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असम में हिंदी के विरुद्ध साजिश पर हिन्दी भाषी संगठनों की चुप्पी चिंताजनक

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पिछले दिनों से एक बात प्रकाश में आई है कि असम सरकार छठीं, सातवीं और आठवीं कक्षा में हिन्दी की अनिवार्यता खत्म करने के साथ ही मिडिल स्कूलों से हिन्दी शिक्षकों का पद निरस्त करने जा रही है। यानि असम में हिन्दी और हिन्दीभाषियों की अस्तित्व खतरे में दिख रहा है। इस मुद्दे पर हिन्दीभाषी संगठनों की चुप्पी चिन्ता का विषय है, क्योंकि अभी तक दो-चार लोगों को छोड़कर किसी संगठन के तरफ से कोई आवाज नहीं उठा है। इन संगठनों की चुप्पी पर आम लोग परेशान और हैरान हैं कि आखिर इनके चुप्पी का कारण क्या है? इन संगठनों के द्वारा कई मौकों पर हजारों की संख्या में धरना, प्रदर्शन, जुलूस निकालते हुए देखा जा चुका है। किन्तु असली अस्तित्व के लड़ाई के समय किसी संगठन का विरोध सोशल मिडिया में भी नहीं दिख रहा है। सभी संगठनों से निवेदन है कि अपनी आपसी  मतभेद भूलकर एक मंच पर आये तथा असम में विशेष रूप से बराकवैली में हिन्दी के अस्तित्व की रक्षा करें। यदि इस समय सही कदम नहीं उठाया गया तो आनेवाली पीढ़ियाँ हमसे सवाल पूछेंगी कि ऐसे समय हमने क्या किया ? यदि हम अपने पीढ़ियों को इस प्रश्न का समुचित उत्तर न दे पाये तो यही पीढ़िया हमारे नाम पर थुकेंगीं । सुना जाता है कि जब बराक वैली में बंगला भाषा’ आंदोलन चल रहा था तो हमारे चार-२ हिंदीभाषी विधायकों ने बंगला भाषा के लिए इस्तीफा देकर बंगला भाषा के लिए अपना अमूल्य दान दिया था। आज हम उनके ही वंशज हैं, अपने भाषा के अस्तित्व पर मौन धारण किये हुए हैं। आज इस मुद्दे पर जो मौन रहेगा, उसको कोई हक नहीं रहेगा कि भविष्य में हिन्दी या हिन्दी भाषी के नाम पर कोई आवाज उठाये ।
सुनील कुमार सिंह लखीपुर, काछाड़

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