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धम्मपद्द अपमादवग्गो~ पद्द -११~१ अंक~३२ — आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में अपमादवग्गो के ग्यारहवें पद्द के प्रथम भाग का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“अप्पमादरतो भिक्खु पमादे भयदस्सि वा ।
संयोजनं अण्णुं धूलंडहं अग्गीवगच्छति ।।११।।”
पुनः तथागतजी कहते हैं कि”संयोजनं अण्णुं धूलंडहं अग्गीवगच्छति” मित्रों ! इस सूत्र को समझने के पूर्व मै- “संयोजनं” को समझना आवस्यक समझता हूँ ! “बोधि चित्त सूत्र सारमं”में इस संदर्भ में कहते हैं कि-“संयोजन अर्थात बंन्धन और इन बंधनों के प्रधान दस हेतु होते हैं-
(१)= देह में आत्म दृष्टि का होना !
(२)= आत्मा के अस्तित्व में अविश्वास सा होना !
(३)= विचिकित्सा-शास्त्र और गुरू उपदेस में संशय का होना !
(४)= कामछन्द-अर्थात शास्त्र विरूद्ध स्वेच्छा आचरण करना।
और उपरोक्त संयोजन स्वरूप बंधनों को तो मैं सहजता पूर्वक समझ सकता हूँ, किंतु-
(५)= व्यापाद-अर्थात-“हिंसा करना” रूपी संयोजन, बंन्धन पर चर्चा करना मैं नितांत ही आवस्यक समझता हूँ-
मैं आपको एक विचित्र सी”बोधायन जातक कथा” सुनाता हूँ !
यह कथा-“जातक कथा,निगम,हीनयान पद्द”आदि लगभग दस से भी अधिक बौद्ध ग्रन्थों में यथावत लिखित में उपलब्ध है- तद्कालीन मगध के बोध विहार में हजारों हजार भिक्षु रहते थे ! और विहार का नियम था कि प्रत्येक भिक्षु चाँवर और भिक्षा-पात्र लेकर “भिक्षाटन” करेंगे ! और जिसको जो कुछ प्राप्त हो !वही उसका आहार होगा।
अन्यथा भूखा रहना ही होगा ! बिचारे भिक्षु दूर-दूर तक जाते कभी किसी को भोजन मिलता कभी नहीं भी मिलता ! अत्यंत ही दुरूह जीवन था उनका ! बिचारे नगर वासी या ग्राम वासी भी कितनों को “भिक्षा”देते ? वह ऐसा समय था जब सभी भिक्षु बनने को उत्सुक थे ! अकाल और अकर्मण्यता ने समाज को पंगु बना दिया था ! अर्थात जब राज्य निर्धनता के नाम पर अन्न,धन, घर सबकुछ निःशुल्क देंगे तो काम कोई क्यों करेगा ? जब राजा स्वयं राजदण्ड के स्थान पर खप्पर थामेगा तो शाषित कौन करेगा -“नारि मुयी घर सम्पत नाशी।मूँड मुँडाय भये सन्यासी॥”
और उनमें ही एक प्रसिद्ध विद्वान-“भिक्षु-कान्जुर” भी थे ! वे भिक्षा को प्रतिदिन जाते और एक बार पाँच दिनों तक लगातार  उन्हें किसी ने एक कण मात्र भी अन्न का नहीं दिया ! और इस असह्य क्षुधा से आतुर वे जब छठवीं संध्या में वापस विहार की तरफ लौट रहे थे ! भिक्षाटन से लौट रहे थे ! क्षुधा से आतुर गिरते पडते लौट रहे थे ! तो अचानक ऊपर से ऊड़ती हुयी किसी चील की चोंच से एक माँन्स का लोथड़ा सीधे उनके भिक्षा पात्र में ही आ पड़ा ! अब तो वे अवाक् ! “अहिंसा परमो धर्मः””के महान अनुयायी किंकर्तब्य विमूढ से हो गये ! और उन्होंने विहार में आकर पूरा दृष्टांत सभी भिक्षुओं को सुनाते हुवे भिक्षा-पात्र तथागत के समक्ष रख दिया।
मित्रों ! अब तथागत के मुख्य भिक्षु-“आनंद” कहते हैं, कि हे स्वामी ! आपका प्रथम आदेश है-“अहिंसा परमो धर्मः” और आपका यह आदेश भी है कि “भिक्षा- पात्र” में प्राप्त भिक्षा ग्राह्य है ! अब ये तो धर्म संकट की घड़ी आ गयी,ये आपका भिक्षु क्या करे ? आप आदेश दो प्रभू ? और तथागत भी कुछ पलों को अस्थिर से हो गये ! विचलित से हो गये ! अंततः उन्होंने कहा यह माँन्स भिक्षा में प्राप्त हुवा है,अनायास प्राप्त हुवा है अतः -“ग्राह्य” है।
यह बौद्ध सम्प्रदाय का दुर्भाग्य है कि तथागत के वचनों की गंभीरता,गूढता, रहस्यमयता से अंजान-“अबुद्धों”ने उनके उस- “आपद् धर्म” का ऐसा अनर्थ निकाल डाला कि आज-“अहिंसा” का उपदेश देते “बौद्ध मतावलम्बी” चूहे, बिल्ली,साँप,काकरोच, चींटे,नेवले,खरगोश,हाँथी,ऊंट, छिपकली,गाय,भैंस, सुवर,मानव-भ्रूण इत्यादि किसी भी पशु-पक्षी कीड़े मकोणों को खाने से परहेज नहीं करते ! हाँ मित्रों ! कोई भी-“प्रबुद्ध”उनके इन निन्दनीय कृत्यों को कभी और कदापि उचित नहीं कह सकता ! और यह स्वयम् तथागत जी ने-“संयोजनं अण्णुं धूलंडहं अग्गीवगच्छति” पद्द के द्वारा “व्यापाद-“हिंसा करना” रूपी संयोजन,बंन्धन” के हेतु के रूप में “धम्मपद”में यह स्वीकार भी किया है।
शास्त्र वचन है कि-“व्यर्थमुक्तमित्याशङ्का निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि युक्तत्वाभावे सर्वानर्थप्राप्तिमाह।”
मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि”बुद्धत्व पथ पथिक” मांन्साहारी हो ही नहीं सकते ! “द्वाभ्याम् निगृहीतबाह्येन्द्रियस्यापि”
और जो माँन्साहार करते हैं ! वह और कुछ भी हो किंतु कभी “बुद्धत्व”को प्राप्त हो भी नहीं सकते ! जीव जीवों को जीवनदान देते हैं ! उनका आहार महापाप है ! मित्रों ! आज जो लोग अपने आपको-“सामवेदीय शाक्त” कहते हैं ! मांस,मछली,मुर्गे,कबूतर और अंडे खाते हैं ! वो भी धर्म के नाम पर खाते हैं ! निःसंदेह वे-“महापाप अर्थात अभक्ष्य भोजन”करते हैं।
अन्य भी पाँच “संयोजनं” निम्नलिखित हैं-
(६)= रूपराग-विषयों में आसक्ति !
(७)= रूपराग-रूपों  के अतिरिक्त विषयों में राग !
(८)= मान !
(९)= औद्धत्य- चंञ्चलता का होना और
(१०)= अविद्या।
इन पर चर्चा अगले अंक में करता हूँ!!अभी तो पद्द का भाव अधूरा है ही ! शेष अगले अंक में लेकर पुनः उपस्थित होता हूँ-“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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