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सम्माननीय मित्रों ! पहले जब कभी यहाँ अर्थात अखण्ड असम में यत्र तत्र सर्वत्र घनघोर जंगल थे ! प्रकृति के आंचल तले हमारे गिरिवासी वनवासी सीधे सादे सच्चे लोग बसते थे अर्थात लगभग सन् 1821 के आसपास इस्ट इंडिया कम्पनी ने सर्वप्रथम दो उद्योगों की नींव रखी थी! वे स्वार्थी तत्त्व थे ! उनकी दृष्टि केवल और केवल हमारी हर प्रकार की सम्पदा के दोहन की थी ! किन्तु इसके लिए भी श्रम-सम्पदा सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी! और उन्होंने 1777में नील की खेती एवं अखण्ड असम के कुछेक क्षेत्रों को वातावरण के दृष्टिकोण से अनुकूल एवं सहयोगी समझ कर -“चाय पाता” के बागानों को विकसित करने की नींव तद्कालीन गवर्नर जनरल लाॅर्ड बेंटिकेट ने सन् 1834 में रखी।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सन् 1813 में ही इस्ट इंडिया कम्पनी का एकाधिकार समाप्त होना प्रारम्भ हो चुका था एवं विस्तारवादी इंग्लैंड की गिद्ध दृष्टि हिन्द महासागर सीमावर्ती देशों पर गहनता पूर्वक पडती जा रही थी ! और उन्होंने ये भलीभांति समझ लिया था कि भारतवर्ष की भूमि अनेकानेक अर्थों में उर्वरकता से समृद्ध है,श्रमिकों की बहुलता,छोटे-छोटे सामंतों की आपसी फूट एवं सामान्य जनता से उनकी दूरी,बेगार और मुस्लिमों के अत्याचार से त्रस्त निर्धन जनता रोटी के बदले बंधुआ मजदूर बनना पसंद करती है ! और इसी के साथ अखण्ड असम तक परिवहन व्यवस्था की कठिनाईयों को देखते हुवे अपने व्यापारिक हितों हेतु असम की वन सम्पदा,खनिज पदार्थों के दोहन के लिये एवं चाय पाता की खेती हेतु यहाँ चाय बागानों की नींव रखने हेतु सुदूर ग्रामीण अंचलों से ! उत्तर प्रदेश,मगध, बंगाल,उडीसा,मध्यप्रदेश,आन्ध्र प्रदेश,तमिलनाडु जैसे क्षेत्रों से तद्कालीन मौद्रिक रूप से अधिकतम पारिश्रमिक देने का प्रलोभन देकर अथवा बल पूर्वक हमारे पूर्वजों को जल मार्ग से ब्रम्हपूत्र तथा बराक नदी द्वारा किन्हीं पशुओं की तरह लाकर यहाँ बसाया।
मित्रों ! तब यहाँ घनघोर जंगल थे ! आज से सैकड़ों गुना अधिक विशम परिस्थितियों में हमारे पूर्वजों ने यहाँ आकर अत्यंत दयनीय स्थिति में जंगलों को काटकर धीरे-धीरे टीलों पर अंग्रेजों द्वारा उपलब्ध कराये गये चाय के बीजों से पहले नर्सरी बनायी तदोपरान्त चाय पाता के बागान बनते गये ! जहाँ हमारे पूर्वज आसपास छोटे-छोटे-छोटे झोपड़े बनाकर रहते और उचित-अनुचित पारिश्रमिक पर चाय की खेती करते थे। वैसे ये भी उल्लेखनीय है कि असमिया समुदाय की सभी जन जातियों ने कभी भी हमारे पूर्वजों पर किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं किया और न ही उनके द्वारा हमारा शोषण हुवा।
वर्तमान असम एवं बांग्लादेश के हितार्थ चाय बागानों की उपलब्धता यहाँ की प्रमुख आर्थिक शक्ति है इनके पराभव और विकास से असम का विकास और प्रभावित होगा ! ये निश्चित है कि ब्रिटिश सत्ता के जाने से ! हमें स्वतंत्रता के पश्चात हरित क्रांति के क्षेत्र में चीन से युद्ध के पश्चात-“जय जवान जय किसान” के उद्घोष एवं उद्देश्य से जिस प्रकार भारतीय कृषि उद्योग,कृषक,कृषकों की आय,कृषि योग्य राजनैतिक सकारात्मक व्यवस्था,बीजों की गुणवत्ता,इनके भण्डारण की व्यवस्था,कीट नाशक एवं उर्वरक पदार्थों का प्रबंधन-विपणन एवं मूल्य निर्धारण,मूल्य निर्धारण,मण्डियों का विकास आदि किया गया और सतत् किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप आज हमारे भारत के कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के बाद भी ये विडम्बना है कि हमारी-“बराक उपत्यका” में चाय पाता की गुणवत्ता एवं उत्पादन में निरंतर अवरोध,उत्पादन में कमी और खराब गुणवत्ता के कारण अत्यंत ही कम मूल्य मिलने के कारण बराक उपत्यका की ये रीढ की हड्डी टूटने के कगार पर है।
मित्रों ! ये एक प्राकृतिक एवं धरातलीय स्थिति है कि ब्रह्मपुत्र बेली और बराक उपत्यका में अंतर है ! वहाँ चाय बागानों की भूमि लगभग समतल है, वहाँ का वातावरणीय अंतर भी यहाँ की अपेक्षा बहुत ही अच्छा है ! बिलकुल इसी प्रकार बांग्ला देशी चायबागानों की भी स्थिति बराक उपत्यका से अच्छी है,ब्रह्मपुत्र बेली में इन्हीं कारणों से वहाँ चाय पाता की गुणवत्ता बहुत ही अच्छी है, वहाँ चायबागानों की भूमि उर्वरक होने के कारण चाय पाता-“चुन” कर तोडा जाता है ! अतः उसकी गुणवत्ता बनी रहती है, वहाँ ग्रीन टी का बहुलता से उत्पादन होने के कारण चाय का विदेशों में निर्यात बहुत ही अधिक मात्रा में होता है जबकि इसके बिलकुल ही विपरीत हमारी बराक उपत्यका के चायबागानों में टीले अधिक हैं,समतल भूमि का अभाव है ! समतल भूमि पर श्रमिक बस गये,खेती होने लगी, मत्स्य उद्योग पनपने लगे, मुस्लिम घुसपैठिये बैठ गये, यूनियन और प्रबंधन के मध्य खाई चौडी होती गयी, श्रमिक हितों के नाम पर बागान के हितों की सिरे से ही उपेक्षा की गयी।
मैं समझता हूँ कि यहाँ चाय बागानों में चाय पाता चुन-चुन कर तोड़ने की अपेक्षा मुट्ठी भर-भर कर हंसुवे से काटा जाने लगा ! भूमि और प्राकृतिक विषमता,निर्धारित मात्रा से अधिक चाय पाता तोडने पर मिलने वाला अधिक पारिश्रमिक,श्रमिकों की कमी एवं सरकार द्वारा प्राप्त नियमित राशन और अनेक प्रकार की सब्सिडी के कारण हमारे श्रमिक बन्धु यहीं रहते हुवे भी ! सभी सुविधाओं का उपभोग करते हुवे भी एक प्रकार से आलस्य और अकर्मण्यता के शिकार होकर इस उद्योग,अपनी सदियों की कर्तव्य शीलता,सरकारी राजस्व के साथ-साथ बागान मालिकों और प्रबंधन को भी गहरे अंधे गड्ढे में गिरने-गिराने को अभिशप्त हो गये।
ये अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि चाय बागान श्रमिकों के खून पसीने की गाढी कमाई उनके परिवार तक पहुचने के स्थान पर सरकारी-गैर सरकारी शराब के ठेकेदार अथवा जूवे-ताश के अड्डों से आगे नहीं जा पाती ! चाय बागानों में हमारी बेटियों से लेकर महिलाओं तक को दिन में चाय पाता तोडने के बाद रात अपने पारिश्रमिक से अपने बच्चों को एक अच्छी जिंदगी देने के स्थान पर सभी पैसे घर के शराबी अभिभावक को देने पर बाध्य होना पडता है।
मेरा आग्रह है कि इस निबंध श्रृंखला के सभी अंकों को पढने के पूर्व ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचें तो इससे हम सभी का विकास होगा क्रमशः …..आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सन् 1813 में ही इस्ट इंडिया कम्पनी का एकाधिकार समाप्त होना प्रारम्भ हो चुका था एवं विस्तारवादी इंग्लैंड की गिद्ध दृष्टि हिन्द महासागर सीमावर्ती देशों पर गहनता पूर्वक पडती जा रही थी ! और उन्होंने ये भलीभांति समझ लिया था कि भारतवर्ष की भूमि अनेकानेक अर्थों में उर्वरकता से समृद्ध है,श्रमिकों की बहुलता,छोटे-छोटे सामंतों की आपसी फूट एवं सामान्य जनता से उनकी दूरी,बेगार और मुस्लिमों के अत्याचार से त्रस्त निर्धन जनता रोटी के बदले बंधुआ मजदूर बनना पसंद करती है ! और इसी के साथ अखण्ड असम तक परिवहन व्यवस्था की कठिनाईयों को देखते हुवे अपने व्यापारिक हितों हेतु असम की वन सम्पदा,खनिज पदार्थों के दोहन के लिये एवं चाय पाता की खेती हेतु यहाँ चाय बागानों की नींव रखने हेतु सुदूर ग्रामीण अंचलों से ! उत्तर प्रदेश,मगध, बंगाल,उडीसा,मध्यप्रदेश,आन्ध्र प्रदेश,तमिलनाडु जैसे क्षेत्रों से तद्कालीन मौद्रिक रूप से अधिकतम पारिश्रमिक देने का प्रलोभन देकर अथवा बल पूर्वक हमारे पूर्वजों को जल मार्ग से ब्रम्हपूत्र तथा बराक नदी द्वारा किन्हीं पशुओं की तरह लाकर यहाँ बसाया।
मित्रों ! तब यहाँ घनघोर जंगल थे ! आज से सैकड़ों गुना अधिक विशम परिस्थितियों में हमारे पूर्वजों ने यहाँ आकर अत्यंत दयनीय स्थिति में जंगलों को काटकर धीरे-धीरे टीलों पर अंग्रेजों द्वारा उपलब्ध कराये गये चाय के बीजों से पहले नर्सरी बनायी तदोपरान्त चाय पाता के बागान बनते गये ! जहाँ हमारे पूर्वज आसपास छोटे-छोटे-छोटे झोपड़े बनाकर रहते और उचित-अनुचित पारिश्रमिक पर चाय की खेती करते थे। वैसे ये भी उल्लेखनीय है कि असमिया समुदाय की सभी जन जातियों ने कभी भी हमारे पूर्वजों पर किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं किया और न ही उनके द्वारा हमारा शोषण हुवा।
वर्तमान असम एवं बांग्लादेश के हितार्थ चाय बागानों की उपलब्धता यहाँ की प्रमुख आर्थिक शक्ति है इनके पराभव और विकास से असम का विकास और प्रभावित होगा ! ये निश्चित है कि ब्रिटिश सत्ता के जाने से ! हमें स्वतंत्रता के पश्चात हरित क्रांति के क्षेत्र में चीन से युद्ध के पश्चात-“जय जवान जय किसान” के उद्घोष एवं उद्देश्य से जिस प्रकार भारतीय कृषि उद्योग,कृषक,कृषकों की आय,कृषि योग्य राजनैतिक सकारात्मक व्यवस्था,बीजों की गुणवत्ता,इनके भण्डारण की व्यवस्था,कीट नाशक एवं उर्वरक पदार्थों का प्रबंधन-विपणन एवं मूल्य निर्धारण,मूल्य निर्धारण,मण्डियों का विकास आदि किया गया और सतत् किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप आज हमारे भारत के कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के बाद भी ये विडम्बना है कि हमारी-“बराक उपत्यका” में चाय पाता की गुणवत्ता एवं उत्पादन में निरंतर अवरोध,उत्पादन में कमी और खराब गुणवत्ता के कारण अत्यंत ही कम मूल्य मिलने के कारण बराक उपत्यका की ये रीढ की हड्डी टूटने के कगार पर है।
मित्रों ! ये एक प्राकृतिक एवं धरातलीय स्थिति है कि ब्रह्मपुत्र बेली और बराक उपत्यका में अंतर है ! वहाँ चाय बागानों की भूमि लगभग समतल है, वहाँ का वातावरणीय अंतर भी यहाँ की अपेक्षा बहुत ही अच्छा है ! बिलकुल इसी प्रकार बांग्ला देशी चायबागानों की भी स्थिति बराक उपत्यका से अच्छी है,ब्रह्मपुत्र बेली में इन्हीं कारणों से वहाँ चाय पाता की गुणवत्ता बहुत ही अच्छी है, वहाँ चायबागानों की भूमि उर्वरक होने के कारण चाय पाता-“चुन” कर तोडा जाता है ! अतः उसकी गुणवत्ता बनी रहती है, वहाँ ग्रीन टी का बहुलता से उत्पादन होने के कारण चाय का विदेशों में निर्यात बहुत ही अधिक मात्रा में होता है जबकि इसके बिलकुल ही विपरीत हमारी बराक उपत्यका के चायबागानों में टीले अधिक हैं,समतल भूमि का अभाव है ! समतल भूमि पर श्रमिक बस गये,खेती होने लगी, मत्स्य उद्योग पनपने लगे, मुस्लिम घुसपैठिये बैठ गये, यूनियन और प्रबंधन के मध्य खाई चौडी होती गयी, श्रमिक हितों के नाम पर बागान के हितों की सिरे से ही उपेक्षा की गयी।
मैं समझता हूँ कि यहाँ चाय बागानों में चाय पाता चुन-चुन कर तोड़ने की अपेक्षा मुट्ठी भर-भर कर हंसुवे से काटा जाने लगा ! भूमि और प्राकृतिक विषमता,निर्धारित मात्रा से अधिक चाय पाता तोडने पर मिलने वाला अधिक पारिश्रमिक,श्रमिकों की कमी एवं सरकार द्वारा प्राप्त नियमित राशन और अनेक प्रकार की सब्सिडी के कारण हमारे श्रमिक बन्धु यहीं रहते हुवे भी ! सभी सुविधाओं का उपभोग करते हुवे भी एक प्रकार से आलस्य और अकर्मण्यता के शिकार होकर इस उद्योग,अपनी सदियों की कर्तव्य शीलता,सरकारी राजस्व के साथ-साथ बागान मालिकों और प्रबंधन को भी गहरे अंधे गड्ढे में गिरने-गिराने को अभिशप्त हो गये।
ये अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि चाय बागान श्रमिकों के खून पसीने की गाढी कमाई उनके परिवार तक पहुचने के स्थान पर सरकारी-गैर सरकारी शराब के ठेकेदार अथवा जूवे-ताश के अड्डों से आगे नहीं जा पाती ! चाय बागानों में हमारी बेटियों से लेकर महिलाओं तक को दिन में चाय पाता तोडने के बाद रात अपने पारिश्रमिक से अपने बच्चों को एक अच्छी जिंदगी देने के स्थान पर सभी पैसे घर के शराबी अभिभावक को देने पर बाध्य होना पडता है।
मेरा आग्रह है कि इस निबंध श्रृंखला के सभी अंकों को पढने के पूर्व ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचें तो इससे हम सभी का विकास होगा क्रमशः …..आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्कांक 6901375971″