आलोकित कर।