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गाड़ियों में जानवर की तरह लदकर जाने को मजबूर चाय श्रमिक

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– मनोज मोहंती, करीमगंज।
हर दिन परिवहन कानून का उल्लंघन कर बराक के चाय मजदूरों को ट्रकों या ट्रैक्टर के ट्रॉलियों पर भेेेड़-बकरियों की तरह लाद कर एक चाय बागाान से दूसरे चाय बागान  ले जाया जाता है।  परिवहन विभाग और पुलिस प्रशासनकी आंखो पर मानों पट्टी बंधी पड़ी है।
बराकघाटी के प्रमुख चाय श्रमिक नेताओं की चुप्पी का फायदा उठाते हैं, चाय बागानो के मालिक
मौजूदा समय में देखने में आ रहा है कि सरकार और पुलिस प्रशासन ट्रैफिक कानूनों को लागू करने के लिए बेहद सख्त कदम उठा रही है।  बराकघाटी समेत प्रदेश की लगभग सभी सड़कों पर स्थाई या अस्थाई पुलिस चौकी  बिठा कर  हेलमेट व  सीट बेल्ट न लगाने वाले वाहन चालकों से जुर्माना वसूलने का मंजर हम सब  देखते हैं।  हादसों से बचने के लिए इस तरह के कदम सराहनीय हैं।
लेकिन गुलाम भारत में ठेकेदारों के जरिए अंग्रेजों द्वारा चाय श्रमिकों कौ अमानवीय तरीकों से सामान के तरह आयात करने वाली प्रथा आज स्वतंत्र भारत में भी जारी है।
नतीजतन, असम के बराक घाटी में लगभग हर जगह, महिला और पुरुष चाय श्रमिकों को लॉरी या ट्रैक्टर की ट्रॉलियों में लाद कर रोजाना लगभग 30/40 किमी सामान की तरह एक चाय बागान से दूसरे चाय बागान में ले जाया जाता है। इस हालत मे यह सवाल तो जायज है कि क्या देश की आजादी के बाद और बराक के चाय मजदूरों को आज भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा कर रखा जा रहा है ?  अगर नहीं तो देश के अन्य नागरिकों की तरह चाय श्रमिकों के लिए भी वही परिवहन कानून लागू होते।  लेकिन पुलिस प्रशासन के सामने आए दिन महिला व पुरुष श्रमिकों को खुली लॉरियों में लादकर तिलमिलाती धुप में तपाते हुए या फिर बारिश में भीगोते हुए और जाड़े के मौसम में कंपकंपा देने वाली ठंड में कंपाते हुए सफर कराया जाता है। हो सकता है सरकार या पुलिस प्रशासन की नजर में उन चाय मजदूरों के जान की कोई कीमत ही न हो।  इसलिए परिवहन विभाग और पुलिस प्रशासन ने चाय बागानों के मालिकों को सामान ढोने की परमिट वाले वाहनों में भेड़-बकरियों की तरह चाय मजदूरों को लाने लेजाने की विशेष छूट दी है। जब आम लोग बिना सीट बेल्ट के गाड़ी चलाते नजर आते हैं तो पुलिस कोई बहाना नहीं सुनना चाहती, बल्कि तुरंत जुर्माना काट देती है।  लेकिन बराकघाटी की लगभग हर पुलिस चेक पोस्ट के सामने से ट्रक और ट्रैक्टरों में लादकर चाय मजदूरों को रोजाना सफर करवाने के वावजूद भी पुलिस उन वाहनों के मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं करती।  जिसके चलते हादसों के शिकार होकर कई मजदूर अपने जान भी गंवा चुके हैं।
इसी तरह पिछले हफ्ते श्रमिकों से भरी एक लॉरी हैलाकांदी जिले के कोईया चाय बागान से नरसिंहपुर चाय बागान की ओर काम पर जाते समय मद्रीपार के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गई। फलस्वरूप उसमे सवार 20 से ज्यादा मजदूर गंभीर रूप से घायल हुए। जिसमें अधिकांश महिलाएं थीं। हादसे में कई लोगों को सिर में चोटें आईं और अधिकांश श्रमिकों के हाथ या पैर टूटने की सूचना मिली।  इनमें से कई अभी भी शिलचर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मौत से जूझ रहे हैं। सोमवार काछाड़ जिले के बड़थल चाय बागान से श्रमिकों से लदा एक ट्रक कुंभा चाय बागान जाते समय दुर्घटनाग्रस्त होकर 37 श्रमिक गंभीर रूप से घायल हुए हैं जिनमें से 3 की हालत बेहद गंभीर है।
चूँकि वे लॉरी में यात्रा कर रहे थे इसलिए दुर्घटना बीमा से भी वे लोग वचित रह जायेंगे। ओर चाय बागानों के मालिक तो हमेशा ऐसी दुर्घटनाओं के शिकार मजदूरों को अपने हाल छोड़ दिया करते हैं। कोई राजनेता भी उनकी सुध लेना जरूरी नहीं समझते।
पर बराकघाटी मे अक्सर ऐसी दुर्घटना घटने के बावजूद भी पुलिस प्रशासन की आंखें नहीं खुलती। नतीजतन करीमगंज जिले की दुल्लभछड़ा चाय बागान सहित बहुत सारे चाय बागान चाय श्रमिकों को भेड़ बकरी की तरह ट्रक पर लाद कर लेजाने वाला शर्मनाक दृश्य हमारे कैमरे में कैद हुए है। हालांकि दुल्लभछड़ा बागान प्रबंधन करोड़ों खर्च करके सोलर बिजली प्लांट का स्थापित तो कर सकते हैं पर श्रमिकों को बस मुहैया कराने से कतराते हैं।
बागान मालिकों के अलावा शायद विभिन्न मानवाधिकार संगठन भी  उन्हें मानव नहीं समझते वर्ना उन गरीब चाय मजदूरों की अधिकारों की हनन‌ को लेकर जरुर आवाज बुलंद करते।
फलस्वरूप आज उन गरीब और मजबूर चाय श्रमिकों को ट्रकों या ट्रैक्टरों के बजाय बसों में लाने के लिए कहने वाले कोई नहीं है।
हालांकि चाय श्रमिकों के विकास के नाम पर बराकघाटी के शिलचर शहर में कई संगठन मौजुद होने के वावजूद पिछले सालों दर साल से भेड़ बकरियों कि तरह श्रमिकों को ट्रक और ट्रेक्टरो पर लाद कर लेजाने वाला रिवाज आज भी बरकरार है। इससे प्रतीत होता हो कि ब्रिटिश शासन के दौरान चाय श्रमिकों  की जो हालत थी वह आज भी लगभग कायम है ।
क्योंकि असम के मुख्यमंत्री डॉ. हिमंत विस्व शर्मा बराकघाटी के चाय श्रमिकों की मजदूरी 210 रुपये बढ़ाने के आदेश देने की छह महीने बाद भी अधिकांश चाय बागानों में इसे लागू नहीं किया गया है। पर इन सब पहलुओं पर आवाज उठाने वाले कोई नहीं है।  मुल्क चलो आंदोलन की 102वीं वर्षगांठ पर भी अगर बागान मलिक अंग्रेजों वाले अन्याय को बरकरार रख पा रहे है तो यह स्वतंत्र भारत के लिए दुर्भाग्य की बात है।

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