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धम्मपद यमकवग्गो~ सूत्र-२० अंक~२० — आनंद शास्त्री

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प्निय मित्रों ! नित्यसत्यचित्त बुद्धमुक्त पदऽस्थित तथागत महात्मा बुद्ध द्वारा उपदेशित #धम्मपद के भावानुवाद अंतर्गत स्वकृत बाल प्रबोधिनी में यमकवग्गो के 20 वें पद्द का पुष्पानुवाद उनके ही श्री चरणों में निवेदित कर रहा हूँ—
“अप्पं पि।चे सहितं।भासमानो।धम्मस्य होति अनुधम्मचारी।
रागं च दोसं च पहाय मोहं सम्मप्पजानो सुविमुत्त चित्तो।
अनुपादियानो इधवा हुरं वा स भागवा सामञ्ञस स होति॥२०॥”
अब पुनः यमकवग्गो के अंतिम सूत्र में हमारे आराध्य”पथ-प्रदर्शक” कहते हैं कि—
“अप्पं पि चे सहितं भासमानो धम्मस्य होति अनुधम्मचारी”
आप जैसे सच्चे साध्वी-साधक भले ही ज्यादा शास्त्रों का अध्ययन न करते हों,और वैसे भी जिसने भक्ति का पाठ पढ लिया,समर्पण का पाठ पढ लिया उसे अन्य कुछ पढने की आवस्यकता ही कहाँ है।
मीरा,सूर,तूलसी, कबीर,रहीम,रसखान,बुद्ध, महावीर, नानक, तोरल,गंगासती,गोपियों आदि ने कौन से वेदों का अध्ययन किया था भला !
इसका तो बस एक ही कारण है,इन सभीने सम्यक-रूपसे अनन्य शरणागति के साथ ही जो कुछ और जितना भी जाना उसका उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक पलमें जाग्रत रहते हुवे पालन किया !अनुसरण किया ! एक सामान्य सी बात है सूरदास गोश्वामी तुलसीदास आदि हजारों हजार संतों ने कोई आश्रम बनाया ? किसी विशेष पंथ की स्थापना की ? इनके पास भौतिकीय सम्पत्ति के नाम पर क्या था ? इन्होंने कितने हजार शिष्यों की जमात बनायी ? उन्होंने केवल और केवल-“कैवल्य” का चिन्तन,मनन,निदिध्यासन,धारणा और ध्यान किया।
“रागं च दोसं च पहाय मोहं सम्मप्पजानो सुविमुत्त चित्तो”
परिणामतः उनका अंतःकरण राग-द्वेशादि कामनाओं से मुक्त होकर स्वतंत्र ह्रिदयाकाश में विरक्त चित्त सा दैहिक-दैविक-भौतिक किन्ही भी प्रकार की लालसाओं से मुक्त हो चुका था।
वासना रहित हो चुके होते हैं वे और आप ! वे “श्रामण्यसिद्धि”को प्राप्त हो चुके थे, सन्यास उनमें घटित हो चुका था ! उन्होंने अनायास सन्यास में प्रवेश कर लिया था ! “सः +न्यास” सः अर्थात उस परमतत्त्व का उन्होंने न्यास किया था ! अंगीकार किया था ! सांसारिक सुख सुविधाओं की अपेक्षा दैवीय अनुभूतियों को उन्होंने श्रेष्ठ समझा था।
मित्रों ! एकबार महात्मा बुद्ध ने कहा था कि–
“मतीत्यसमुत्पादं वो भिक्षवो देशमिस्यामि।
यः मतीत्यसमुत्पादं पश्यति स धर्म पश्यति।।”
वे कहते थे कि हे भिक्षुवों ! जो प्रतीत्य-समुत्पाद को जानता है !वही धर्म को जानता है ! जो नेत्रादि सभी ईन्द्रियों के विशयों का भोक्ता होते हुवे भी अभोक्ता सा व्यवहार वास्तवमें करता है ! वही “भिक्षु”है ! आप स्वयम् ही देखें औपनिषदीय-गीतोक्त उपदेश और तथागतजी के उपदेशों में कितनी तादम्यता है !ऐक्यता है ! वे स्पष्ट करते हैं कि–
“अनुपादियानो इधवा हुरं वा,स भागवा सामञ्ञस्स होति”
मित्रों ! अब मैं आपका ध्यान पतँजली योग सूत्र पर आकर्षित कराना चाहता हूँ-“योगस्यः चित्त वृत्ति निरोधानाम्”
और यही बात तथागतजी भी कहते हैं कि मैं अपने चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध अर्थात “दमन”नहीं बल्कि “निरोध”कर लूँ। मैं आपको “निरोध”का अर्थ बताता हूँ ! अवरुद्ध करना नहीं बल्कि “निर्वाध-गति”से उन चित्त की वृतिओं का दर्शक मात्र बन जाना।
मैं एक निर्कृष्टतम मानव हूँ,मेरे मलीन चित्त में गंदी भावनायें तो आयेंगी ही,यह भी संभव है कि कभी- कभी कुछ अच्छी भावनायें भी”आपके” संर्सग से आ जायें ! तथागतजी कहते हैं कि मैं दोनों भावनाओं का दृष्टा हो जाऊँ ! अब यदि मैं “पाप-पुण्य”का विश्लेषण करने बैठ जाऊँ,तो मुझ निर्बुद्धि द्वारा शास्त्रों के सही मंतव्य को न समझ पाने के कारण मैं अर्थ का अनर्थ ही समझूँगा।
मित्रों ! मैं कम पढूँ ! जितना भी पढूँ,गुरु-जनों से समझूँ उतने को ही अपने जीवन में उतारने का प्रयास करूँ ! वे कहते हैं कि-
“अनुपादियानो इधवा हुरं वा,स भागवा सामञ्ञस्स होति”
जितने घातक पाप कर्म होते हैं,उनकी स्मृतियाँ होती हैं- उतनी ही आत्मबोध-प्राप्तिमें बाधक पुण्य-स्मृतियाँ भी होती हैं,बुद्ध की दृष्टि में”पाप-पुण्य” तृणवत् होते हैं ! दोनों ही त्याज्य होते हैं !
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि-“पाप-पुण्य” दोनों का परित्याग ! ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि केवल पापों की स्मृति त्यागनी है !
पापों की स्मृति त्यागी दी किन्तु पुण्यों की स्मृति है ! अर्थात हम पुण्य कर्मों का फल चाहते हैं ! छोटे से छोटे पुण्य का अधिक से अधिक फल चाहते हैं ! हजारों हजार गुना अधिक चाहते हैं ! कितु अपने द्वारा किये पापों को भुला देना चाहते हैं ? उनके फलों को नहीं चाहते ? जरा सा भी दुःख आने पर परमात्मा को दोषी मानते हैं ! उसने हमारे साथ अन्याय किया ऐसा मानते हैं ! और सुख मिलनें पर उसे अपने कर्मों का फल मानते हैं ?
मित्रों !  इन दोनों के प्रति वासनाओं का त्याग ही-“धम्मम् शरणम् गच्छामि” है ! मैं एक अलौकिक बात आपको बताता हूँ- “तथागत” के पास सारनाथमें जब “ऋषि-पत्तन”(मृग-दावक) का महान धनिक वणिक”यश”आता है,उनके चरणों में प्रणाम करता है तो वे उसे कैसा विचित्र आशीष देते हैं ! आप ध्यान देना,यह “बुद्ध”का प्रथम उपदेश है-“पुत्तमताय पुत्ता” वे कहते हैं कि हे श्रावक ! तूँ ऐसी माता का पुत्र है जिसके पुत्र मर जाते हैं !
हाँ मित्रों ! ,बुद्ध”मरने की कला”सिखाते हैं ! यही इस”पद्द”का भाव है !और इन्हीं शब्दों के साथ मैं-“यमकवग्गो” के भावानुवाद को पूर्ण करता हूँ ! और पुनश्च अगले पद्द के साथ !शेष अगले अंक में ! ..-“आनंद शास्त्री सिलचर, सचल दूरभाष यंत्र सम्पर्क सूत्रांक 6901375971”

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