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“अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः । अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌॥— आनंद शास्त्री

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सम्माननीय मित्रों ! होलिका पर्व के सन्दर्भ में नरसिंह पुराण में भगवान वेदव्यास जी ने यही कहा है ! देवता अच्छे हो सकते हैं ! किन्तु इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि सभी -“राक्षस” बुरे होते हैं ! यदि ऐसा होता तो भला राक्षसों को ब्रम्हा,विष्णु,महेश,इन्द्र,सरस्वती,लक्ष्मी, महाकाली आदि ने वरदान क्यों दिया होता ?
होलिका का पावन पर्व आने वाला है ! ये अपने प्रियजनों,धर्म, संस्कृति,राष्ट्र,समाज एवं नैतिक मूल्यों के लिये बलिदान का पर्व है ! अपने बलिदान से उन आदर्शों की स्थापना का महोत्सव है जिन पद चिन्हों पर चलकर हमारी आनेवाली पीढियाँ उन्मुक्त नैसर्गिक स्वतंत्र प्रकृति के आँचल में स्वाँस ले सकें ! ये हमारा आपका सौभाग्य है कि उस भरत भू में हमें जन्म मिला जहाँ जन्मने-मरने को देवता भी तरसते हैं ! और इसलिए तरसते हैं कि हमारी रगों में जो रक्त प्रवाहित हो रहा है उसका भौतिकीय रंग अरुणोदय के सूर्य की उस लालिमा का पर्याय है जो समूचे विश्व को एक और नूतन दिवस वरदान में देती है।
देवता दानव और मानव अच्छे-बुरे नहीं होते ! बुरा होता है उनका सत्ता के पद में आते ही आने वाला-“अहंकार” यह अहंकार ऐसा अवगुण है जो देवराज इन्द्र से उनका इन्द्रासन छीन सकता है ! महाबलशाली देवता और दानवों में प्रत्येक को एक दूसरे से पराजित करा सकता है ! तथापि हम छुद्र मानव थोड़ी सी शक्ति आते ही अहंकार के मद में चूर होकर अपने-आप को- भगवान घोषित कर देते हैं।
बिलकुल ऐसी ही कथा होलिकोत्सव की भी है ! कठिनतम घनघोर तपस्या करने से सभी देवताओं को अपनी तपस्या से आकर्षित करने के कारण ब्रम्हाण्ड को आकार देने वाले कमलासन पर विद्यमान ब्रम्हा से नाना प्रकार के वरदान प्राप्त कर -“हिरण्यकष्यप” एक ऐसा त्रिपुण्डधारी,नाना मालाओं को पहनने वाला,जटा-जूट धारी, साधु वेशधारी,साधना,सुविधा, शक्ति और सम्पत्ति से सम्पन्न महाराजा बन चुका था जिसके पीछे उसके द्वारा दी हुयी शक्ति से बने शक्तिशाली हजारों मंत्रियों और तंत्रियों  की ऐसी समितियाँ थीं जिनमें चाहे -अनचाहे लाखों लाखों-करोड़ों अरबों की संख्या में लोगों को उनकी सेवा में सदैव उपस्थित रहना पडता था।
मित्रों ! सुविधाओं का लाभ कुछेक हजार लोगों को उनके पदानुसार मिलता था ! अत्यधिक मात्रा में मिलता था ! किन्तु उन हजार लोगों की सेवा समूची जनता करने को बाध्य थी ! उसके बदले उन्हें सुरक्षा के आश्वासन के अतिरिक्त कुछ भी अधिकार प्राप्त नहीं था ! जिसने भी उनकी सेवा में त्रुटि की उसे तत्काल जाति,संस्कृति,धर्म,राष्ट्र और असामाजिक तत्त्व घोषित कर कारावास में डाल दिया जाता था अथवा मृत्यु दण्ड दे दिया जाता था।
हीरण्यकश्यप के पूर्व कृत पूण्य कर्मों के परिणाम स्वरूप उसके ही घर भगवान के महान आदर्श भक्त-“प्रह्लाद” का जन्म होता है ! जिसके लिये आध्यात्मिक सामाजिक धार्मिक अर्थात मानवोचित मूल्यों की प्रधानता थी ! जिसे अपने पिता की अपेक्षा अपने-“बली” सदृश्य उन पितरों की चिन्ता थी जिन्होंने-“वयम् रक्षामः” अर्थात-“रक्षोऽहम्” संस्कृति की स्थापना की थी।
प्रह्लाद ने अपने पिता का विरोध नहीं किया था ! उन्होंने उन प्रचलित मान्यताओं का विरोध किया जो समाज और संस्कृति के लिये घातक थीं ! उन्होंने व्यक्ति-पूजा का विरोध किया ! उन्होंने उन्मुक्त कण्ठ से कहा ब्रम्हाण्ड के अधिनायाक विष्णु हैं ! उनका संविधान वेद ही ब्रम्हाण्ड का नैतिक नियम है जिसके नियमन में यह कहा गया है कि-
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तुः निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्ति मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात्॥”
प्रह्लाद की ! इस छोटे से बालक के निष्कपट,निष्पक्ष,वैदिकीय, नैतिक निश्छल ज्ञान से उनकी पाठशाला से लेकर राज्य परिवार तक धीरे-धीरे प्रभावित होने लगा ! लोगों को ऐसा लगने लगा कि हिरण्यकश्यपु एवं उनके निकटतम अनुयायियों की अपेक्षा प्रह्लाद की शिक्षा अधिक श्रेष्ठ और आनंद देने वाली है ! हो सकता है कि इसमें छणिक सुख न मिले किन्तु दीर्घकालीन आनंद का महासागर इनके द्वारा दिखाये मार्ग पर चलने से ही मिलेगे।
प्रह्लाद की सात्विक ख्याति से भयभीत हुवे हीरण्यकश्यप ने उनके वध की आज्ञा दे दी ! नाना प्रकार से उनको प्रताड़ित किया गया ! विष दिया गया ! शूली पर लटकाया गया ! नाना यातनायें दी गयीं ! पहाड़ से नीचे फेंका गया किन्तु-
“जो गिरि से नीचै गिरहिं मरहिं सो एकै बार।
जो चरित्र गिरि से गिरहिं बिगरें जनम हजार॥”
समूचा व्यक्तिगत राज्य परिवार प्रह्लाद से प्यार करता था ! उनमें ही एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रतिभाओं से युक्त विदुषी महिला- “होलिका” थीं जो हीरण्यकश्यप की सहोदरी भगिनी अर्थात भक्त प्रह्लाद की बुआ थीं ! हीरण्यकश्यप भी उनकी वैज्ञानिकीय उपलब्धियों एवं विद्वता पर प्रकारान्तर से आश्रित था।होलिका को प्रह्लाद से एवं प्रह्लाद को अपनी बूआ से अत्यंत ही प्यार था।
उसी काल में होलिका ने अपनी वैज्ञानिकीय बुद्धि एवं धनुर्वेद की सहायता से -“अग्निरोधी” वस्त्र का आविष्कार करते  हुवे निर्माण कर लिया था।
अब सत्ता के मद में अंधे हो चुके हीरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से कहा कि यह मेरी आज्ञा है ! यह राजाज्ञा है कि तुम अग्निरोधी वस्त्र पहनकर प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठ जाओ ! जब अग्नि धधकने लगेगी तो तुम अपनी अग्निरोधी चादर के कारण सुरक्षित रहोगी और मेरा शत्रु प्रह्लाद जलकर भष्म हो जायेगा।
होलिका जानती थी कि उसे इस आज्ञा का पालन करना ही होगा ! अतः उसने ऐसा ही किया ! किन्तु एक निश्छल अद्भुत प्रेम का -“न भूतो न भविष्यति” जैसा आदर्श प्रस्तुत करते हुवे जब अग्निर्देवता धधक रहे थे तो अपनी अग्निरोधी चादर प्रह्लाद को ओढा दी ! उनकी रक्षा करते हुवे स्वयं की उस यज्ञवेदी में आहुति दे दी।
ऐसी परम भक्त,आदर्श,सामाजिक मूल्यों के लिये आत्मोत्सर्ग करने वाली-“होलिका माई” के श्रीचरणों में नमन करते हुवे इस निबंध को विराम देने के साथ-साथ आप सभी को स्मरण दिलाना चाहता हूँ कि इसी प्रकार-“जागते हुवे जागना ! जागते हुवे सोना ! तो पुनश्च जागते हुवे ही उठेंगे”–आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971″

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