फॉलो करें

तुझ संग प्रीत लगाई अंबुआ ! (व्यंग्य)–सुनील कुमार महला

33 Views
सभी को पता है कि आम, फलों का राजा कहलाता है। गर्मी के मौसम में आम नहीं खाएं तो मज़ा नहीं। असली जीवन आनंद आम खाने में है। शायद यही वजह है कि मशहूर शायर सागर खय्यामी को तो आम की एक किस्म ‘लंगड़ा’ पर यहां तक कहना पड़ा कि- ‘आम तेरी ये खुशनसीबी है, वरना लंगड़े पे कौन मरता है।’ दशहरी हो या चौसा, तोतापुरी हो या अल्फांसो, हिमसागर हो या रसपुरी, आम का जायका ही कुछ ऐसा है कि हम आम के बारे में यह बात कह सकते हैं कि ‘दिल ललचाए रहा न जाए।’ खैर, भारतीय संस्कृति में आम, ‘आम’ नहीं बल्कि बहुत ‘खास’ है। सच तो यह है कि आदमी को ‘आम’ से सीखना चाहिए, ‘आम होकर भी ‘खास’ बनना। खास इतना कि आम पर मुहावरे तक बने हैं। मसलन, ‘आम के आम और गुठलियों के दाम'(दोहरा लाभ), ‘आंधी के आम(अधिक मात्रा में तथा बहुत सस्ते में मिलनेवाली वस्तु), ‘आम खाने कि पेड़ गिनने’, ‘आम होना (सामान्य रूप से प्रचलन में होना) वगैरह वगैरह। वैसे भारतीय संस्कृति में आम इतना प्रसिद्ध है कि कोई व्यक्ति यदि बिना मतलब (अनड्यू विजिट करना) कहीं पर जाता है तो अक्सर यह कहा जाता है कि ‘वहां आप क्या आम लेने गये थे।’ खैर जो है सो है। वैसे आम तो आम, आम की गुठलियों के लिए परिवार में बहुत लड़ाई होती है। याद आता है जब बाबूजी घर पर आम लाते थे तो गुठली वाला हिस्सा अधिक लगाव (लाड़-प्यार) वाले ‘छोटे’ बच्चे को खाने को मिलता था तथा औरों को आम का हिस्सा काटकर खाने को मिलता था। वैसे, आदमी को जीवन में इतना ‘आम’ भी नहीं बनना चाहिए कि लोग, आदमी का ‘अचार’ बना लें। बच्चे कभी आम के पेड़ पर पत्थर मारकर आम तोड़ते थे, लेकिन आजकल पत्थर मारकर आम तोड़ने वाला ‘बचपन’ तो मोबाइल में व्यस्त है। आजकल बच्चों की नजर में ‘आम’ नहीं मोबाइल टंगा है। भले ही बाजार में आज आम की रेहड़ियां, आम की मधुर सुंदर महक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के नथुनों में खलबली मचा रहीं हैं, लेकिन बच्चों को मोबाइल के गेम्स और रील्स रास आ रहे हैं। खैर, आम सबका पसंदीदा फल है लेकिन बाजार में ‘आम’ के ‘दाम’ सुनकर सिर पर ‘बाम’ लगाना पड़ रहा है। वैसे
बचपन में हनुमान जी ने सूर्य देव को ‘आम’ का मीठा फल समझकर उन्हें निगल लिया था। वो क्या है कि ‘आम’ चीज ही ऐसी है। भले ही हम भी ‘आम’ आदमी हैं लेकिन आज हम भी ‘खास’ बनकर अपने खासमखास रामलुभाया जी के साथ ‘आम’ का ‘रस’ पीने बाजार जा रहे हैं। वो क्या है कि आजकल ‘गुठली’ के लिए तो बचपन की तरह हमें कोई पूछता नहीं है और वैसे भी बढ़ते दामों के चलते खास लोगों की पहुँच तक ही सिमट गया है आम -ए –खास। आम के बढ़े दामों को सुनकर कभी कभी हमें लगता है -‘ तुझ संग प्रीत लगाई अंबुआ, अंबुआ, अंबुआ, हो अंबुआ , हाए बेदर्दी, हाए बेदर्दी…!’
(लेखक व्यंग्यकार हैं।)
सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर कालमिस्ट व युवा साहित्यकार,उत्तराखंड।
मोबाइल 9828108858

Share this post:

Leave a Comment

खबरें और भी हैं...

लाइव क्रिकट स्कोर

कोरोना अपडेट

Weather Data Source: Wetter Indien 7 tage

राशिफल