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धम्मपद्द अपमादवग्गो~ सूत्र-१० अंक~३१ — आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित-“धम्मपद्द” के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में अपमादवग्गो के पंचम पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“अप्पमादेन मघवा देवानं सेट्ठतं गतो ।
अप्पमादं पसंसन्ति पमादो गरहितो सदा ।।१०।।”
पुनः तथागतजी कहते हैं कि-“अप्पमादेन मघवा देवानं सेट्ठतं गतो” अर्थात जिस प्रकार देवताओं का राजा इन्द्र सदैव प्रमाद रहित होकर त्रिलोकी”का शाषन करते हैं ! और इसी कारण सभी देवताओं में वे श्रेष्ठ कहे जाते हैं !
अत्यंत ही गूढ और रहस्यात्मक शब्दों में आपने ये बात कही है !
मैं आपको एक रहस्य की बात बताता हूँ-किन्ही भी कृष्ण,राम, दुर्गा,शिव,बुद्ध,नानक,कबीर,महावीर के प्रथम शिष्य इन्द्र ही हुवे हैं।
इन्द्र ने ही सर्व प्रथम इनकी स्तुति की है ! आप किन्ही भी धर्मगृंथों को देख लेना ! और जिनकी स्तुति इन्द्र करते हैं वही बुद्ध हैं ! वही अवतरित भगवान हैं ! हमारे चौबीस अवतार, दुर्गा जी के चौबीस पृथक-पृथक अवसरों पर प्रकट स्वरूप बुद्ध एवं महावीर अथवा सभी तिर्थङ्करों को सर्वप्रथम इन्द्र ने ही पहचाना ! और उनकी स्तुति की ! इसके इतर जो इन्द्र की स्तुति करते हैं ! जो राजाओं की स्तुति करते हैं ! जो केन्द्रीय अथवा राज्यों के मन्त्रियों की स्तुति करते हैं ! वही”देवता,सभासद अथवा उनके समीपवर्ती समर्थक या “मानव”हैं ! और उनकी दृष्टि से बहुत दूर हम आप जैसे सामान्य लोग-“कीडे मकोड़े” हैं ! जबकि उन देवताओं के विरोधी कौन हैं ये निश्चित करना अब अधिक कठिन हो गया है ! क्यों कि ये प्रसिद्ध है कि असुरों का इन्द्र से जन्मजात वैर है। अर्थात देवता और मन्त्रियों का विरोध करने वालों को-“राक्षस” घोषित करने की चीरकाल से परम्परा चली आ रही है ! और इस परम्परा के विरुद्ध जो बोलता है उसे- “नास्तिक अथवा देशद्रोही” सिद्ध करने की भी परम्परा चली आ रही है ! और आगे भी चलती ही रहेगी ?
हाँ प्रिय मित्रों ! हमारी सभी इन्द्रियाँ अत्यंत ही दिव्य हैं ! ये तो साक्षात देवता ही हैं ! और देवता भोग योनि है ! देवताओं को कर्म करना,ब्रम्हाण्ड या पिण्ड की रक्षा करना,उनका पोषण करना यही उनका उत्तर दायित्व है ! और जो-“पोषण करेगा यह निश्चित है कि शोषण भी वही करेगा” अर्थात यह भी कडवी सच्चाई है कि असुरों ने जितना भी सृष्टि को सताया वह देवताओं से वरदान पाकर ही सताया ! ये सत्य है कि -“जिसने भी गंगा स्नान करने से मना कर दिया वो पापी है ?
अर्थात हजारों हजार पाप करनेवाले गंगा-स्नान से पवित्र हो जाते हैं ? मुझे इसपर कोई शंका नहीं है किन्तु ये शाश्वत सत्य है कि गंगा-स्नान से पाप नष्ट हो सकते हैं ! पूर्व कृत पाप नष्ट हो सकते हैं किन्तु जो गंगा में डुबकी लगाते हुवे भीतर ही भीतर लघुशंका कर देते हैं ! सतत् और हर बार त्रिपुण्ड लगाकर भी पाप करते हैं ! वे निष्पाप कैसे हो गये ?
वेअपने कर्मों से-“अधोगति या उच्चगति को प्राप्त करने में असमर्थ हैं ! और-“मन” ही इन इन्द्रियों का स्वामी है ! वही इन्हे सतत् विशयभोगों या विभिन्न सकाम कर्मों के प्रति प्रेरित ही नहीं बल्कि अपनी बुद्धि रूपी”वज्र” के भय से  सतत् एक छण के लिये भी प्रमादित अर्थात आलस्य गृस्त नहीं रहने देता ! इसके फलस्वरूप हमलोग-“पवित्र-पापी” बनकर रह जाते हैं।
और जिन आप जैसे महान् आत्माओं नें इस मन रूपी”देवराज-इन्द्र”को मेरे शिवजी के प्रति सद्गुरूदेवजी की कृपा से मोड़ दिया हो तो ? और यही मेरे साँवरेजी द्वारा गोपियों के चीर-हरण का अद्भुत रहस्य भी है।
अप्रमादित,आलस्यहीन रहना तो इस मन का स्वभाव है ही !
“मन तुम्हारा एक है चाहे जिधर लगाओ।
चाहे तो हरि भजन कर चाहे विषय कमाओ।।”
एक बार जो इस मन को शिव जी के दर्शन का अंतःकरण से संकल्प ले गया हो ! तो बस यह मन लग ही गया ! अब तो वह सभी इन्द्रियों को ! सभी देवताओं को उनकी ही सेवा में अहर्निशा लगा देगा अर्थात-
“राम राम तो सब कहें दशरथ कहहिं न कोय।
जो एकबार दशरथ कहें तो जनम काहे को होय॥”
तथागतजी तभी तो कहते हैं कि-“अप्पमादं पसंसन्ति पमादो गरहितो सदा” ऐसी आप जैसी दिव्य आत्मायें सदैव ही विषयों से आसक्ति की निंदा और सर्वदा आलस्य का परित्याग कर उनके ही श्रीचरणों में लगी रहती हैं।
मैं समझ सकता हूँ कि सद्गुरूजन इसी कारण सदैव मेरे जैसे मूढात्माओं को सचेत करते रहते हैं कि तूँ सचेत हो जा,न जाने वो कौन सा पल होगा जो शरीर में इस जीवन का अंतिम पल होगा ! और उन बुद्ध स्वरूपिणी आत्माओं की स्तुति- “इन्द्र” करते रहते हैं ! इस सन्दर्भ में केनोपनिषद में कहते हैं कि-
“शब्दादीन्विषयान्ध्यायतो मनसा पुनःपुनश्चिन्तयतः पुंसस्तेषु”
मैंने पहले ही यह स्पष्ट किया है कि जैसे शरीर एक ऐसा भौतिकीय रथ है जिसे नौ इन्द्रियों रूपी अश्व मन रूपी सारथी के हाथों में रखी बुद्धि रूपी चाबुक से हांके जाते हैं और जीव अपनी जीवनयात्रा पूर्ण करने के बाद भी अपने लक्ष्य को न पाकर एक रथ को छोड़कर दूसरे रथ पर आरूढ़ हो जाता है !
और पुनश्च वही इन्द्रियाँ वही सारथी वही चाबुक और वही जीव !
किन्तु-“रथस्य वामनम् दृष्ट्वा पुनर्जन्मम् न विद्यते” ये जीव ! अपने भीतर बाहर विद्यमान-“शिव” को न देख भटकता ही रहता है ! भटकता ही रहता है।
यही इस”पद्द”का भाव है!!शेष अगले अंक में लेकर पुनः उपस्थित होता हूँ ! “आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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