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जीवन में पश्चात्ताप से बचना है तो समय पर पहल करना सीखें — सीताराम गुप्ता,

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मैं जब भी किसी नए विषय पर कोई आलेख अथवा कथा-कहानी आदि लिखने बैठता हूँ तो लिखने से पूर्व प्रायः मन में ये विचार आता है कि ये रचना करना ठीक भी रहेगा या नहीं। कहीं संपादक, प्रकाशक अथवा पाठक इसे मज़ाक़ में न ले लें अथवा सतही रचना समझ कर नकार न दें। यदि मन में इस प्रकार का संशय पैदा हो जाता है तो प्रायः वह रचना आकार नहीं ले पाती लेकिन कुछ ही दिनों बाद उसी विषय पर प्रकाशित किसी अन्य रचनाकार की रचना देखता हूँ तो बड़ा अफ़सोस होता है कि मैंने उस दिन इस विषय पर क्यों नहीं लिखा। प्रकाशित इस रचना से पूर्व इस विषय पर मैंने कोई रचना नहीं देखी थी। यदि इस रचना से पूर्व इस विषय पर अन्य कोई रचना प्रकाशित नहीं हुई थी और मैं उस समय लिख लेता तो इस विषय पर लिखने वाला मैं पहला रचनाकार भी हो सकता था।

लेखन में ही नहीं जीवन के अनेकानेक क्षेत्रों में कई बार ऐसा ही होता है कि हम पहल करने अथवा समय पर निर्णय लेने से चूक जाते हैं। हम कोई कार्य, कोई नेक कार्य या कोई नया कार्य करना चाहते हैं लेकिन कोई संकोच या संशय हमें कार्य संपन्न करने अथवा पहल करने से रोक देता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि हम किसी अच्छे कार्य की पहल करने के श्रेय से वंचित रह जाते हैं और कभी-कभी तो बाद में या तो दोबारा उसे करने का अवसर ही नहीं मिलता या वह विचार ही विस्मृति के गर्भ में चला जाता है। संभव है इस कारण से लोग सचमुच किसी महान कृति, सिद्धांत अथवा खोज या अनुसंधान से वंचित ही रह जाएँ। इसीलिए ज़रूरी है कि किसी भी सकारात्मक व उपयोगी विचार को निश्शंक होकर यथाशीघ्र कार्यरूप देने का प्रयास किया जाए।

प्रायः हमारे समय पर पहल न करने अथवा निर्णय न लेने के गंभीर परिणाम भी हमें भुगतने पड़ते हैं। कोई बात समय पर न कह पाने के कारण परिचितों के बीच उपजी ग़लतफ़हमियाँ बढ़ती चली जाती हैं। किसी से मिलने जाने के निर्णय में देर करने पर संभव है कि उससे फिर कभी मिलना हो ही न सकें। मैं ही क्यों पहले बात करूँ या मिलने जाऊँ, ऐसे विचार जीवन में तबाही ला सकते हैं। एक छोटी सी पहल जीवन को सदा के लिए ख़ुशियों से भर सकती है। समय पर कहा गया एक वाक्य हमारे अमूल्य संबंधों को टूटने से बचा सकता है। उचित समय पर किसी के कंधे पर रखा गया हाथ उसे टूटकर बिखरने से बचा सकता है। उर्दू शायर मुनीर नियाज़ी की एक नज़्म ‘‘हमेशा देर कर देता हूँ मैं …’’ याद आ रही है। नज़्म की कुछ पंक्तियाँ देखिए:

हमेशा देर कर देता हूँ मैं, हर काम करने में
ज़रूरी बात कहनी हो कोई, कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो, उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं …

किसी को मौत से पहले, किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ, उसको जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं …

कई बार हम सोचते हैं कि हर विचार को कार्य रूप देना कहाँ संभव है और यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। वास्तव में मनुष्य जो सोच सकता है वह कर भी सकता है अर्थात् मनुष्य जो कार्य नहीं कर सकता उसे सोचना ही असंभव है। असंभव से दिखने वाले ही नहीं, कई बार साधारण से कार्य को करने में भी हम कोताही बरतते हैं। कई बार फूल उगाने के लिए हम बीज ख़रीद लाते हैं। हम बीज तो ख़रीद लाते हैं लेकिन उन्हें गमलों या क्यारियों में बोने में कोताही बरतते हैं। फूलों का पूरा सीज़न निकल जाता है लेकिन बीज बोने का फैसला नहीं कर पाते। क्या सचमुच यह बहुत मुश्किल कार्य है? वैसे भी ये क्या हम ही हैं जो बीजों से पौधे बनाते हैं और उन पर फूल खिलाते हैं? नहीं, हमें तो मात्र पहल करनी होती है। शेष कार्य प्रकृति स्वयं करती है। हम तो निमित मात्र होते हैं। फिर भी किसी कार्य को प्रारंभ करने अथवा पहल करने में इतना आलस्य और विलंब या संकोच अथवा दुविधा क्यों?

यदि बीजों को उसी समय मिट्टी के हवाले कर दिया होता तो आज उन फूलों के सौंदर्य, उनके रंगों और ख़ुशबू से वंचित नहीं रहते। सामने के मकान की बालकनी अथवा टैरेस पर जब रंग-बिरंगे व सुगंधित पुष्प अपनी आभा बिखरने लगते हैं तभी हमें अपने समय पर निर्णय न लेने का अफसोस होता है लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत। हमारे विचार भी बीजों की तरह ही होते हैं। उचित समय पर बीज बोने की तरह ही उचित समय पर मन में विचार रूपी बीजों को बोना व उन्हें कार्यरूप में परिणत करना भी अनिवार्य है अन्यथा अनेकानेक उपयोगी विचार अंतरिक्ष में उल्काओं की भाँति जलकर अस्तित्वहीन हो जाएँगे। किसी भी सकारात्मक व उपयोगी विचार को दृढ़ करके उसे फौरन कार्यरूप में परिणत करना हम सबके हित में होता है।

कई बार हम बहुत-सी अच्छी-अच्छी पुस्तकें ख़रीद लाते हैं और उन्हें अलमारियों में सजाकर रख देते हैं कि कभी आराम से पढ़ेंगे लेकिन वो दिन कभी नहीं आता। माना कि आप अत्यधिक व्यस्त हैं तो भी पढ़ने का समय निकालिए। पुस्तकें कितनी भी अच्छी क्यों न हों उनकी सार्थकता पढ़ने में है न कि मात्र ख़रीदने में। मान लीजिए कि हम पुस्तकें पढ़ते भी हैं। कई बार हम कोई अच्छी-सी प्रेरक पुस्तक पढ़ते हैं और हमें लगता है कि इसमें हमारे लिए कई जीवनोपयोगी सूत्र हैं जो हमारे जीवन की दिशा बदल सकते हैं। हम ऐसे जीवनोपयोगी सूत्रों को रेखांकित कर लेते हैं, उन्हें कंठस्थ कर लेते हैं लेकिन ऐसे सूत्रों की सार्थकता उन्हें रटने में नहीं अपितु फौरन व्यवहार में लाने में है। ज्ञान-विज्ञान से लाभांवित होना अपेक्षित है सिर्फ पढ़ना नहीं। इस प्रकार के निर्णय लेने के लिए हमें संशय व संकोच का फौरन त्यागकर क्रियान्वयन के लिए तत्पर हो जाना चाहिए।

क्या अच्छा है और क्या बुरा है ये हम सब भली-भाँति जानते है लेकिन अच्छे कार्य को करने के लिए हम जिस शुभ मुहूर्त की तलाश में रहते हैं वो कभी नहीं आता। अतः जब भी कोई नया, अनोखा या मौलिक विचार मन में आए सफलता-असफलता की परवाह किए बिना उसे कार्यरूप में परिणत करने के लिए कटिबद्ध हो जाएँ। इससे न केवल आपको उसका प्रवर्तक या संस्थापक होने का गौरव प्राप्त हो सकता है अपितु वह कार्य किसी के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण भी हो सकता है, किसी का जीवन भी बदल सकता है। जब भी कोई अच्छा कार्य करने का विचार मन में आए उसे फौरन कर डालिए क्योंकि संभव है कि बाद में समय, संसाधन अथवा अच्छे स्वास्थ्य के अभाव में यह कार्य करना ही असंभव हो जाए। किसी नेक काम को अंजाम देने का हमारा इरादा ही न बदल जाए इसलिए कहा गया है कि शुभ कार्यों को शीघ्र कर डालिए। जीवन में अफ़सोस करने की नौबत न आए इसलिए नेक कार्यों को करने का दृढ़ संकल्प लेकर उन्हें वास्तविकता में परिवर्तित कर दीजिए।

सीताराम गुप्ता,
ए.डी. 106 सी., पीतमपुरा,
दिल्ली – 110034
मोबा0 नं0 9555622323
Email : srgupta54@yahoo.co.in

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