प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में चित्त वग्गो के चतुर्थ पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ–
“सुदुद्दसं सुनिपुणं यत्थाकामनिपातिनं ।
चित्तं रक्खेथ मेधावी चित्तं गुत्तं सुखावहं ।।४।।”
पुनः”बुद्ध” कहते हैं कि–“सुदुद्दसं सुनिपुणं यत्थाकामनिपातिनं” “आपने श्रीमद्भाग्वद् में-“अंधकासुर” की कथा अवस्य ही सुनी होगी ! जब भी गोकुल में अंधकासुर आता है तो भयानक आँधी-तूफान बनकर आता है ! ऐसी घनघोर आँधी कि पशु, पक्षी, मानव तो क्या बड़े बड़े वृक्षों को भी एक तिनके की तरह उड़ा कर ले जा सकती है ! ऐसी स्थिति में मेरे श्री कृष्णजी ने गोपियों से कहा ! ग्वाल बालों से कहा ! सभी गोकुल निवासियों से कहा कि बिल्कुल भी आप डरो नहीं ! मैं अभी इसका विनाश कर दूँगा ! मुझ पर विश्वास करो ! बस कुछ छणों के लिये अपनी दोनों आँखों को बंद कर लो और-“माम्नुष्मर धनंञ्जयः।
हाँ प्रिय मित्रों ! यह अंधकासुर कोई और नहीं-ये तो मुझमें छुपकर बैठे-“काम,क्रोध,लोभ,मोह” ये सभी के सभी अंधकासुर हैं ! और इनमें भी सबसे बड़ा शत्रु-“काम” है,जब हममें वासना का तूफान उठता है ! तो वह मेरे सभी ज्ञान और भक्ति को एक छणार्ध में उड़ाकर ले जाने की क्षमता रखता है ! पर मैं आपको अपने प्यारे कान्हाजी की बतायी हुयी एक ऐसी युक्ति बताता हूँ कि आप उन छणों में अपने चित्त की रक्षा अवस्य ही कर लेंगे-
और बड़ी ही साधारण सी युक्ति है यह ! बिल्कुल राम-बाण ! मैं उन छणों में क्या करता हूँ ! यह आपको बताता हूँ ! मैं अपनी दोनों आँखों को बंद कर लेता हूँ ! और खूब तेज-तेज ! चीख-चीख कर चिल्लाता ! हूँ-“कान्हाऽऽऽ ओ_कान्हाऽऽऽऽऽऽ !
और आश्चर्य काम-क्रोधादि के आवेग ऐसे भाग जाते हैं कि जैसे कभी ये थे ही नहीं।
हाँ प्रिय मित्रों ! जैसे जब तेज हवायें चलती हैं तो दीपक को बुझने से रोकने के लिये इसी प्रकार एकाग्रता पूर्वक अपनी दोनों हथेलियों से ज्योति की रक्षा करनी होगी ! मैं हवाओं को तो चलने से नहीं रोक सकता ! किन्तु-“दिपक” को बुझने से रोक सकता हूँ ! मैं कामादि वेगों को उठने से नहीं रोक सकता, और न ही मैं उनका जबरदस्ती दमन करके अपने आपको मानसिक रोगी ही बनाना चाहूँगा ! मैं तो कहता हूँ कि-मैं “वासना”का स्वागत करता हूँ, मैं कहूँगा कि आप भी वासना का स्वागत करो ! किंतु जागते हुवे -“आप देखो ! कि ये वासना आखिर आती कहाँ से है ! और ऐसा होने पर कोई भी सुँदर से सुँदर,बलिष्ट, विद्वान,धनाढ्य पुरुष अथवा नवयौवना,सुकुमारी, स्त्रियाँ आपको कामातुर कर ही नहीं सकतीं ! और इसका भी एक कारण है ! मेरे पूर्व जीवन के संस्कार,ज्ञान,भोगों को भोगने से प्राप्य अनुभव की स्मृतियाँ ही हमें पुनः-पुनः उन भोगों के प्रति आकर्षित होने को बाध्य कर देती हैं, तो चलो ! ठीक है- अब मैं भी इस-“वासनासुर से क्यों डरूँ ?”
क्यों कि जब भी वासना आयेगी तो मुझे अपने “शिवजी”को स्मरण करने का अद्भुत अवसर भी साथ लेकर आयेगी ! अर्थात-“रथस्य वामनम् दृष्ट्वा पुनर्जन्मम् न विद्यते “अतः मेरे प्यारे मित्रों-“सुदुद्दसं सुनिपुणं यत्थाकामनिपातिनं” एक बात तो आप जानते ही हैं कि,जिस प्रकार श्मशान में जलती चिताओं को देखकर वैराग्य हो जाता है ! उसी प्रकार वासना के आवेग के शाँत होने पर भी वैराग्य होता है ! और तो और चाहे जितना भी भयँञ्कर तूफान आ जाये ! परंतु उस तूफान के रुकने पर हवायें बिल्कुल शाँत-“और स्वस्थ हो जाती _ही हैं” और जब हवायें शांत हो जाती हैं तो स्वतः ही ! “बुद्ध”नहीं कहते कि आप कुछ भी करो !वे तो कहते हैं कि-
“त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: ।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।।”
आप इन नरक के द्वारों से जो आत्म धन को विस्मृत कर देते हैं !आप इनका त्याग वासना के उठते आवेग के पलों में नाम संकीर्तन के द्वारा कर दो।
मैं आपको एक अत्यंत ही भेद की गुप्त रहस्यात्मक बात बताता हूँ-“वाममार्ग,विशुद्ध शैब्य,शाक्त,चीनाचारी,कौलादि, अघोर, श्रीविद्योपासक,वज्रयान,निरांत आदि जितने भी उच्चतम् कोटि के-“तंत्रोपासानात्मक-वंदनीय योग मार्ग हैं ! उनमें एक विलक्षणता है, वे सभी कहते हैं कि-“भैरवी चक्र में आप सतत् नाम स्मरण करते हुवे ही प्रवृत्त हो सकते हैं ! यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन काशी,मगध,हरिद्वार,कामाख्या ! इतने ही नहीं अपितु आपके सिल्चर के ही प्रसिद्ध-“बाबा श्यामानंद अखाडा” भी योगमाया के गुप्त रूप से प्रसिद्ध-“भैरवी चक्र प्रवर्तन और संचरण” के स्थान थे।
और फिर मेरे शिव के इस नाम की इतनी विशेषता है कि इसका स्मरण करते ही वासना का त्याग स्वतः ही हो जाता है ! आप जाग जाते हैं ! और -“जागते हुवे व्यक्तिको भोग नहीं भोग सकते ! क्यों कि वह तो -“भोग को योग में बदल देने की क्षमता रखता है।
और मित्रों ! इस प्रकार जागृत रहते हुवे भोगों का त्याग करने का फल-“चित्तं रक्खेथ मेधावी चित्तं गुत्तं सुखावहं ” है ही ! जो आपकी बुद्धि है ! उसी का अनायास रूपांन्तरण हो जायेगा ! यही बुद्धि “मेघा” बन जायेगी ! आप मेघावी कहे जायेंगे ! और आपका अंतःकरण परम सुख को ! परम शाँति को प्राप्त होकर निरंतर-“समाधि” के और भी समीप होता जायेगा ! यही इस पद्द का भाव है ! शेष अगले अंक में प्रस्तुत करता हूँ–“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”
